आगामी 14 सितम्बर से शुरू होने वाला संसद सत्र प्रश्नकाल विहीन होगा। स्वतन्त्रता के बाद जब भारत ने संसदीय प्रणाली अपनाई तो इसकी पेचीदगियों के प्रति परिपक्व संसदीय प्रणाली के देशों ने चेतावनी दी कि भारत जैसे गरीब देश में यह व्यवस्था चलनी मुश्किल हो सकती है क्योंकि इसके अन्तर्गत चुने हुए प्रतिनिधियों की जिम्मेदारी सरकार में इस तरह शामिल होगी कि वे उसकी जवाबदेही को अपने कर्त्तव्यों का अभिन्न अंग मान कर चलें। यह जवाबदेही सांसदों के माध्यम से ही सरकार पूरा करेगी और इसे निभाने में सत्ता व विपक्ष के सदस्यों का भेद मिटा रहेगा। यही वजह है कि सत्ता में रहने वाली पार्टी के सांसद भी संसद में अपनी ही पार्टी के मन्त्रियों से उनके विभागों के बारे में तीखे सवाल पूछते रहे हैं। संसद के भीतर सरकार की जवाबदेही तय करने में संसद सदस्य केवल सांसद रहता है और उस पर अपनी पार्टी के अनुशासन का डंडा नहीं चल सकता।
लोकतन्त्र में संसद उसे अभय प्रदान करती है। जहां तक विपक्ष के सांसदों का सवाल है तो वे सरकार की जवाबदेही तय करने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं (केवल राष्ट्रीय सुरक्षा से सम्बन्धित गोपनीय जानकारियां छोड़ कर )। दरअसल प्रश्नकाल को संसद का सत्र शुरू होने पर नियमित बैठकों में सबसे पहले इसी वजह से रखा गया था जिससे सरकार सांसदों के लोक हित से जुड़े सभी मुद्दों पर पूछे गये सवालों का जवाब देकर देशवासियों को सन्तुष्ट कर सके, परन्तु पिछले एक दशक मंे राज्यसभा में बैठक के शुरू में सबसे पहले शून्यकाल किया गया जबकि लोकसभा में कोई अन्तर नहीं किया गया। इसकी वजह यह थी कि संसद की बैठक शुरू होते ही सांसदों के ज्वलन्त सामयिक विषयों पर सवाल इतने उग्र होते थे कि प्रश्नकाल चल ही नहीं पाता था। ऐसे भी अवसर कई बार आये जब लगातार कई-कई दिन तक प्रश्नकाल स्थगित करना पड़ा। उच्च सदन राज्यसभा में पिछले सभापति मोहम्मद हामिद अंसारी के कार्यकाल में फैसला किया गया कि प्रश्नकाल के अनुत्तरित ही रह जाने की वजह से इसका समय बदल दिया जाये क्योंकि सदन शुरू होते ही विपक्ष के सांसद वे मुद्दे खड़े करते हैं जिनका सम्बन्ध तुरन्त की समस्याओं से होता है। इसके चलते सदन बार-बार स्थगित करना पड़ता है जबकि प्रश्नकाल का संसदीय प्रणाली में सबसे पावन स्थान है। सांसदों के प्रश्न का जवाब तैयार करने में पूरा मन्त्रालय कड़ी मेहनत करता है और सम्बन्धित मन्त्री विस्तृत अध्ययन करने के बाद ही उसका उत्तर देते हैं क्योंकि लगभग 15 दिन पूर्व ही लिखित रूप से सरकार से पूछे गये सवाल के लिखित जवाब के बावजूद सदस्यों को उसी सम्बन्ध में और दो पूरक प्रश्न पूछने की इजाजत होती है। इतनी लम्बी कवायद के बाद यदि प्रश्नकाल स्थगित होता है तो उस पर खर्च की गई पूरी ऊर्जा व्यर्थ जाती है। अतः प्रश्नकाल को राज्यसभा में शून्यकाल के बाद कर दिया गया, परन्तु लोकसभा में परम्परा को नहीं बदला गया और बदस्तूर प्रश्नकाल बैठक शुरू होने के प्रारम्भ में ही रहता रहा। इतना जरूर संशोधन इस सदन में हुआ कि सर्वसम्मति से प्रश्नकाल स्थगित न करने की राय बनी और इस पर अमल होता रहा मगर वर्तमान संसद सत्र केवल तीन सप्ताह का होगा। इस दौरान पिछले छह महीने में सरकार ने बड़ी संख्या में अध्यादेश जारी किये हैं, सभी पर संसद की मुहर लगवाई जायेगी।
कोरोना व लाॅकडाऊन से लेकर बहुत से ज्वलन्त मुद्दे हैं जिन पर विपक्ष सरकार की जवाबदेही चाहेगा। जाहिर है इन पर चर्चा के चलते वातावरण गर्मागरम हो सकता है जिसकी वजह से प्रश्नकाल के दौरान शोर-शराबा होना स्वाभाविक हो जाता है। हमने देखा है कि किस प्रकार लोकसभा में एक तरफ शोर मचता रहता है तो दूसरी तरफ प्रश्नकाल चलता रहता है। राज्यसभा तो पिछले सत्रों में शून्यकाल में ही शोरशराबा होने पर दोपहर 2 बजे तक स्थगित होती रही। इस हकीकत को भी हमें देखना होगा। आगामी सत्र की केवल 14 बैठकों में संसद यदि अपना पूरा काम निपटा लेने में समर्थ हो जाती है और सरकार की जवाबदेही तय करने में सांसद सफल रहते हैं तो इसे सफल सत्र हम कई मायनों में मान सकते हैं।
दरअसल संसद का कार्य केवल नये कानून बनाना नहीं होता बल्कि लोगों की जिन्दगी में बदलाव लाने का होता है। इस बारे में स्वतन्त्र भारत की लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष जी.वी. मावलंकर का यह कथन हमेशा आदर्श रहेगा जो उन्होंने सांसदों के बारे में कहे थे। उन्होंने कहा था कि ‘लोग आपको इसलिए याद नहीं रखेंगे कि आपने कितने नये कानून बनाये बल्कि इसलिए संसद याद की जायेगी कि उसने कितने लोगों की जिन्दगी में बदलाव किया’ मगर एक और वास्तविकता हमारी संसदीय प्रणाली के सामने सूचना का अधिकार भी है। इस कानून के आ जाने के बाद सामान्य नागरिक भी सीधे सरकार से आरटीआई के तहत प्रश्न पूछ सकता है और सरकार द्वारा जवाब दिया जाना लाजिमी है। जब यह कानून लाया जा रहा था तो कुछ विशेषज्ञों की राय थी कि इससे संसद की जवाबदेही में साझेदारी होगी और सांसदों के विशेषाधिकारों का भी कहीं न कहीं संकुचन होगा मगर आरटीआई अब लोकप्रिय कानून हो चुका है और मीडिया तक इसका इस्तेमाल कर रहा है। अतः प्रश्नकाल के सभी सन्दर्भओं का हमें संज्ञान लेना चाहिए।