अयोध्या में मन्दिर निर्माण को लेकर जिस प्रकार चुनावों से पहले सिंह गर्जनाएं की जा रही हैं वे भारत के सर्वोच्च न्यायालय में चल रहे इससे सम्बन्धित मुकदमे की सात्विकता को केवल आस्था का प्रश्न बताकर शंका के घेरे में नहीं डाल सकतीं क्योंकि जिस स्थान को रामजन्म भूमि कहा जा रहा है उसमें पड़ा ताला भी 30 वर्ष पहले फैजाबाद की अदालत के आदेश से खोला गया था मगर 6 दिसम्बर 1992 को इस स्थान पर खड़ी बाबरी मस्जिद को ढहाये जाने के बाद जिस तरह राम मन्दिर निर्माण को लेकर पूरे देश में राजनीति का खेल शुरू हुआ उसने समूचे भारत में साम्प्रदायिक दंगे भड़का कर इस देश के समूचे विकास के प्रमुख अंगों को इस तरह प्रभावित किया कि कब भारत में समूची शिक्षा प्रणाली का निजीकरण हो गया और किस तरह पूरी स्वास्थ्य सेवाओं का कारपोरेटीकरण इस तरह हो गया कि एक ओर गरीब आदमी के बीमार पड़ने पर उससे जीने का हक छिन गया और दूसरी तरफ उसके बच्चे स्तरीय शिक्षा से मरहूम हो गये, इसके बारे में उसे पता ही नहीं चला।
पिछले 26 वर्षों से इस देश में आर्थिक विकास वृद्धि दर के आंकड़े दे-देकर यह तो बताया जा रहा है कि हमारी वित्तीय स्थिति सुधर रही है मगर यह नहीं बताया जा रहा है कि अमीर और गरीब के बीच की खाई में अंतर कितना बढ़ता जा रहा है लेकिन क्या इन प्रश्नों का सम्बन्ध अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण से है? यह जायज सवाल है जो पूछा जाना चाहिए।
इसका उत्तर यह है कि जब किसी देश में सर्वमान्य संविधान के दायरे से बाहर जाकर जन अपेक्षाओं का राजनीतिकरण किया जाता है तो उसका पहला असर उस देश के लोगों के विकास पर ही होता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण दुनिया के वे कट्टरपंथी मुस्लिम देश हैं जो आज लोकतन्त्र की खुली हवा के लिए तड़प रहे हैं क्योंकि एकमात्र लोकतान्त्रिक प्रणाली में ही वह ताकत है जो किसी भी देश की जनता के विविधता को समरस करते हुए एक सूत्र में बांध कर मजबूत राष्ट्र बनने का रास्ता दिखाती है मगर इसके लिए हमें केवल गांधीवादी मार्ग ही चुनना पड़ता है जिसका सबसे बड़ा विचार सहिष्णुता है।
अतः पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी को यदि आज यह स्वीकार करना पड़ रहा है कि भारत इस समय असहिष्णुता के दौर से गुजर रहा है तो इस पर गंभीरता के साथ विचार करने की जरूरत है। जाहिर है वह कम्युनिस्ट नहीं हैं और क्रान्तिकारी गांधीवादी विचारक माने जाते हैं। गांधी की राम में आस्था कम नहीं थी और वह ‘रघुपति राघव राजा राम-पतित पावन सीता राम, ईश्वर अल्लाह तेरो नाम-सबको सन्मति दे भगवान’ का उवाच भी अपनी प्रार्थना सभाओं में करते थे और उनमें हिन्दू-मुसलमान सभी होते थे। इसके बावजूद उनकी हत्या एक हिन्दू ने ही की।
इसकी वजह केवल इतनी थी कि गांधी राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में धर्म को कहीं बीच में नहीं देखना चाहते थे और इसकी पहली शर्त दलित उत्थान मानते थे क्योंकि हजारों वर्षों से हिन्दू सम्प्रदाय के स्वयं को कथित ऊंची जाति का कहने वाले लोग उनके साथ पशुओं से भी बदतर व्यवहार कर रहे थे मगर आश्चर्य है कि शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने अयोध्या में इसलिए डेरा डाला है कि पहले मन्दिर निर्माण हो, विश्व हिन्दू परिषद के लोग भी यहां पहुंच रहे हैं और अगले महीने धर्म संसद का आयोजन किया जा रहा है। ये सभी लोग देश की उस न्यायप्रणाली का संज्ञान लेने से कतरा रहे हैं जिसके आदेश से राम जन्म स्थान का ताला खुला और कह रहे हैं कि 2019 के चुनाव से पहले राम मन्दिर का निर्माण हो।
इसके साथ यह भी कहा जा रहा है कि मन्दिर निर्माण हेतु मोदी सरकार अध्यादेश जारी करे या संसद के शीतकालीन सत्र में विधेयक लाये। आश्चर्य है कि इन लोगों को इतना भी ज्ञान नहीं है कि सरकार किसी भी जमीन का अधिग्रहण तो कर सकती है मगर केवल विकास की उन परियोजनाओं के लिए जिनका सम्बन्ध बिना किसी भेदभाव के हर धर्म के मानने वाले नागरिक को सुविधा सुलभ कराने से हो। अतः एेसे विकल्पों से केवल असहिष्णुता को ही बढ़ावा मिल सकता है जिसका अर्थ यही निकलता है कि भारत अपनी उस संस्कृति के विरुद्ध जा रहा है जिसकी पैरवी गुरु नानक देव जी महाराज से लेकर स्वामी विवेकानन्द और महिर्ष अरविन्द ने की। स्वयं राम ने भी कोई एेसा कार्य नहीं किया जिससे समाज में असहिष्णुता का भाव फैले।
इससे भी ऊपर हकीकत यह है कि हम इतिहास की कब्रें खोदने की जगह उसके द्वारा पैदा की गई उन खाइयों को भरें जिससे आने वाली नई पीढि़यों के सामने उज्ज्वल भारत का इतिहास पेश हो सके। आखिर अंग्रेजों ने अपने दो सौ साल के शासन मंे सिवाय हिन्दुओं और मुसलमानों को बांटने के अलावा और क्या किया जबकि दोनों पर ही उन्होंने जुल्म ढहाने की इन्तेहा कर दी थी और उस अन्तिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर के शहजादों के सिर काट कर उन्हें तरबूज का तोड़पा बता कर शंहशाह को नजराना भेजा था जिसने दिल्ली में रामलीला की शुरूआत नगर सेठ छुन्नामल से कराई थी और यह सेठ छुन्नामल वह थे जिन्होंने फतेहपुरी मस्जिद काे गिरवी रखी रकम देकर छुड़ाया था।
इसलिए जरूरी है कि अयोध्या विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय के अंतिम फैसले की प्रतीक्षा की जाये क्योंकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 2010 में ही यह फैसला दे दिया था कि अयोध्या की विवादास्पद जमीन का दो तिहाई हिस्सा हिन्दुओं को और एक तिहाई मुसलमानों को दिया जाये मगर इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दे दी गई।
अतः मन्दिर बनाने का रास्ता तो 2010 में ही खुल गया था लेकिन इसके साथ यह सवाल भी प्रासंगिक है कि नब्बे के दशक में मन्दिर निर्माण के लिए हिन्दुओं से जो चन्दा इकट्ठा किया गया था उसका हिसाब-किताब कहां है? उस धन का इस्तेमाल किसी अन्य कार्य या लोगों को इकट्ठा करने में किसी भी तौर नहीं किया जा सकता क्योंकि लोगों ने अपनी आस्था की वजह से ही यह धन दिया था। यह भी ध्यान देने वाली बात है कि मन्दिर आन्दोलन की वजह से कौन-कौन लोग रातों-रात नेता बन गये और उनकी निजी सम्पत्ति में अब तक कितनी वृद्धि हो चुकी है। आखिरकार आस्था की वजह से ही तो यह धन इकट्ठा हुआ था।