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राहुल की ताजपोशी का सवाल ?

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भारत के लोकतन्त्र की कहानी कांग्रेस पार्टी के बिना अधूरी इसलिए मानी जायेगी क्योकि इसी पार्टी ने अंग्रेजी शासनकाल में भारत की दासता की बेड़ियों को तोड़ने में अहम भूमिका निभाई और आजादी के बाद लुटे-पिटे भारत की विकास गाथा की कहानी लिखी। स्वतन्त्रता से पूर्व जहां यह पार्टी विभिन्न विचारों का महासमुद्र थी वहीं स्वतन्त्रता के बाद इसने पं. जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में भारत के आधुनिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले देश के रूप में नींव रखी। आर्थिक विकास की जो अवधारणा पं. नेहरू ने पंचवर्षीय योजना के माध्यम से बनाई वह मूलतः नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का विचार था जो उन्होंने 1937 के कांग्रेस अधिवेशन में बतौर इसके अध्यक्ष पेश किया था।

नेताजी ने तब च्राष्ट्रीय योजना समितिज् की वकालत करते हुए कहा था कि भारत के आम आदमी के आर्थिक विकास के लिए नियन्त्रित अर्थव्यवस्था के भीतर सार्वजनिक निवेश के माध्यम से आधारभूत से लेकर औद्योगिक विकास का ढांचा खड़ा किया जाना चाहिए और इस प्रकार किया जाना चाहिए जिससे कृषि क्षेत्र पर निर्भरता कम करते हुए हम औद्योगिक ढांचे में आम आदमी की शिरकत बढ़ाते हुए उसकी आमदनी में इजाफा कर सकें। पं. नेहरू ने यही मन्त्र पकड़ कर भारत के विकास को गति दी और सम्यक रूप से व्यापारिक गतिविधियों से लेकर औद्योगीकरण तक के क्षेत्र में सरकारों की भूमिका नियत की। इसी क्रम को उनके बाद स्व. इंदिरा गांधी ने आगे बढ़ाया और वक्त की मांग को देखते हुए इसमें आक्रमणकारी रुख तक अपनाया। इन्हीं नीतियों के तहत भारत की बढ़ती जनसंख्या के सापेक्ष हमने तीव्र गति से इस तरह तरक्की की कि हमारी दो-तिहाई जनसंख्या निम्न मध्यम व मध्यम वर्ग में आ गई।

बेशक हमारी विकास वृद्धि दर साढे़ तीन प्रतिशत से ऊपर नहीं रही मगर अमीर और गरीब के बीच की खाई को लगातार कम करने में हम समर्थ रहे। इसी आर्थिक दृष्टि को ‘नेहरूवाद’ का नाम दिया गया जिसकी पलट 1991 में बाजारवाद के रूप में स्व. पी.वी. नरसिम्हा राव ने शुरू की और भारत के बन्द बाजारों को दुनिया की बड़ी कम्पनियों के लिए खोलने के साथ ही विकास के समग्र ढांचे के विभिन्न अंगों में निजी क्षेत्र की जिम्मेदारी तय करनी शुरू कर दी। वास्तव में यह 1951 में स्थापित भारतीय जनसंघज् का घोषणापत्र था जिसमें डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बाजारोन्मूलक अर्थव्यवस्था को भारत के लिए अपेक्षाकृत लाभदायक माना था। अतः यह स्पष्ट होना चाहिए कि 1991 के बाद से जितनी भी सरकारें इस देश में आयी हैं वे सभी भारतीय जनसंघ के आर्थिक एजेंडे का ही अनुसरण कर रही हैं।

इनमें लगातार दस साल तक चली डा. मनमोहन सिंह की कांग्रेस नीत यूपीए सरकार भी शामिल है मगर सबसे बड़ा परिवतन 2014 में यह हुआ कि प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने सत्ता संभालने के बाद योजना आयोग को भंग कर दिया और इसके स्थान पर नीति आयोग का गठन किया जिसका कार्य सरकार को सलाह देना है। यह पूरा वृतान्त लिखने का उद्देश्य यही है कि वर्तमान में कांग्रेस पार्टी की भूमिका केवल एक विपक्षी दल की होने के साथ ही ऐसी पार्टी की होनी जरूरी है जिसके पास वैकल्पिक रूप से कारगर नीतियां हों और जिसका नेतृत्व आम लोगों की नजरों में दूर की सोच रखने वाला भी हो।

क्या ये सभी गुण श्री राहुल गांधी में मौजूद हैं ? कुछ विद्वानों का तर्क है कि जब गुजरात तक सीमित रहने वाले नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमन्त्री बन सकते हैं और 2014 में लोगों का दिल लुभा सकते हैं तो राहुल गांधी क्यों नहीं इस पद पर पहुंच सकते जबकि उनके पीछे एक बहुत मजबूत और कद्दावर विरासत है मगर असली सवाल यह है कि क्या उनमें कांग्रेस पार्टी को वर्तमान हालत में दिशा देने की योग्यता है ? कांग्रेस पार्टी के भीतर अब इस बात को लेकर मतैक्य स्थापित होता जा रहा है कि श्री राहुल गांधी को पूरी पार्टी की जिम्मेदारी एकमुश्त रूप से दे दी जानी चाहिए तभी लोगों में उनके नेतृत्व के प्रति आस्था पैदा होगी और उन्हें अपनी योग्यता दिखाने का अवसर भी मिलेगा परन्तु यह इतना आसान नहीं है क्योंकि उनके पिता स्व. राजीव गांधी का उदाहरण हमारे सामने है जिनके राजनीतिक अधकचरेपन की वजह से कांग्रेस पार्टी आज इस मुकाम पर पहुंच गई है लेकिन राजीव जी को इसके लिए दोषी मानना भी उचित नहीं है क्योंकि उनकी इच्छा राजनीति में आने की थी भी नहीं। वह अपनी माता श्रीमती इन्दिरा गांधी के निर्देश पर ही सियासत में शामिल हुए थे और समय के संकट ने उन पर प्रधानमन्त्री पद का भार डाल दिया था।

अब राहुल गांधी के बारे में समीकरण पूरी तरह दूसरे हैं और उन्हें केवल इतना सिद्ध करना होगा कि वह पूर्णकालिक राजनीतिज्ञ हैं तथा बीच-बीच में विश्राम के लिए विदेश यात्रा की दरकार उन्हें नहीं रहेगी। उनके लिए राजनीति अब कोई कच्ची उम्र नहीं रही है। सवाल केवल वैचारिक परिपक्वता का है जिसका सबूत उन्हें आम जनता को ही देना होगा और यह सोचकर देना होगा कि भारत का आम आदमी राजनीति को बहुत गहरे से समझता है। लोकतन्त्र को मजबूत बनाने में विपक्षी पार्टी के रूप में रचनात्मक भूमिका केवल आलोचना नहीं होती है बल्कि वैकल्पिक समाधान भी होता है। आज की लुटी-पिटी कांग्रेस का नेतृत्व संभालना कांटों के ताज से कमतर नहीं है क्योंकि इसका स्थान राष्ट्रीय स्तर पर आज उस भाजपा ने ले लिया है जिसे कभी उत्तर भारत की पार्टी माना जाता था परन्तु यह भी हकीकत है कि आज भी कांग्रेस के अवशेष भारत के हर राज्य में बिखरे पड़े हैं। इन्हीं खंडहरी अवशेषों पर इमारत खड़ी करने का काम कोई बिरला ही कर सकता है।

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