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फर्जी मुठभेड़ पर उठते सवाल

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मुठभेड़ों पर अक्सर गम्भीर सवाल खड़े किए जाते हैं। बहुत से मामले तो कई अदालतों में चल रहे हैं। इशरत जहां, सोहराबुद्दीन, तुलसीदास प्रजापति और बाटला एनकाउंटर आदि केस बहुत चर्चित रहे हैं। हाल ही राजस्थान में कुख्यात अपराधी आनन्दपाल सिंह मुठभेड़ को फर्जी बताया गया। इस पर जमकर बवाल हुआ, हिंसा भी हुई। 20 दिन बाद उसका अन्तिम संस्कार किया गया। अशांत और उपद्रवग्रस्त राज्यों में तो मुठभेड़ों के खिलाफ लम्बे आन्दोलन देखने को मिले हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अलग-अलग मामलों में कई बार मुठभेड़ों के सम्बन्ध में पुलिस, सेना और अन्य सुरक्षाबलों के लिए कुछ दिशा-निर्देश जारी किए थे लेकिन फर्जी मुठभेड़ खत्म होने का नाम नहीं ले रहीं। मुद्दा यह है कि भारत का कानून आत्मरक्षा के अधिकार के अन्तर्गत आम आदमी को जितने अधिकार देता है, पुलिस और अन्य सुरक्षाबलों को भी वही अधिकार प्राप्त हैं परन्तु आम आदमी आत्मरक्षा में किसी को मार देता है तो उसमें आवश्यक रूप से एफआईआर दर्ज होती है परन्तु पुलिस आत्मरक्षा के नाम पर किसी को मारती है तो उसे मुठभेड़ का नाम दे दिया जाता है और उस पर कोई एफआईआर भी दर्ज करना जरूरी नहीं समझा जाता।

पुलिस कहती है कि किसी अपराधी को गिरफ्तार करने गए तो हमला होने पर आत्मरक्षा के लिए उन्हें भी गोली चलानी पड़ी या आरोपी भाग रहा था तो उन्हें गोली चलानी पड़ी। पुलिस सामान्यत: मुठभेड़ के मामलों में धारा 307 (मरे हुए व्यक्ति द्वारा हत्या का प्रयास) मामला बताकर मुठभेड़ को जरूरी बना देती रही है। सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया था कि एनकाउंटर के बाद एफआईआर दर्ज करनी होगी और फिर एनकाउंटर की वैधता को साबित करना होगा। यह सवाल हमेशा ही अहम रहा है कि क्या पुलिस या अन्य बलों को आत्मरक्षा के लिए आम आदमी की तुलना में अधिक अधिकार प्राप्त होने चाहिएं? इस बार सुरक्षा विशेषज्ञ बहस करते रहे। कुछ इसके पक्ष में तर्क देते दिखाई दिए तो कुछ ने कहा कि पुलिस के पास तो पहले से ही गिरफ्तार करने, हथियार रखने, जांच करने आदि के कई अधिकार हैं। पुलिस और सुरक्षाबलों के इन अधिकारों में किसी और का कोई हस्तक्षेप नहीं है। इसलिए विशेष अधिकारों की मांग करना जायज नहीं है। कुछ पूर्व पुलिस अधिकारियों का कहना है कि पुलिस और सुरक्षाबलों के हाथ बांधने से उनका मनोबल कमजोर होता है और कानून-व्यवस्था में गिरावट आती है। सुरक्षाबलों पर अंकुश लगाने से अपराधीकरण को बढ़ावा मिलता है।

अपराधी और आतंकवादी आक्रमण करने में स्वतंत्र महसूस करेंगे। आम आदमी के लिए असुरक्षित वातावरण बन जाएगा। दूसरी ओर कई बार देखा गया है कि कोई पुलिस अधिकारी मैडल या पदोन्नति पाने के लिए फर्जी मुठभेड़ को अन्जाम दे देते हैं। पूर्वोत्तर राज्यों के जिन अशांत क्षेत्रों में सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून लागू है, वहां सुरक्षाबलों और पुलिस को विशेषाधिकार मिले हुए हैं। पूर्वोत्तर में फर्जी मुठभेड़ों के मामले सामने आते रहे हैं। खासतौर पर मणिपुर में तो सुरक्षाबलों पर आरोप लगते रहे हैं कि वे जरूरत से ज्यादा ताकत का इस्तेमाल कर गैर-न्यायिक हत्याएं कर रहे हैं। इसमें पुलिस, सेना, केन्द्रीय आरक्षी पुलिस बल और सीमा सुरक्षा बल शामिल हैं। इरोम शर्मिला ने तो अफस्पा हटाने की मांग को लेकर कई वर्षों तक अनशन किया था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने महत्वपूर्ण फैसले में मणिपुर की संदिग्ध मुठभेड़ों की जांच सीबीआई को सौंप दी है। जस्टिस एम.बी. लोकुर और जस्टिस यू.यू. ललित की बैंच ने कहा है कि ”यदि अपराध होता है जिसमें एक व्यक्ति की जान चली जाती है, जो सम्भवत: निर्दोष था, तो इसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता।”शीर्ष अदालत का यह निर्देश संदिग्ध मुठभेड़ों में मारे गए लोगों के परिजनों की जनहित याचिका पर आया, इसमें सेना, असम राइफल्स और मणिपुर पुलिस पर 2000 से 2012 के बीच 1528 फर्जी मुठभेड़ों को अन्जाम देने का आरोप लगाया गया है।

सुप्रीम कोर्ट ने पिछले वर्ष जुलाई में मणिपुर की सभी मुठभेड़ों की जांच के आदेश दिए थे। सभी मामलों की जांच के आदेश पर केन्द्र सरकार ने कहा था कि सेना का मानवाधिकार डिवीजन और रक्षा मंत्रालय इन सभी मुठभेड़ों की जांच करा चुका है, इसलिए इनकी स्वतंत्र जांच कराने की जरूरत नहीं है। वहीं सेना का कहना था कि जम्मू-कश्मीर और मणिपुर जैसे अशांत इलाकों में आतंकरोधी अभियानों को लेकर एफआईआर नहीं दर्ज कराई जा सकती, हालांकि शीर्ष अदालत ने इन दलीलों को नहीं माना था। मानवाधिकार संगठनों का दावा है कि वर्ष 1979 से लेकर 2012 तक 1528 लोग फर्जी मुठभेड़ों में मारे गए। इनमें 98 नाबालिग और 31 औरतें हैं। इनमें एक 82 वर्ष की महिला और सबसे कम उम्र वाली 14 वर्ष की लड़की शामिल है। वर्ष 2004 में थंगजाम मनोरमा देवी को अद्र्धसैनिक बलों के जवानों ने कथित गैंगरेप के बाद मार डाला था। इसके विरोध में मणिपुर की महिलाओं ने नग्न होकर प्रदर्शन किया था। सारी दुनिया में मनोरमा केस चर्चित हुआ था। हालांकि फर्जी मुठभेड़ों का सिलसिला मणिपुर में थम चुका है लेकिन गुनाहगारों को सजा दिलाने और परिवारों को मुआवजा दिलाने का संघर्ष जारी है। केन्द्र को पीडि़त लोगों को इन्साफ दिलाने के लिए कदम उठाने होंगे लेकिन यह भी देखना होगा कि कहीं सुरक्षाबलों का मनोबल प्रभावित न हो। पुलिस, सुरक्षाबलों और सेना की हर मुठभेड़ पर अविश्वास नहीं किया जा सकता।

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