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रोजगार पैदा करने का सवाल ?

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1969 में जब स्व. इंदिरा गांधी ने देश की प्रधानमंत्री रहते बैंकों के राष्ट्रीयकरण का फैसला लिया था तो उसके पीछे एक बहुत ही सुविचारित पृष्ठभूमि थी। 1967 के जयपुर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में उन्होंने कांग्रेस कार्यकारिणी के समक्ष देश के 14 बड़े निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण का प्रस्ताव रखा जिसे उस समय इस पार्टी में प्रभावी सिंडिकेट के नेताओं ने अस्वीकार कर दिया था। इसमें तत्कालीन वित्तमंत्री स्व. मोरारजी देसाई प्रमुख थे जबकि समाजवादी सोच के प्रवाहक माने जाने वाले स्व. कामराज ने इसे आगे विचार करने के लिए मुल्तवी कर दिया था हालांकि वह इसके विरोध में नहीं थे। इसके बावजूद इंदिरा जी सरकार की मुखिया रहते हुए अपने इस प्रस्ताव पर इसलिए जोर डालती रही थीं क्योकि 1965 के भारत–पाक युद्ध के बाद देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई थी जिसे उन्होंने अमरीका के भारत के बाजार खोलने के दबाव में आए बिना अपनी बुद्धिमत्ता से इस प्रकार हल किया था जिससे भारत की संरक्षित अर्ध समाजवादी अर्थव्यवस्था पटरी पर चलती रहे। इसके लिए उन्होंने रुपए का पहली बार अवमूल्यन करके विदेशी मुद्रा और भुगतान संतुलन की समस्या का समाधान भारत की शर्तों पर किया क्योंकि तब मई 1966 में भारत के पास अपनी आयात जरूरतों को पूरा करने के लिए मात्र दो सप्ताह की भी विदेशी मुद्रा नहीं बची थी।

इंदिरा जी का बैंकों के राष्ट्रीयकरण पर जोर इसलिए था जिससे पूंजी का वितरण निवेश के लिए तरस रहे कृषि क्षेत्र से लेकर लघु उद्यम क्षेत्रों तक हो सके और रोजगार के साधनों में प्रचुरता आए, साथ ही सार्वजानिक निवेश के लिए सरकार को भी अतिरिक्त साधन सुलभ हों मगर उनके इस प्रस्ताव पर सिंडीकेट के नेताओं ने अमल नहीं होने दिया और तब उन्होंने कांग्रेस पार्टी के पहले विघटन की बेला में आधी रात को अध्यादेश जारी कराकर 14 बैंकों के राष्ट्रीयकरण को लागू कर दिया जिसकी खबर अगले दिन अखबारों के जरिये उनके वित्तमन्त्री मोरारजी देसाई को मिली। बिना शक देश में विगत वर्ष आठ नवंबर की रात्रि को आठ बजे अचानक पांच सौ और एक हजार रु. के बड़े नोटों को बंद करने का फैसला प्रधानमन्त्री ने देश की अर्थव्यवस्था से भ्रष्टाचार व कालेधन की समाप्ति के लिए लिया। प्रधानमन्त्री के इस कदम का देश की जनता ने खुले हृदय से स्वागत इसलिए किया क्योंकि उसे उनकी नीयत पर पूरा भरोसा था। प्रधानमन्त्री कालेधन की समानान्तर अर्थव्यवस्था का जड़ से खात्मा चाहते थे। इस तर्क में सच्चाई इस कदर थी कि इसके बाद देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में हुए चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की ऐतिहासिक जीत हुई परन्तु यह नोटबन्दी का आर्थिक नहीं बल्कि सामाजिक प्रभाव था।

नोटबन्दी ने उत्तर प्रदेश में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के छिटपुट बिखरे हुए वोट बैंक को भी छिन्न-भिन्न कर डाला और देश के सभी वर्गों से गरीब तबकों ने इसे अपने उत्थान के लिए तोहफा समझा। साम्प्रदायिक आधार पर भी इस वित्तीय फैसले का चमत्कारिक ढंग से असर पड़ा मगर दिक्कत तब पैदा हुई जब नोटबन्दी का असर वित्तीय क्षेत्र में उलटा पड़ना शुरू हुआ। इसके प्रति चेतावनी हालांकि सबसे पहले तब राष्ट्रपति पद पर रहते श्री प्रणव मुखर्जी ने ही दी थी, जो देश के सफलतम वित्तमन्त्री भी रहे थे और सरकार के इस कदम का स्वागत करते हुए कहा था कि बाजार से 80 प्रतिशत मुद्रा के गायब हो जाने के असर से असंगठित व लघु उद्योग क्षेत्र को विशेष रूप से बचाने के लिए सरकार को फौरी आपातकालीन वित्त योजना तैयार रखनी चाहिए। इसकी वजह से देश में रोजगार को भारी झटका लगा और एक आकलन के अनुसार नोटबन्दी के बाद नौकरियों का नुक्सान हुआ। इसमें बड़ी कम्पनियां तक शामिल हैं मगर यह कहना जल्दबाजी है कि बैंकों में जमा सारे धन में कालेधन का हिस्सा नहीं है। 99 प्रतिशत पुराने नोटों के बैंकों में जमा हो जाने से इतना जरूर माना जा सकता है कि कालाधन रखने वालों ने अपनी तीव्र वाणिज्यिक बुद्धि का प्रयोग करते हुए और तकनीकी पहलुओं को देखते हुए ही अपना सारा धन जमा कराया होगा।

वास्तव में प्रधानमन्त्री की नीयत पर किसी प्रकार का सन्देह करने का भी प्रश्न पैदा नहीं होता है मगर इतना यकीन के साथ कहा जा सकता है कि देश की नौकरशाही ने उनकी इस मंशा पर पानी फेरने में कोई कोताही नहीं बरती। विडम्बना यह है कि मौजूदा सरकार नौकरशाही को पिछली सरकारों के मुकाबले ज्यादा तरजीह दे रही है। इसके साथ ही लोकतन्त्र में नीतिगत मामलों में खुले या सीमित विचार–विमर्श का लाभ अन्ततः सत्तारूढ़ सरकार को ही मिलता है। संसदीय लोकतन्त्र में इसका सबसे बड़ा महत्वपूर्ण स्थल मन्त्रिमंडल होता है जिसमें आम जनता के सीधे सरोकारों से वाकिफ जनप्रतिनधि बैठे रहते हैं। ये अपने–अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ भी होते हैं। केवल बड़े-बड़े डिग्रीधारी लोग ही लोकतन्त्र में विशेषज्ञ नहीं होते। डिग्रधारी लोग इन्हीं प्रतिनिधियों को पीछे से उनके विषय या विभाग की सीमित वास्तविकता से परिचित कराते हैं। यही तो कारण रहा कि बिना किसी विश्वविद्यालय की डिग्री हासिल किये भारत के प्रथम शिक्षा मन्त्री मौलाना अबुल कलाम आजाद भारत में ऐसी उच्च शिक्षा पद्धति की नींव डाल कर गये थे जिसका लोहा पश्चिमी जगत तक को मानना पड़ा था। हमें रोजगार के नए साधन पैदा करने की तरफ तेजी से ध्यान देना होगा। वैसे अकेले रेलवे विभाग में ही साढ़े तीन लाख नौकरियां खाली पड़ी हुई हैं। निजी क्षेत्र में रोजगार बढ़ाने का काम तभी हो सकता है जब हम भारत के भीतर व्यापार करने को सरल बनाएं जो कि जीएसटी के लागू होने से दुरूह होता जा रहा है।

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