अमेरिका में राहुल गांधी

अमेरिका में राहुल गांधी
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आजकल कांग्रेस नेता राहुल गांधी अमेरिका की तीन दिन की यात्रा पर हैं। लोकसभा में विपक्ष के नेता के तौर पर यह उनकी पहली अमेरिका यात्रा है। विदेश में श्री राहुल गांधी भारत के प्रतिनिधि के तौर पर ही देखे जायेंगे। अतः घरेलू राजनीति के बारे में उनके द्वारा कहे गये हर शब्द का भावार्थ भी इसी सन्दर्भ में लिया जायेगा। भारत विश्व का सबसे बड़ा संसदीय लोकतन्त्र है और अमेरिका दुनिया का सबसे पुराना व बड़ा लोकतन्त्र है। अतः दोनों देशों के बीच लोकतन्त्र ऐसी कड़ी है जो इनके आपसी सम्बन्धों में उल्लेखनीय भूमिका निभाता है। इसका मतलब यह हुआ कि लोकतान्त्रिक प्रणाली में सर्वमान्य जनतान्त्रिक मूल्यों की समीक्षा दोनों में से किसी भी देश में की जा सकती है जिसमें राजनीति में मानवीयता सबसे बड़ा मुद्दा माना जाता है क्योंकि लोकतन्त्र इसी की बुनियाद पर टिका होता है। सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि राहुल गांधी कोई नौसिखिया राजनीतिज्ञ नहीं हैं बल्कि वह अब पूरी तरह विचारवान परिपक्व नेता हो चुके हैं जिन्हें विविधता से भरे भारत की परत दर परत क्लिष्ठ राजनीति की पूरी समझ है। यदि एेसा न होता तो वह 21वीं सदी के भारत में जातिगत जनगणना की बात न करते जिसका गहरा सम्बन्ध भारत की जातिनिष्ठ गरीबी व सामाजिक न्याय से है।
यह भी तथ्य है कि जाति केवल भारतीय उपमहाद्वीप की समस्या है। इसी उपमहाद्वीप के देशों में जातिगत आधार पर विभिन्न धर्मों में सामाजिक भेदभाव देखा जाता है। अतः राहुल गांधी का अमेरिका डलास राज्य के टैक्सास विश्वविद्यालय के छात्रों से बातचीत करते हुए यह कहना कि भारत में कौशल वाले लोगों की उपेक्षा होती है, कहीं से भी तथ्यों के विपरीत नहीं है। भारत में पेशेगत कौशल जातिगत व्यवस्था से भी जुड़ा हुआ है मगर भारतीय समाज में इन जातियों को नीची मान कर उनकी उपेक्षा की जाती है। इसके एक नहीं सैकड़ों उदाहरण गिनाये जा सकते हैं। कुछ लोग उनके वक्तव्य को भारत की आलोचना के रूप में ले रहे हैं। ऐसा सोचने वाले लोग भूल जाते हैं कि भारत ने आजादी के बाद अपना विकास अपनी गरीबी मिटाने के लिए अमेरिकी व यूरोपीय मदद से शुरू किया था। अतः भारत में गैर बराबरी की मूल वजहों से न अमेरिका अंजान है और न यूरोपीय देश। मगर औद्योगिक उत्पादन में अभूतपूर्व तरक्की करने वाले देश चीन की प्रशंसा करने में राहुल गांधी को संयम बरतना होगा आैर अपने शब्दों को बहुत नाप-तोल कर बोलना होगा।
चीन कभी भी भारत का आदर्श नहीं हो सकता क्योंकि वह एक लोकतान्त्रिक देश न होकर एकाधिकारवादी (टोटलिटेरियन) कम्युनिस्ट देश है जिसमें मनुष्य को मशीन बनाकर विकास किया जाता है और उसकी व्यक्तिगत सांस्कृति से लेकर धार्मिक व मानवीय स्वतन्त्रता को ताक पर रख दिया जाता है। भारत ने आजादी के बाद से अभी तक जो भी तरक्की की है वह अपनी सांस्कृतिक विविधता व धार्मिक बहुलता व नैतिक मूल्यों की रक्षा करते हुए की है। हमने अपने नागरिकों को राज्य के खिलाफ मौलिक अधिकारों का अस्त्र दिया हुआ है जिससे उन पर सत्ता कभी भी अत्याचारी रुख अख्तियार न कर सके। चीन इन सब मूल्यों का जड़ से विरोध करता है और अपने नागरिकों का प्रयोग मशीन की मानिन्द करता है, यहां तक कि बच्चे पैदा करना भी सरकार की मर्जी पर निर्भर रहता है। अतः ऐसे देश की भौतिक तरक्की को भारत कभी भी आदर्श नहीं मान सकता।
भारत के साथ सबसे बड़ी खूबी रही है कि यहां के शासकों ने कभी भी अपनी विचारधारा को जबरन दूसरे पर थोपने की कोशिश नहीं की। सम्राट अशोक ने भी बौद्ध धर्म का जब प्रचार- प्रसार किया तो अहिंसक माध्यमों से प्रेम व भाइचारे और शान्ति व सह अस्तित्व व सौहार्द को अपना अस्त्र बनाया तथा मानवता की सेवा को अपना ध्येय रखा। अतः राहुल गांधी का यह कहना कि वह राजनीति में मानवता, प्रेम व सौहार्द का समावेश करना चाहते हैं, पूरी तरह गांधीवादी विचार हैं जिसके लिए महात्मा गांधी ने अपने प्राणों की बलि तक दे दी। यह निश्चित रूप से कहा जाता है कि विदेश जाकर राहुल गांधी ने किसी भी प्रकार का भारत विरोध नहीं किया है। बेशक 2014 से पहले भारत की यह परंपरा थी कि भारत से जो भी विपक्षी नेता विदेश जाता था वह भारत सरकार की नीतियों का ही समर्थन करता था और सरकार से जो भी मन्त्री विदेश जाता था वह भारत की घरेलू राजनीति का जिक्र विदेश की धरती पर नहीं करता था परन्तु 2014 से इसमें परिवर्तन आ गया जिसका अनुसरण अब सभी दलों के लोग करने लगे हैं। इसमें किसी तरह की कोई बुराई भी नहीं है क्योंकि लोकतान्त्रिक देशों की राजनीति स्वयं में ही सीमित नहीं होती है बल्कि वह समग्र लोकतान्त्रिक मूल्यों की संवाहक होती है जिसका आत्मालोचना भी एक हिस्सा होती है। इसमें ध्यान देने वाली बात यह होती है कि यह आत्मालोचना कुछ नया करने के लिए हो जिससे लोगों का विकास हो सके और वे आगे की तरफ बढ़ सकें।

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