राहुल गांधी भारत की वर्तमान राजनीति के ऐसे उदीयमान नेता हैं जिनकी दृष्टि भविष्य पर रहती है और जो सियासत में मुहब्बत के तत्व को आत्मसात करना चाहते हैं तथा नफरत की राजनीति का खात्मा करना चाहते हैं। इसके साथ ही उनकी पैनी नजर देश की सामाजिक संरचना पर इस प्रकार रहती है कि वह इसकी बुनावट से गैर बराबरी को दूर करने के लिए सरकारी स्तर पर एेसे कारगर कदम उठाये के हक में हैं जिनसे सामाजिक समानता प्राप्त करने के लक्ष्य पर भारत जल्दी से जल्दी पहुंच सके। आजकल वह अमेरिका की यात्रा पर हैं और अपनी वैज्ञानिक सोच के तर्कों से भारतीय राजनीति के उलझे हुए पेंचों को खोल रहे हैं परन्तु उनके बयानों को लेकर भारत में 'चाय की प्याली में तूफान' उठाने का उपक्रम भी जमकर हो रहा है और उनके विरोधी खेमों की राजनैतिक पार्टियां शोर मचा रही हैं। यह स्पष्ट होना चाहिए कि राहुल गांधी लोकसभा में विपक्ष के नेता के तौर पर अमेरिका में जो भी बयान दे रहे हैं वे विशुद्ध वैचारिक परिपक्वता के नजरिये से ठोस बयान हैं जिनकी समीक्षा भारत में बहुत सतही ढंग से सुविधाजनक ढंग से हो रही है। राहुल गांधी राजनीति में सैद्धान्तिक विचारधारा का पुट भरकर समस्याओं के हल करने के अभियोजक माने जाते हैं। भारत के गांव का कोई व्यक्ति भी इस बात पर यकीन नहीं कर सकता कि वह आरक्षण के विरोध में राय व्यक्त कर सकते हैं। मगर भारत में इसी बात पर हो-हल्ला हो रहा है। राहुल गांधी तो संसद से लेकर सड़क तक यह एेलान कर चुके हैं कि उनके हाथ में सत्ता आने पर आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा संवैधानिक तौर पर हटाने की व्यवस्था की जाएगी तथा दलितों, आदिवासियों व पिछड़ों को उनकी आबादी के अनुरूप आरक्षण दिया जाएगा। इसीलिए वह राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना कराये जाने की मांग भी कर रहे हैं। राहुल गांधी दलितों व पिछड़ों को केवल नौकरियों में आरक्षण के ही पक्षधर नहीं हैं बल्कि पिछड़ी जातियों के लोगों को विधानसभा व लोकसभा में राजनीतिक आरक्षण दिये जाने के हक में भी हैं। दलितों व आदिवासियों को फिलहाल राजनैतिक आरक्षण भी प्राप्त है। इसीलिए वह शासन में इन वर्गों के नगण्य प्रतिनिधित्व की बात बार-बार करते हैं। राहुल गांधी का यह कहना कि भारत में आरक्षण तब तक जारी रहेगा जब तक कि भारतीय समाज में एक समानता नहीं आ जाती, साफ बताता है कि उनकी कांग्रेस पार्टी आरक्षण को आगामी सैकड़ों वर्षों तक तब तक जारी रखने के पक्ष में है जब तक कि समाज से गैर बराबरी पूरी तरह मिट न जाये। मगर उनके इस बयान की समीक्षा बहुत ही फूहड़ ढंग से की गई है और इसे आरक्षण विरोधी बताया जा रहा है जबकि उन्होंने कहा इसके ठीक विपरीत है। किसी भी बयान का विश्लेषण राजनीतिक दल अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार करते हैं जिसकी वजह से भ्रम की स्थिति पैदा की गई है। आरक्षण पर उनके इस बयान को एेतिहासिक करार दिया जाना चाहिए था क्योंकि प्रतिपक्ष के नेता के तौर पर वह देश की आबादी में 72 प्रतिशत स्थान रखने वाले दलितों, आदिवासियों व पिछड़ों को आश्वासन दे रहे थे कि जब तक वे समाज के अन्य संभ्रान्त समझे जाने वाले लोगों के बराबर नहीं आ जाएंगे तब तक आरक्षण जारी रहेगा और इसकी 50 प्रतिशत सीमा समाप्त होगी। चाहे बेशक इसमें सदियां लग जाए। राहुल गांधी जिस भारत की अवधारणा में यकीन रखते हैं मूल रूप से वह कांग्रेस के उन महान नेताओं महात्मा गांधी से लेकर जवाहर लाल नेहरू, सुभाषचन्द्र बोस, सरदार पटेल व मौलाना आजाद की अवधारणा है जिसमें भारतीयता विभिन्न रंगों में उभर कर अपनी आभा बिखेरती है। इसे ही हम विविधता में एकता कहते हैं। भारत की इस विविधता को राहुल गांधी देश की महान ताकत मानते हैं और एक संस्कृति व एक विचार को थोपे जाने का पुरजोर विरोध करते हैं। यही तर्क उन्होंने भारत में अल्पसंख्यकों के दायरे को सीमित किये जाने के विरोध में दिया था जो एक विचार एक संस्कृति की जड़ में बसा रहता है। एेसा मत उन्होंने एक सिख व्यक्ति को केन्द्रित करके दिया मगर भारत में इसका विश्लेषण भी बहुत उथले व चलताऊ तरीके से किया गया जिससे आभास होता है कि उनके विरोधियों के पास वैचारिक अकाल की स्थिति पैदा हो गई है जिसकी वजह से वे कूप मंडूक की मानिन्द कुएं के घेरे के दायरे में ही सोच पा रहे हैं। राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी को उसकी मूल वैचारिक जड़ों से जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं जिसके अनुसार भारत विभिन्न संस्कृतियों का एक खूबसूरत गुलदस्ता है। राहुल गांधी इस विविधता का जश्न मनाने के हक में हैं और खुलकर कहते हैं कि सामाजिक न्याय के बिना इस गुलदस्तें के फूलों की महक बरकरार नहीं रखी जा सकती। भारत के लोकतन्त्र के बारे में उनकी टिप्पणियां किसी भी प्रकार से असंगत या अप्रासंगिक नहीं हैं क्योंकि डर या भय के माहौल में लोकतन्त्र कभी भी फलफूल नहीं सकता। डर व्याप्त रहने का सबसे बड़ा नुक्सान सामान्य नागरिकों को ही होता है और प्रशासन को भी होता है क्योंकि समाज का असली सच डर की वजह से उसके कानों तक कभी पहुंच ही नहीं पाता परन्तु लोकतन्त्र की यह भी खूबी होती है कि इसमें लोगों के पास विकल्पों की कभी कमी नहीं होती। अतः लोग मौका मिलते ही डर को तिलांजिली देकर अपना विकल्प तैयार कर लेते हैं और जब एक बार डर निकल जाता है तो लोकतन्त्र के सिद्धान्त के अनुसार लोग स्वयं अपने हाथ में कमान लेकर ठोस विकल्प को नया आकार दे देते हैं। राजनीति का विज्ञान यही सिखाता है। लोकतन्त्र में डर के बारे में पं. नेहरू का वह एेतिहासिक बयान हर भारतवासी को याद रखना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा था कि जब डर होता है तो सामान्य नागरिक सच को छिपाने लगता है। अतः राहुल गांधी समय की चुनौतियां देखकर ही राजनीति की दिशा बदलने को आतुर दिखाई पड़ते हैं।