रूस के राष्ट्रपति श्री पुतिन ने अमेरिका के साथ 2010 में हुई परमाणु सन्धि से अपने देश को खारिज करते हुए साफ कर दिया है कि वह अमेरिका समेत पश्चिमी देशों की यूक्रेन के कन्धे पर बन्दूक रखकर विश्व शान्ति को तहस-नहस करने व शक्ति सन्तुलन को इकतरफा करने की कुचेष्टा को सफल नहीं होने देंगे। हमेशा की तरह रूस का वह दबदबा बनाये रखेंगे, जिसने दुनिया में विकासशील व अविकसित देशों के हक में अपनी ताकत का सदुपयोग करने में कभी पीछे कदम नहीं हटाया है। श्री पुतिन ने गत दिनाें अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन के अचानक यूक्रेन दौरा करने के बाद अपनी देश की संसद को सम्बोधित किया और ऐलान किया कि अमेरिका यूक्रेन को अपना औजार बना कर रूस के दरवाजे पर युद्ध का मोर्चा नहीं खोल सकता और नाटो सन्धि के बहाने रूस को हराने का ख्वाब पूरा नहीं कर सकता। इसके साथ ही श्री पुतिन ने कहा कि रूस भारत समेत मध्य एशियाई देशों के लिए व्यापारिक व वाणिज्यिक गतिविधियां सुगम व सरल बनाने हेतु ‘उत्तर-दक्षिण परिवहन कारीडोर’ का विकास व निर्माण करेगा जिससे भारत, ईरान, पाकिस्तान व मध्य एशियाई देशों के बीच व्यापार करना आसान व किफायती हो सकेगा। यह कारोडोर 7200 कि.मी. लम्बा होगा। इसकी मार्फत भारत आदि देश अपना माल यूरोपीय देशों को छोटे रास्ते से भेजने में सफल होंगे। श्री पुतिन ने कहा कि रूस ‘काला सागर’ व ‘अजोव सागर’ में नये बन्दरगाहों का निर्माण करेगा जिससे उत्तर से दक्षिणी देशों के बीच व्यापारिक गतिविधियां और अधिक निर्बाध तरीके से जारी रह सकेंगी।
उत्तर के देश विकसित पश्चिमी व अमेरिका कहे जाते हैं जबकि दक्षिण के देश विकासशील एशियाई आदि क्षेत्रों के देश माने जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि श्री पुतिन अमेरिका व पश्चिमी यूरोपीय देशों के उन प्रयासों को बीच में ही रोक देना चाहते हैं जो पूरी दुनिया को अपनी सामरिक व आर्थिक शक्ति के चलते अपनी शर्तों पर चलाना चाहते हैं। उन्होंने साफ किया कि रूस शान्ति वार्ताओं के विरुद्ध नहीं है मगर अमेरिका यूक्रेन को युद्ध के लिए भड़का कर व उसकी सामरिक मदद करके विश्व के उस सुरक्षा चक्र को तोड़ना चाहता है जिससे शान्ति का माहौल सर्वत्र बना रहे। श्री पुतिन का उत्तर-दक्षिण कारीडोर पर जोर देना बताता है कि वह भारत जैसी तेजी से विकास अर्थव्यवस्था वाले देशों के लिए विकास के नये अवसर प्रदान करने के लिए भारत से पूरा सहयोग करने के पक्षधर हैं क्योंकि उत्तर-दक्षिण कारीडोर का मूल रचनाकार भारत ही है क्योंकि यह चाहता है कि भारत से रूस व अन्य यूरोपीय देशों को होने वाले आयात-निर्यात कारोबार का समय कम हो और किफायती भी हो। भारत, ईरान, अफगानिस्तान, आर्मीनिया, अजरबेजान रूस व मध्य एशियाई देशों के बीच इस रास्ते से न केवल माल का परिवहन जल्दी होगा बल्कि सुदूर यूरोपीय देशों तक भी इन देशों में माल की आवाजाही सुगम बनेगी।
श्री पुतिन का यह कहना कि पिछले वर्ष रूस पर यूक्रेन युद्ध पश्चिमी शक्तियों ने ही थोपा है, पूरी तरह जायज ठहराया जा सकता है क्योंकि जब 1990 के करीब सोवियत संघ का विघटन विभिन्न 14 देशों में हुआ था तो अमेरिका समेत पश्चिमी देशों ने रूस से वादा किया था कि वे इस क्षेत्र में पड़ने वाले देशों के साथ नाटो सामरिक सन्धि नहीं करेंगे जिससे बचे हुए रूस को किसी प्रकार का खतरा पैदा न हो सके मगर इसका पालन नहीं किया गया जबकि उसी वर्ष रूस ने अपने सहोयगी पूर्वी यूरोपीय देशों के साथ नाटो के जवाब में की गई ‘वारसा सामरिक सन्धि’ को भंग कर दिया था परन्तु सोवियत संघ से ही टूट कर बने यूक्रेन देश ने नाटों सन्धि का सदस्य बनने के लिए अर्जी लगा दी जिसकी सीमाएं रूस से लगती हैं। अतः श्री पुतिन ने पहले यूक्रेन के साथ बातचीत करके इस मसले को निपटाना चाहा मगर यूक्रेन के राजी न होने पर उन्होंने यूक्रेन के उन इलाकों को रूस में मिलाने का अभियान चलाया जहां के नागरिक स्वयं को रूसी मानते हैं और कहते हैं। अब इस युद्ध को चलते एक वर्ष से अधिक होने जा रहा है और यूक्रेन को अमेरिका पूरी आर्थिक व सामरिक मदद देकर इस युद्ध को चालू रखना चाहता है। अमेरिका व उसके समर्थक देशों ने इस दौरान रूस पर कई प्रकार के कठोर आर्थिक प्रतिबन्ध लगा कर उसकी अर्थव्यवस्था को तोड़ना भी चाहा मगर इसमें उसे सफलता नहीं मिल सकी और रूस ने इसका विकल्प सफलतापूर्वक तरीके से ढूंढ लिया। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर रूस जैसी महाशक्ति को अलग-थलग करने की पश्चिमी ताकतों की यह चाल सफल न होने के पीछे रूस का अपना आर्थिक सामर्थ्य बहुत बड़ा कारण माना जा रहा है। मगर यह समीकरण इतना सरल भी नहीं है क्योंकि अमेरिका के साथ रूस की हुई परमाणु सन्धि के टूट जाने के बाद अब ये दोनों देश नये शक्तिशाली परमाणु परीक्षण करने के लिए स्वतन्त्र होंगे जिससे विश्व में नये प्रकार की सामरिक होड़ को बढ़ावा मिल सकता है। अतः विश्व के कूटनीतिक पंडितों की राय यह भी है कि यहीं से वार्ता का नया सिरा निकलेगा क्योंकि दुनिया अब किसी नये विश्व युद्ध की परिकल्पना नहीं कर सकती है। फिलहाल पूरी दुनिया में जितने परमाणु अस्त्र हैं उनका 90 प्रतिशत हिस्सा इन्हीं दोनों देशों के पास है। देखना होगा कि दुनिया अब किस तरफ मुड़ती है।