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कांग्रेस में राहुल का विकल्प?

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भारत के लोकतन्त्र की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि इसके स्वतन्त्र होने के बाद से ही इसमें वैचारिक स्तर पर लगातार युद्ध होता रहा है। यहां तक कि जब 1952 में पहला चुनाव हुआ था तो सौ से भी अधिक राजनीतिक दल अस्तित्व में आ गए थे। यहां तक कि कांग्रेस पार्टी से भी अलग होकर कई राजनी​तिक दलों का गठन हो गया था जिनमें डा. राम मनोहर लोहिया और आचार्य नरेन्द्र देव की समाजवादी पार्टी प्रमुख थी। भारत के इस वैचारिक युद्ध में पं. जवाहर लाल नेहरू जैसा विशाल व्यक्तित्व केन्द्र में था मगर नेहरू का प्रण था कि हर हालत में लोकतन्त्र की विजय होनी चाहिए आैर स्वतन्त्र भारत के आम लोगों को मिले एक वोट की कीमत का पता लगना चाहिए। अतः उन्होंने वैचारिक युद्ध को भारतीय संसदीय व्यवस्था की जड़ों में रचा-बसा दिया और अपनी आलोचना करने वालों को भी पूरा सम्मान दिया। अतः इसी परंपरा को निभाते हुए भारत में बहुदलीय प्रणाली की सफलता सुनिश्चित हई आैर 1967 के बाद से विभिन्न राजनीतिक दलों की सरकारों की विभिन्न राज्याें में बनने की शुरूआत भी हुई लेकिन इसके बाद भारी राजनीतिक उथल-पुथल का दौर भी शुरू हुआ जिसमें राजनीितक विचारों का युद्ध लगातार क्षीण होता गया और उसकी जगह क्षेत्रवाद से लेकर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण व जातिगत ध्रुवीकरण लेते चले गए। इससे भारतीय लोकतन्त्र एक नए ‘कबायली’ स्वरूप में भी उभरा। लोकतंत्र के इस स्वरूप में आम आदमी के सरोकार लगातार हा​िशये पर जाते गए और उनकी जगह राजनीतिज्ञों व समाज के सम्पन्न वर्ग के लोगों ने ले ली। निश्चित रूप से इसमें खुली या बाजार मूलक अर्थव्यवस्था की महत्वपूर्ण भूमिका रही।

इस व्यवस्था ने भारत के राजनीतिक दलों के चरित्र को भी बदलने में अहम रोल अदा किया। इस नए बदलाव ने राजनीति को इस तरह प्रभावित किया कि यह व्यापार का पर्याय बन गई। अतः इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि कौन सी पार्टी सत्ता में है और उसने चुनावों में आम जनता से क्या वादे किए हैं क्योंकि सत्ता की डोर अन्ततः आर्थिक सम्पन्नता के उन स्रोतों से जुड़ चुकी है जो राजनीतिक दलों का वित्तीय पोषण करके बदले में अपने लिए अनुकूल वातावरण चाहते हैं। इसमें अब विदेशी कम्पनियां ही नहीं बल्कि कुछ विदेशी सरकारें तक शामिल हो चुकी हैं। भारत में जो राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर बवाल मचता रहता है वह सिर्फ लोगों की पहचान अमीर-गरीब से हटा कर दूसरे संकीर्ण दायरों में बांधने का सरल उपाय है क्यों​िक इस प्रकार की राजनीति में आम जनता के असली मुद्दों को कुएं में फैंक कर विशिष्ट वर्ग के हितों को साधा जा सकता है परन्तु ऐसे राजनीतिक स्वरूप का दोष किसी एक पार्टी पर नहीं मढ़ा जा सकता है, इसके लिए कांग्रेस व भाजपा दोनों ही दोषी हैं। भाजपा का आर्थिक दर्शन इसके जनसंघ के जन्मकाल से ही बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का रहा है जबकि कांग्रेस ने बीच रास्ते में इसे बदहवासी में 1991 में पकड़ा। यह भारत को ‘इंडिया’ मानने का सपना था जबकि कांग्रेस पार्टी का मूल दर्शन ‘भारत’ के सपने पर ही टिका हुआ है।

यही आज का सबसे बड़ा वह राजनीतिक द्वंद्व है जिस पर कांग्रेस का पुनरुत्थान निर्भर करता है। बेशक अब कोई भी सरकार बाजार मूलक अर्थव्यवस्था से पीछे नहीं हट सकती है मगर एेसा रास्ता जरूर निकाल सकती है जिससे भारत का गरीब आदमी उसके केन्द्र में रहे और विकास के सभी उपकरण व अवयव उसके उत्थान मूलक बन सकें। इसका सम्बन्ध सीधे तौर पर रोजगार से जुड़ा हुआ है मगर त्रासदी यह रही कि खुली अर्थव्यवस्था के नाम पर सार्वजनिक कम्पनियों की कौडि़यों के दाम बिक्री को सरकारों ने लक्ष्य बनाकर विकास का वह पैमाना खड़ा किया जिसमें राजनीतिज्ञों व पूंजीपतियों के वे हित सध सकें जिनसे राजनीतिक सत्ता पर उनका वर्चस्व कायम रहे। अटल बिहारी सरकार में तो पूरा एक ​विनिवेश मन्त्रालय ही गठित कर दिया गया था। इस दौरान सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी भारत अल्यूमीनियम को उसके ‘बिजलीघर’ की कीमत पर ही एक निजी उद्योगपति को नीलाम कर दिया गया था। बाद में मनमोहन सरकार के दौरान कोयला खदानों व 2-जी स्पैक्ट्रम नीलामी की कहानी भी हमें याद है। अतः कांग्रेस पार्टी के भीतर जो अब श्री राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाने की बात चल रही है वह इस मामले में महत्वपूर्ण है कि क्या माननीय राहुल गांधी फिर से अपनी पार्टी को जड़ों से जोड़ कर उस मूल दर्शन की तरफ लौटने की योग्यता रखते हैं जिसमें भारत का आम आदमी केन्द्र में हो? यह केवल राजनीतिक शगूफेबाजी है कि पार्टी वंशवाद को आगे बढ़ाना चाहती है। राहुल गांधी को यदि कांग्रेस पार्टी इस पद के योग्य मानती है तो यह उसका विशेषाधिकार है।

यह कांग्रेस को ही सोचना है कि उसका भविष्य किस नेता के नेतृत्व मे सुरक्षित रह सकता है और आगे बढ़ सकता है परन्तु यह तो मानना ही होगा कि उनकी रगों में उस परिवार के पुरोधाओं का खून बहता है जिन्होंने इस देश पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने में कीर्तिमान स्थापित किए। हम सैद्धांतिक रूप से नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी व राजीव गांधी की आलोचना खुलकर कर सकते हैं परन्तु व्यक्तिगत रूप से बिल्कुल नहीं क्योंकि राहुल गांधी भी आम जनता के वोट से ही जीत कर उसी प्रकार लोकसभा में आते हैं जिस प्रकार भाजपा के नेता। अतः उनकी व्यक्तिगत आलोचना उस जनता की आलोचना है जिसने उन्हें अपना प्रतिनिधि बनाकर संसद में भेजा है। राजनीति में इस भेद को समझने की बहुत जरूरत है क्योंकि लोकतन्त्र ‘व्यक्तियों’ का मोहताज कभी नहीं हो सकता बल्कि व्यक्ति ‘लोकतन्त्र’ के मोहताज होते हैं क्यों​िक उसी के रास्ते से उन्हें राजनीतिक शिखर तक जाने का अवसर मिलता है। वर्तमान परिस्थितियों में कांग्रेस के भीतर राहुल गांधी का कोई दूसरा विकल्प संभव भी नहीं लगता क्योंकि उनके साथ जो पारिवारिक विरासत है उसकी धाक भारत के हर राज्य में संगठन या व्यक्तित्वों की मार्फत मौजूद है। किसी भी राजनीतिक दल के अस्तित्व के लिए एेसी पहचान किसी राजनीतिक सम्पत्ति से कम करके नहीं देखी जा सकती। अतः उनकी व्यक्तिगत आलोचना के राजनीतिक आयाम को समझा जा सकता है। जब 1966 में श्रीमती इंदिरा गांधी को स्व. कामराज ने प्रधानमंत्री बनाया था तो भी केवल यही तथ्य उनके दिमाग में था कि वह नेहरू की बेटी हैं, हालांकि तब उन्हें डा. लोहिया ने ‘गूंगी गुडि़या’ नाम दिया था मगर इसी गूंगी गुडि़या ने बाद में अपने राजनीतिक अवतार में आने के बाद किस तरह विपक्ष के दिग्गज नेताओं को छठी का दूध याद दिलाया था, इससे कौन नावाकिफ हो सकता है। राहुल गांधी पर सबसे बड़ी जिम्मेदारी यही होगी कि वह अपनी पार्टी को जमीन से जोड़ें और ‘प्रापर्टी डीलरों’ के जमघट ने जिस तरह कांग्रेस को जकड़ा हुआ था, उससे उसे छुटकारा दिलाएं।

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