राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए एकमात्र नामांकन की प्रक्रिया पर सवाल उठाने का हक न तो किसी दूसरी राजनीतिक पार्टी को है और न ही सत्ता पर काबिज सरकार के किसी भी व्यक्ति को क्योकि यह पार्टी के अपने भीतर की प्रजातांत्रिक प्रक्रिया है जिसके लिए बाकायदा चुनाव अधिकारी और पर्यवेक्षक तैनात हैं। उनके चुनाव को वंशवाद के आवरण में देखना भी पूरी तरह गलत है क्योंकि उन्हें कांग्रेस पार्टी के चार करोड़ से अधिक कार्यकर्ता इस पद पर देखना चाहते हैं। लोकतन्त्र में वंशवाद बिना आम जनता या मतदाताओं की सहमति और उनकी तसदीक के नहीं चल सकता अतः जब भी हम वंशवाद का उलाहना कांग्रेस पार्टी को देने की कोशिश करते हैं तो उस जनता को सीधे निशाने पर ले लेते हैं जो इस परंपरा से आये नेताओं को अपना समर्थन देती है और उन्हें जननायक बना देती है। यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि कोई भी राजनीतिक दल वंश के वशीभूत होकर अपनी प्रणाली में किसी व्यक्ति को पद पर तो बिठा सकता है मगर उसे नेता नहीं बना सकता। यह काम सिर्फ भारत की महान जनता ही कर सकती है और वह तभी करती है जब उसे तसल्ली हो जाती है कि बेटे या बेटी में अपने बाप के बराबर की काबलियत है या नहीं।
मोती लाल नेहरू के पुत्र जवाहर लाल नेहरू में इस देश की जनता ने स्वतन्त्रता से पहले यही गुण नहीं देखा था बल्कि यह भी यकीन पा लिया था कि जवाहर लाल अपने पिता से भी बढ़कर काबिल हैं, तभी जाकर वह आजादी से पहले के भारत में युवा हृदय सम्राट और जननेता बने थे। इसी प्रकार इन्दिरा गांधी को भी भारत के लोगों ने हर कसौटी पर कसा और जब देख लिया कि वह अपने पिता के नक्शे कदम पर चलते हुए भारत को बुलन्दियों तक पहुंचा सकती हैं तो उन्होंने इंदिरा जी को प्रियदर्शनी बना दिया। राजीव गांधी पर भी लोगों ने भरोसा किया था परन्तु जनापेक्षाओं पर पूरा नहीं उतर पाये मगर उन्होंने अपने शासनकाल में भारत को 21वीं सदी की दहलीज पर ले जाने में कोई कसर भी नहीं छोड़ी और कम्प्यूटर क्रान्ति करके इस देश की युवा पीढ़ी को पूरी दुनिया में अपने ज्ञान का आलोक फैलाने का अवसर प्रदान किया। इतना ही नहीं दूरसंचार क्रान्ति की नींव भी उन्होंने ही डाली और ‘सी-डाट’ संचार प्रणाली के जरिये सीधे ग्रामीण भारत को जोड़ डाला था। दरअसल नेहरू–इंदिरा–राजीव की वंश बेल को हम भारत की जनता के आशीर्वाद से ही फली–फूली पायेंगे। अतः हम इसे रूढि़वादी दायरे में वंशवाद नहीं कहेंगे बल्कि ‘विरासत’ कहेंगे।
विरासत और वंश में मूलभूत अन्तर वह होता है जो ‘जन्म’ और ‘कर्म’ में होता है। लोकतन्त्र में व्यक्ति किसी वंश में जन्म लेने से ही उसकी विरासत का हकदार तभी बन सकता है जबकि आम जनता उसे इस योग्य समझे। श्री राहुल गांधी अपने परिवार की इसी विरासत के हकदार अब जाकर बनने की प्रक्रिया में पहुंचे हैं क्योंकि वह इस देश की जनता के मन की बातें खुलकर बेधड़क होकर कह रहे हैं। वास्तव में कोई भी राजनीतिज्ञ तभी ‘नेता’ बन सकता है जब जनता उसके बताये मार्ग पर चलना शुरू कर देती है और जनता तभी उसके बताये मार्ग पर चलने का फैसला करती है जब उसे अपने दिल की आवाज नेता के मुंह से सुनाई पड़ती है। किसी भी देश में जननायकों का उदय केवल इसी रास्ते से होता है। भारत इसका सबूत है कि यह समयानुसार अपने जननायक बदलता रहा है। 1974 में केन्द्र में इंदिरा जी जैसी शक्तिशाली प्रधानमन्त्री के रहते जयप्रकाश नारायण का उदय हुआ, मगर यह खुमार 1980 में ही उतर गया और इंदिरा जी पुनः भारत के लोगों की आवाज बन गईं। कांग्रेस पार्टी को 2014 के लोकसभा चुनावों में भारी हार का मुंह देखना पड़ा। श्री नरेन्द्र मोदी राजनीति में नये नायक के रूप में उभरे। उन्होंने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देकर इसे साकार करने का ख्वाब देखा। इसमें कहीं कुछ भी गलत नहीं था।
लोकतन्त्र में हर राजनीतिक दल अपना वर्चस्व सब तरफ देखना चाहता है, मगर इसके विरोध में निशाने पर आये राजनीतिक दल में भी एेसे राजनीतिज्ञ होते हैं जो अपने विरोधियों के ख्वाब को किसी भी तरह पूरा नहीं होने देना चाहते। इसी कशमकश को तो लोकतन्त्र कहा जाता है और राहुल गांधी इसी कशमकश से उपजे नेता हैं। कांग्रेसियों को यकीन है कि वह गुजरात विधानसभा चुनावों के जरिये पूरे देश में कांग्रेस को पुनः खड़ा करने में कामयाबी हासिल करेंगे तो इसमें कौन सी गलत बात है और क्या बुराई है? एेसा राहुल गांधी तभी कर सकते हैं जब इस देश की जनता का उन्हें समर्थन मिलेगा। अतः अपनी पारिवारिक विरासत को सिद्ध करने का उन्हें अधिकार है और आम कांग्रेसी भी यही सोचते हैं कि राहुल गांधी में एेसी क्षमता है। भारत की वास्तविकता तो यही है कि नेहरू और इंदिरा गांधी के नाम से इस देश के हर प्रान्त का हर आदमी बखूबी वाकिफ है। यही वजह थी कि सोनिया गांधी ने राजीव गांधी की मृत्यु के बाद कांग्रेस की नैया को तब पार लगा दिया था जब भाजपा के नेताओं ने उन पर विदेशी मूल का होने तक की फब्ती कसी थी, मगर उन्होंने इसका जवाब ‘भारत की बहू’ होने का देकर आम भारतीयों का मन जीता था और अपनी बिखरती कांग्रेस पार्टी को पुनः बांध दिया था। यह विरासत का ही असर था, वंश का नहीं। अतः राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने पर तंज कसना राजनीतिक रूप से निहत्था बताना है।