सर्वोच्च न्यायालय के इतिहास में गुरुवार का दिन उल्लेखनीय कहा जायेगा क्योंकि इसने इस दिन तीन महत्वपूर्ण मुकदमों का फैसला करके वह धुंध छांटी है जो सामाजिक व राजनैतिक वातावरण में अर्से से छायी हुई थी। सबसे अहम मसला भारतीय वायुसेना के लिए खरीदे गये 36 लड़ाकू राफेल विमानों का था जिन्हें लेकर फौजी सौदों में परोक्ष भ्रष्टाचार या पक्षपात होने की आशंका को बल मिल रहा था।
हालांकि इस बारे में दाखिल याचिकाओं का निपटारा देश की सबसे बड़ी अदालत ने 2019 के चुनावों से पहले ही यह कहकर कर दिया था कि इनकी खरीद की प्रक्रिया में कहीं कोई गड़बड़ नहीं हुई है और इनकी कीमत तय करने में किसी प्रकार की गड़बड़ी की आशंका सही नहीं कही जा सकती परन्तु तब केन्द्र सरकार द्वारा लेखा महानियन्त्रक की रिपोर्ट का हवाला देते हुए दायर हलफनामे पर इस वजह से विवाद पैदा हो गया था कि तब तक महानियन्त्रक की लेखा-जोखा रिपोर्ट संसद की लोकलेखा समिति के सामने पेश ही नहीं हुई थी और इसके अध्यक्ष पिछली संसद में कांग्रेस के नेता श्री मल्लिकार्जुन खड़गे थे।
अतः इस फैसले की पुनरीक्षा करने के लिए एक याचिका दायर हुई थी जिसे न्यायालय ने विचारार्थ स्वीकार कर लिया था। आज इसी याचिका पर फैसला देते हुए विद्वान न्यायाधीशों ने मोदी सरकार विशेष रूप से प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी को क्लीन चिट दे दी है और कहा है कि इस मामले में अब किसी भी प्रकार की जांच की जरूरत नहीं है। वैसे देश की जनता ने 2019 के लोकसभा चुनावों में प्रधानमन्त्री मोदी के नाम पर ही भाजपा को पहले से भी बड़ी जीत देकर फैसला दे दिया था कि उन पर सन्देह करने की कतई गुंजाइश नहीं है लेकिन यह जनता की अदालत का फैसला था जिसका संवैधानिक व कानूनी ‘दांव-पेंचों’ से कोई लेना-देना नहीं था।
अब जनता के फैसले को एक प्रकार से संवैधानिक वैधता भी प्राप्त हो गई है। लोकतन्त्र में दोनों के ही फैसलों का महत्व होता है, किन्तु कांग्रस पार्टी का इस फैसले के बाद यह कहना कि इसमें जांच एजेंसियों को आपराधिक दृष्टि से पड़ताल करने से नहीं रोका गया है, कानूनी विशेषज्ञों के दायरे में आता है। जबकि फैसले में यह कहा गया है कि इसमें ‘एफआईआर’ तक दर्ज करने की जरूरत नहीं है। यह भी गजब का संयोग रहा कि सर्वोच्च न्यायालय के पिछले फैसले को लेकर ही कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष राहुल गांधी पर अदालत की अवमानना का मुकदमा दायर हुआ क्योंकि उन्होंने राफेल विमान खरीद प्रक्रिया के ‘राजनैतिक व्याकरण’ में न्यायालय द्वारा दिये गये फैसले का गलत अर्थों में इस प्रकार उपयोग किया था कि उनके कथन की पुष्टि होते लगे।
अर्थात पूरे चुनाव प्रचार के दौरान वह राफेल खरीदारी में जो विमर्श रिलायंस समूह की अनिल अम्बानी की कम्पनी को दिये गये 30 हजार करोड़ रुपए के सीधे लाभ का पैदा कर रहे थे वह जायज लगे। सही मायनों में राहुल गांधी इस मुद्दे पर बुरी तरह फंस गये थे और उन्हें तभी न्यायालय में माफीनामा दाखिल करना पड़ा था जिसे बाद की पेशियों में संशोधित करके दायर किया जाता रहा। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने राहुल गांधी को क्षमा कर दिया है मगर ताकीद की है कि भविष्य में वह बहुत सोच-विचार कर बोलें और विषय की गंभीरता को समझ कर बोलें।
जाहिर है कि राफेल पर राहुल गांधी उग्रता से भी ऊपर आक्रामक शैली में सीधे प्रधानमन्त्री की ईमानदारी और विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा कर रहे थे क्योंकि चुनावी सभाओं में राहुल गांधी ‘चौकीदार चोर है’ के नारे लगवा कर लोकतान्त्रिक जवाबदेही को मुखर लाना चाहते थे लेकिन इसके जवाब मे जब प्रधानमन्त्री मोदी द्वारा स्वंय तैयार किया हुआ आम जनता को दिया गया यह नारा तैरा कि ‘मैं भी चौकीदार’ तो साफ हो गया था कि जनता की अदालत में श्री मोदी की विजय हो चुकी है।
अतः चुनाव परिणाम भी उसी के अनुरूप आये और राहुल गांधी का विमर्श चारों खाने चित्त जाकर गिरा। वैसे भी दशहरे के विजय पर्व पर पहला राफेल विमान वायुसेना को भेंट देकर रक्षामन्त्री राजनाथ सिंह ने एेलान कर दिया था कि राजनैतिक ‘उठा-पटक’ के डर से भारत की सुरक्षा से किसी प्रकार का समझौता नहीं होगा। कांग्रेस अब बेशक ‘आइने’ पर धूल जमी होने का ख्वाब देख रही हो मगर असलियत में उसके ‘चेहरे’ पर ही धूल लगी हुई है जिसे उसे साफ करके ‘आइने’ में अपना चेहरा देखना होगा।
अतः ‘राफेल रामायण’ का अन्तिम अध्याय आज के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के साथ ही समाप्त हुआ। इसलिए न तो पुनरीक्षण याचिका दायर करने वाले और 1990 में चन्द लाख डालर के लिए भारत के खजाने का सोना गिरवी रखने वाले ‘सिक्का-ए-राज-उल-वक्त’ वजीरेखजाना जनाब यशवन्त सिन्हा को उछलने की जरूरत है और न ही हुजूरेवाला अरुण शौरी को कूदने की जरूरत है। लोकतन्त्र में उन नेताओं को ही ‘मिट्टी का शेर’ कहा जाता है जो जबानी जमा-खर्च में सरकारें बना और गिरा देते हैं। इससे ज्यादा मैं किसी की शान में कोई गुस्ताखी नहीं कर रहा हूं मगर बड़े अदब से एक गुस्ताखी करना चाहता हूं कि धार्मिक मामलों की नियमावली और संवैधानिक व्यवस्था की निर्देशिका में जमीन-आसमान का अंतर होता है।
धर्म के नाम पर फैले अन्धविश्वास को छांटने में कानून कारगर हथियार का काम करता है परन्तु धार्मिक कर्मकांड के आन्तरिक तंत्र में कानून की दखलन्दाजी उसी तरह कारगर नहीं हो सकती जिस तरह केरल के सबरीमाला मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर दिया गया उसका पिछले साल का फैसला। वस्तुतः न्यायालय के आदेश की अवमानना के हक में वहां धार्मिक संस्थाओं ने आंदोलन जैसा रूप अख्तियार कर लिया। धर्म के दायरे में स्त्री-पुरुष की समानता सम्बद्ध पंथ की परंपराओं पर निर्भर करती है। बेशक ये परंपराएं रूढ़ीवादी हो सकती हैं और अवैज्ञानिक भी कही जा सकती हैं परन्तु पूजा पद्धति की शुचिता की मान्यताओं से इन्हें प्रतिष्ठापित करके ही पुजारी या धर्मोपदेशक सामाजिक विश्वसनीयता के पात्र बनते हैं।
जहां तक हिन्दू मान्यताओं का सवाल है तो उत्तर भारत की प्रमुख ग्रामीण कृषि पर निर्भर जातियों सहित संभ्रान्त जातियों तक में भी स्त्रियों को अपने परिजनों का दाह संस्कार करने या उस स्थल पर जाने की मनाही होती है। मुस्लिम सम्प्रदाय में भी यही परंपरा है। पूजा पद्धति के नियमों का पालन भी स्त्री के गृहस्थी की स्वामिनी होने के भाव से ही जुड़ा हुआ है और पुरुष के परिवार के ‘भरतार’ होने के भाव से पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव में हम अपने पारिवारिक सन्तुलन के दायित्व से इस तरह विमुख न हो जायें कि समलैंगिक विवाहों का खुला समर्थन यूरोप की भांति सड़कों पर करते दिखाई दें।
हमें कुरीतियों, रूढ़ीवादी परंपराओं और धार्मिक अनुष्ठान के नियमों में अन्तर को परखना होगा और फिर स्त्री समानता के अधिकारों का जायजा लेना होगा और इस वैज्ञानिक दृष्टि के साथ कि दोनों ‘बराबर’ तो हैं मगर ‘एक जैसे’ नहीं क्योंकि दोनों की शारीरिक बनावट और भौतिक क्षमताओं में प्राकृतिक अन्तर है। अतः सबरीमाला पर दिए गए पूर्व फैसले की समीक्षा के लिए बड़ी संविधान पीठ की स्थापना करने का फैसला लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने समयोचित कदम उठाया है।