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फेक न्यूज की जांच का सवाल

सोशल मीडिया पर अफवाही खबरें ( फेक न्यूज) की जांच करने के लिए केन्द्रीय सूचना व प्रसारण मन्त्रालय की ब्राडकास्ट इंजीनियरिंग कंसलटेंट्स इंडिया लिमिटेड कम्पनी ने निविदा (टेंडर) जारी करके ऐसी एजेंसियों की सेवाएं मांगी हैं

सोशल मीडिया पर अफवाही  खबरें ( फेक न्यूज)  की जांच करने के लिए केन्द्रीय सूचना व प्रसारण मन्त्रालय की ब्राडकास्ट इंजीनियरिंग कंसलटेंट्स इंडिया लिमिटेड कम्पनी ने निविदा (टेंडर) जारी करके ऐसी एजेंसियों की सेवाएं मांगी हैं जो असलियत का पता लगा कर ऐसा करने वालों को पकड़ भी सकें। जाहिर है कि यह फैसला विवाद पैदा करेगा क्योंकि फेक न्यूज की उत्पत्ति हमेशा तथ्यों पर छाये सन्देह के वातावरण में ही होती है। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार अफवाहों या फेक न्यूज की उत्पत्ति की जनक स्वयं वह सरकार होती है जो अपने कार्यों में सम्पूर्ण पारदर्शिता नहीं रखती। 
लोकतन्त्र में प्रशासनिक पारदर्शिता के लिए ही संसद और विधानसभाएं होती हैं जहां विपक्षी पार्टियां सरकार को जवाबतलब करके उसके कामों का हिसाब-किताब मांगती हैं। यदि संसदीय प्रणाली में जवाबदेही के मुद्दे को बरतरफ करने की कोशिश की जायेगी तो अफवाहों का बाजार गर्म होने से नहीं रोका जा सकता। मगर इससे भी ज्यादा  सरकार की पारदर्शिता मायने रखती है। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के मुद्दे पर महात्मा गांधी और भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू के विचार बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं जिन्होंने कहा था कि लोकतन्त्र में प्रशासन पूरे पारदर्शी तरीके से चलाया जाना चाहिए और हर सवाल का जवाब दिया जाना चाहिए क्योंकि जब भी कुछ रहस्यमय तरीके या दबा-छिपा कर किया जाता है तो अफवाहों का बाजार गर्म होता है अतः पत्रकारों को तथ्यों की सही जानकारी लेकर आम जनता के सामने रखना चाहिए जिससे अफवाहें पैदा ही न हो सकें। यह बेवजह नहीं है कि भारत में स्वतन्त्र प्रेस ने तथ्यों की छानबीन करने में स्वतन्त्रता से लेकर अब तक महत्वपूर्ण योगदान दिया जिससे जनता के बीच किसी प्रकार की अफवाहें न फैल सकें। मगर इसके लिए प्रेस या मीडिया की विश्वसनीयता बेदाग होने की जरूरत होती है।
 सोशल मीडिया पर आजकल जिस तरह फेक न्यूज का बाजार गर्म करने में कुछ लोग सफल हो जाते हैं उसके पीछे ‘मीडिया’ की विश्वसनीयता में सन्देह पैदा होना भी एक प्रमुख वजह है जबकि केवल और केवल ‘विश्वसनीयता’ ही मीडिया की मुद्रा या ‘करेंसी’ होती है। अतः फेक न्यूज के प्रचार-प्रसार के लिए स्वयं मीडिया भी परोक्ष रूप से जिम्मेदार कहा जा सकता है। हालांकि अब से दस वर्ष पहले तक किसी ने भी कल्पना भी नहीं की होगी कि सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में इतनी जबर्दस्त क्रान्ति आयेगी कि अखबार मोबाइल फोन में पढे़ जाने लगेंगे और जो व्यक्ति चाहेगा ‘यू ट्यूब’ पर अपना न्यूज चैनल खोल देगा। 
इस टैक्नोलोजी के सकारात्मक उपयोग के दरवाजे सरकार के लिए खुले हुए हैं और तथ्य परक सूचनाएं देने के लिए यह बहुत शानदार माध्यम हो सकता है मगर जब इसका उपयोग  अफवाहें फैलाने में होता है तो सरकार का कर्तव्य हो जाता है कि वह सच को सामने लाकर फेक न्यूज का पर्दाफाश करे। लेकिन क्या इसके लिए किसी जांच कम्पनी की जरूरत है? इससे सोशल मीडिया पर अनावश्यक डर का माहौल पैदा होगा और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर अंकुश लगाने की मंशा जाहिर होगी। लोकतन्त्र कभी भी खौफ या डर के माहौल में नहीं चल सकता है। सफल लोकतन्त्र की पहली शर्त निडरता और निर्भय होना होती है जिससे नागरिक बिना किसी डर के अपनी चुनी हुई सरकार से सवाल पूछ सकें और बता सकें कि किसी भी सरकार के असली मालिक वे ही हैं। लोकतन्त्र उन्हें इसका अधिकार देता है गांधी बाबा के स्वतन्त्रता आन्दोलन का आधार केन्द्र भारतीयों को निडर व बेखौफ बनाना ही था  मगर लोकतन्त्र अराजकता पैदा करने की इजाजत भी नहीं देता है। 
एक जमाना था कि 1974 में लोकनायक जय प्रकाश नारायण का जन आन्दोलन  इसी मुद्दे पर लोकप्रिय हो गया था कि आम जनता को अपने चुने हुए प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार होना चाहिए. इस आन्दोलन में जनसंघ ( भाजपा) समेत सभी विपक्षी पार्टियां शामिल थीं ( भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़ कर)  मगर संसदीय लोकतन्त्र में इससे अराजकता पैदा होने का भी खतरा बहुत बड़ा था।  आज भारत इसके घुर उलट विमर्श पर चल रहा है।  सरकारी कार्यप्रणाली को लेकर ही  सबसे ज्यादा अफवाहों का बाजार गर्म होता है। ऐसा क्यों होता है इसका कारण तो हमें ढूंढना ही होगा। दूसरी वजह भारत में संवैधानिक संस्थाओं का ढीलमढाला रवैया है जिसकी वजह से अफवाहे सरपट दौड़ती हैं जबकि तुर्रा यह है कि भारत में ‘सूचना के अधिकार’ का कानून है और एक केन्द्रीय सूचना आयुक्त है जिसकी शाखाएं हर राज्य में हैं और उनकी जिला स्तर तक। दूसरी तरफ कुछ समाज विरोधी तत्व भी इस टैक्नोलोजी का लाभ उठाने से नहीं चूकते हैं और वे समाज में घृणा व वैमनस्य का माहौल बनाते हैं। यदि सबसे ताजा उदाहरण दिल्ली दंगों का लिया जाये तो कपिल मिश्रा के खुले रूप से कानून- व्यवस्था को अपने हाथ में लेने की हेकड़ी का संज्ञान दिल्ली पुलिस ने अभी तक नहीं लिया है। ऐसे माहौल में ही अफवाहें फैलती है जिन्हें हम फेक न्यूज कहते हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com­

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