बिहार विधानसभा चुनावों से पूर्व राष्ट्रीय जनता दल के कद्दावर नेता डा. रघुवंश प्रसाद सिंह का पार्टी से इस्तीफा देना बताता है कि हवा का रुख किस तरफ है। रघुवंश बाबू विपक्ष के उन गिने-चुने नेताओं में से एक हैं जिनका सम्मान पार्टी सीमा को तोड़ कर हर दल में एक समान है। वह बिहार की राजनीति के शिखर पुरुष इसलिए समझे जाते हैं कि उनके विचार कभी भी मौका देख कर नहीं बदले और वह हर काल में डा. राम मनोहर लोहिया के सिद्धान्तों का अनुपालन इस प्रकार करते रहे कि उनके व्यक्तिगत जीवन और सार्वजनिक जीवन मंे कहीं किसी प्रकार का विरोधाभास न हो। गणित विषय में पीएचडी डा. सिंह लालू जी की पार्टी में वैज्ञानिक सोच रखने वाले एेसे नेता रहे जिन्होंने दकियानूसी प्रवृत्तियों का विरोध करना कभी नहीं छोड़ा। राजनीति में शुचिता कायम रखने के पक्षधर रघुवंश बाबू का लालू जी का साथ छोड़ना बताता है कि बिहार में राजनीतिक समीकरण बहुत पेचीदा हो सकते हैं।
पिछले लगभग तीस वर्ष से बिहार की राजनीति तीन ध्रुवों लालू, पासवान व नीतीश के चारों तरफ घूमती रही है। ये तीनों ही ध्रुव अब अपने स्थान से हटते नजर आ रहे हैं और बिहार की राजनीति जातिगत दायरे से बाहर निकलने के लिए कुलबुलाती नजर आ रही है। दरअसल बिहार के जननायक कहे जाने वाले स्व. कर्पूरी ठाकुर ने जो विरासत इस राज्य में जाति उत्थान और समतामूलक समाज की छोड़ी थी उसमें कालान्तर में विसंगतियां इस प्रकार आईं कि जातियों के आधार पर इस राज्य में सेनाओं का गठन तक हुआ और सामाजिक बराबरी का युद्ध जाति युद्ध में बदलता गया, परन्तु कोरोना महामारी के चलते लाकडाऊन की वजह से जिस प्रकार बिहार में जातियों का संघर्ष जाति समन्वय में बदला है उससे बिहार के तीनों महारथियों की नैया डांवाडोल हो गई है और राजनीति का विमर्श ‘सम्पन्न बनाम विपन्न’ के इर्द-गिर्द घूमता नजर आने लगा है। जो लोग इस राज्य की महान जनता के मिजाज से वाकिफ हैं वे भली भांति जानते हैं कि पूरे देश के निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान देने वाले बिहारी नागरिक समय की रफ्तार के अनुसार अपना अगला राजनीतिक कदम तय करते हैं और परिस्थितियों का वैज्ञानिक विश्लेषण करने में उनका कोई सानी नहीं रखता। सामाजिक न्याय के लिए जो युद्ध स्व. कर्पूरी ठाकुर ने साठ के दशक के अन्त से शुरू किया था उसकी परिणति उनके ही चेले कहे जाने वाले लालू, पासवान व नीतीश ने यदि जाति युद्ध में कर डाली है तो बिहारी नागरिक इसमें यथानुरूप संशोधन करने का दिमाग भी रखते हैं।
सिद्धान्तों की नींव पर पार्टीगत आधार पर मतदान करना इस राज्य के लोगों के रक्त में बसा हुआ है। इसी वजह से लालू, पासवान और नीतीश का उदय भी क्षेत्रीय राजनीति में प्रभावशाली ढंग से हुआ। बेशक इनके उद्भव के लिए जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन को भी श्रेय दिया जाता रहा है परन्तु असलियत कर्पूरी ठाकुर की विरासत की ही रहेगी लेकिन जिस तरह लालू व पासवान की पार्टियां खानदानी परचून की दुकानें बनी हुईं हैं उससे आम बिहारी के मन में जातिगत राजनीति के प्रति तिरस्कार भाव भी जागृत हो रहा है। इसका प्रमाण राज्य में हुए पिछले लोकसभा व विधानसभा चुनाव दोनों ही हैं। 2015 के विधानसभा चुनावों में राज्य ने लालू , नीतीश व कांग्रेस के महागठबन्धन को पूर्ण बहुमत प्रदान किया था, परन्तु 2019 के लोकसभा चुनावों में नीतीश बाबू के जनता दल (यू) व भाजपा के गठबन्धन को तूफानी सफलता प्रदान की। राष्ट्रीय और राज्य धरातल पर अलग-अलग ढंग से मतदान के रुझान का यह स्पष्ट उदाहरण था, परन्तु नीतीश बाबू ने बीच में लालू से नाता तोड़ कर राज्य स्तर पर भाजपा से हाथ मिला कर अपनी सरकार पुनः बनाने का जो करतब किया उससे रघुवंश प्रसाद सिंह सरीखे नेताओं को अपनी पार्टी की साख बचाने का अवसर मिला था जिसे स्वयं लालू ने अपने नौसिखिये पुत्रों के हाथ में पार्टी की कमान सौंप कर खो दिया। लालू के जेल जाने के बाद उनकी पार्टी के भीतर जो पारिवारिक गृह युद्ध मचा हुआ है उससे आम बिहारी मतदाता इस पार्टी के प्रति उदासीन रवैया अपना सकता है। हालांकि चुनावों में अभी दो महीने शेष हैं और जिस प्रकार सुशान्त सिंह राजपूत की आत्महत्या को लेकर राजनीतिक तलवारबाजी अभी से शुरू हो गई है उससे जातिगत भावनाओं का खेल उभारने का कार्यक्रम शुरू हुआ भी कहा जा सकता है परन्तु बिहार के प्रवासी मजदूरों की आत्महत्याओं का मसला भी कोई छोटा नहीं है और सामान्य जनता में शासन के प्रति रोष भाव भी कम नहीं आंका जा रहा है।
वास्तव में कोरोना संक्रमण से उत्पन्न लाकडाऊन ने बिहार में ‘जाति तोड़ो-दाम बांधो’ के नारे को पुनः तैयार कर दिया है जो कभी डा. लोहिया की ‘संसोपा’ पार्टी का हुआ करता था। हैरत की बात यह है कि यह विमर्श स्वतः जनता के बीच उभरा है जो इस बात का प्रतीक है कि बिहार के लोग किस कदर राजनीतिक रूप से जागरूक हैं। उनकी यह जागरूकता ही पूरे उत्तर भारत को प्रेरणा देती रही है और इस राज्य को राजनीतिक प्रयोगशाला का दर्जा देती रही है। इस राज्य में राष्ट्रवाद, साम्यवाद, समाजवाद और गांधीवादी विचारधाराएं जिस प्रकार एक-दूसरे के समानान्तर शुरू से चलती रही हैं उन पर पूर्ण विराम पिछले तीस वर्षों में लगा जरूर मगर बिहार की धरती इन सभी सिद्धान्तों की उपयोगिता भी आंकती रही। जिस तरह के राजनीतिक समीकरण इस राज्य में बने वे स्वयं में अपनी तस्दीक करते रहे। यह तस्दीक जमीनी धरातल पर इस तरह होती रही कि पिछले तीस साल से भाजपा, कम्युनिस्ट, पूर्व संसोपाई और कांग्रेस में से कोई एक पार्टी भी अपने स्वतन्त्र बूते पर बहुमत में नहीं आ पाई। लालू के साथ शुरू से ही कांग्रेस रही और भाजपा के साथ कमोबेश जनता दल (यू), परन्तु ये जातिगत समीकरण के प्रादुर्भाव में होता रहा। आने वाले चुनावों में यह पर्दा तार-तार हो सकता है क्योंकि जागरूक बिहारी जाति के तोड़ से प्रभावित हो चुका है। डा. रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे राजनीतिज्ञ की इस परिपेक्ष्य में भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। उनके साथ शरद यादव सरीखे राष्ट्रीय स्तर के नेता किस प्रकार तालमेल बैठायेंगे यह तो आने वाला समय ही बतायेगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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