विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में सरकार की तीन स्वतंत्र शाखाएं हैं-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। वैसे तो भारतीय न्यायिक प्रणाली अंग्रेजों ने औपनिवेशिक शासन के दौरान बनाई थी। देश में कानून को बनाए रखने के लिए न्यायपालिका की अहम भूमिका है। यह सिर्फ इंसाफ ही नहीं करती बल्कि नागरिकों के हितों की रक्षा भी करती है। न्यायपालिका कानूनों और अधिनियमों की व्याख्या कर संविधान के रक्षक के तौर पर काम करती है। अदालतें, ट्रिब्यूनल और नियामक सब मिलकर देश के हित में एक एकीकृत प्रणाली बनाते हैं। भारतीय न्यायिक प्रणाली दुनिया की सबसे पुरानी न्यायिक प्रणाली है। भारतीय नागरिकों का न्यायपालिका में अटूट विश्वास है तभी तो छोटी-छोटी समस्याओं को लेकर भी लोग अदालतों के द्वार खटखटाने लगे हैं। न्यायिक प्रणाली में कुछ समस्याएं भी हैं जिसमें इस प्रणाली के दोष सामने भी आते हैं। कभी-कभी न्यायपालिका की जवाबदेही का अभाव नजर आता है तो कभी इसमें पारदर्शिता की कमी नजर आती है। सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि न्याय की प्रक्रिया जटिल, लम्बी और काफी महंगी है। ढाई करोड़ से अधिक मामले लम्बित पड़े हुए हैं। न्याय के लिए ‘तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख’ का फिल्मी संवाद काफी लोकप्रिय हो चुका है। देश की अदालतें मुकदमों के बोझ तले दबी पड़ी हैं। विलम्ब से मिला न्याय भी अन्याय के समान होता है। किसी भी देेश में न्याय प्रक्रिया कमजोर होती है तो लोकतंत्र को नुक्सान ही पहुंचता है।
कोरोना वायरस की महामारी के चलते पूरे देश में लॉकडाउन है। लॉकडाउन के चलते न्यायपालिका का कामकाज काफी प्रभावित हो चुका है। निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक केवल कुछ अत्यावश्यक मामलों की सुनवाई ही हुई है। कोरोना वायरस के बचाव के लिए लॉकडाउन की अवधि का बढ़ाया जाना तय है। इससे लम्बित मुकदमों की संख्या तो बढ़ेगी ही बल्कि लोगों को न्याय के लिए लम्बा इंतजार भी करना पड़ सकता है। इस समय सुप्रीम कोर्ट से लेकर निचली अदालतों में लम्बित मुकदमों की संख्या 3.68 करोड़ हो चुकी है। लॉकडाउन की अवधि के दौरान मुकदमों की सुनवाई टाली गई और नई तारीखें दे दी गईं। इस दौरान नए मुकदमे भी दायर किए गए होंगे या फिर नए केस डालने के लिए लोग तैयारी भी कर रहे होंगे। लॉकडाउन के दौरान केन्द्रीय प्रशासनिक अधिकरण, कम्पनी लॉ बोर्ड, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल समेत सभी अधिकरणों में भी सुनवाई नहीं हो रही।
सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में हर वर्ष 16 मई से 7 जुलाई तक ग्रीष्मकालीन अवकाश रहता है। इस दौरान अवकाश कालीन पीठ सुनवाई करती है। हाईकोर्ट ने तो ग्रीष्मकालीन अवकाश रद्द करने का फैसला किया है। सम्भवतः शीर्ष अदालत भी कार्य दिवसों के नुक्सान की भरपाई के लिए अवकाश की अवधि कम करे या रद्द करेगी ही।
कोरोना का प्रकोप कम होने में कितना समय लगेगा, इसकी कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। इस स्थिति से भारत के मुख्य न्यायाधीश डा. धनंजय वाई. चन्द्रचूड़ भी चिंतित हैं तभी तो उन्होंने हाईकोर्टों की ई समिति के न्यायाधीशों के साथ विचार-विमर्श किया था कि अत्यावश्यक मामलों के केसों की सुनवाई तीव्रता से कैसे की जाए। कुछ महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई वीडियो कांफ्रैंसिंग के जरिये हुई और वकीलों ने अपने घरों में बैठकर ही दलीलें पेश कीं।
लॉकडाउन की अवधि खत्म होने के बाद भी अदालतों, अधिकरणों और आयोगों का कामकाज सामान्य रूप से कैसे चले, यह भी अपने आप में बड़ी चुनौती है। निचली अदालतों पर तो बोझ काफी बढ़ जाएगा। मुकदमों की तेजी से सुनवाई और उनका निपटारा आसान नहीं है। लाखों ऐसे मामले होते हैं जो देखने में सामान्य प्रतीत होते हैं लेकिन एक आम आदमी के लिए उसके भविष्य का फैसला करने वाले होते हैं। विधायिका और कार्यपालिका को अपना-अपना काम ईमानदारी के साथ करना होगा। विधि और न्याय का शासन स्थापित करने के लिए कुछ ऐसे कदम उठाने होंगे जिससे लोगों को जल्दी इंसाफ मिले। जल्दी इंसाफ दिलाने के लिए कोई कारगर रणनीति बनानी होगी। अदालतों में रिक्त पड़े न्यायाधीशों के पदों पर नियुक्तियां करनी होंगी। न्यायपालिका में सुधार एक सतत् चलने वाली प्रक्रिया है।
न्यायपालिका को ऐसे सुधारों को प्राथमिकता देनी होगी ताकि सभी को न्याय सुनिश्चित किया जा सके। न्यायपालिका में जन-जन की आस्था जितनी मजबूत होगी, उतना ही लोकतंत्र मजबूत होगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि शीर्ष अदालतों ने महत्वपूर्ण मुद्दों और सरकारों द्वारा बनाए गए कानूनों की समीक्षा कर ऐतिहासिक फैसले दिए हैं। ऐसी व्यवस्था की जरूरत है कि आम आदमी को त्वरित और सस्ते में न्याय मिले।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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