गृहमंत्री श्री राजनाथ सिंह आजकल जम्मू.-कश्मीर की चार दिवसीय यात्रा पर हैं जहां वह देश के इस सबसे पुराने मसले को सुलझाने के लिए प्रयास करेंगे। हांलाकि वह पहले भी कश्मीर की यात्रा पर इसी मंशा से जा चुके हैं मगर कामयाबी दूर की बात ही रही। सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि कश्मीर समस्या के दो आयाम हैं। एक तो घरेलू और दूसरा बाहरी। दुख की बात यह है कि घरेलू समस्या ज्यादा विकराल स्वरूप ले चुकी है जबकि पाकिस्तान के साथ बाहरी झगड़ा बदस्तूर वहीं है जहां 26 अक्टूबर 1947 को इस रियासत के भारतीय संघ मे विलय होने के समय था। अर्थात पाक अधिकृत कश्मीर इस्लामाबाद सरकार की गुलामी में है। यह भी अंतर्राष्ट्रीय समस्या नहीं है बल्कि भारत व पाक के बीच का विवाद है जिसे केवल बातचीत द्वारा सुलझाने के लिए ही पाकिस्तान ने 1972 में हुए शिमला समझौते मे लिख कर दिया था। अत: कश्मीर की वर्तमान घरेलू समस्या भारत का आन्तरिक मामला है जिससे किसी दूसरे देश का कोई लेना-देना नहीं है।
इस राज्य की जनता की नजर से भी इस समस्या का हल देखा जाना बहुत जरूरी है क्योंकि भारतीय संविधान मे इस सूबे का विशेष दर्जा है। इस सन्दर्भ मे सबसे पहले यह साफ होना चाहिए कि कश्मीर की जनता पाकिस्तान की सख्त विरोधी रही है और राज्य में हिन्दू- मुस्लिम एकता की जबर्दस्त पैरोकार रही है। यह भी विचार किये जाने की जरूरत है कि केवल जम्मू-कश्मीर राज्य के लिए ही प्रथक संविधान की व्यवस्था 15 अगस्त 1947 को देश में प. नेहरू राष्ट्रीय सरकार ने क्यों दी जिसमें जनसंघ (अब भारतीय जनता पार्टी) के संस्थापक विचारक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी बतौर उद्योगमंत्री शामिल थे। जाहिर तौर पर जम्मू-कश्मीर के नागरिको को हमने कश्मीरी भारतीय माना और उन्हें स्वतंत्रता प्रदान की कि वे भारत की संसद द्वारा बनाये गये किसी भी कानून की अपनी विधानसभा में तसदीक करके उसे अपने ऊपर लागू करें। इसमें अंध राष्ट्रवाद की जरा भी गुंजाइश नहीं है क्योंकि यह भारत की संप्रभु सरकार का कश्मीरियों से किया गया पवित्र वादा है जिसे बाकायदा कलमबन्द किया गया।
इसकी तसदीक जम्मू-कश्मीर के संविधान मे भी की गई और इसके शुरू में ही कहा गया कि सूबा भारतीय संघ का हिस्सा रहेगा और इसके संविधान के तहत दिये गये अधिकारों के जेरेसाया अपना निजाम चलायेगा। इसमें गफलत है कहां जो समस्या इस हद तक विकराल हो गई कि कश्मीरी लोग भारत की फौज और सुरक्षा बलों के खिलाफ ही हो गये? इस तथ्य पर गंभीरता के साथ खुले दिमाग से सोचने की जरूरत है और बिना किसी रूढ़ीवादी मानसिकता का गुलाम हुए कश्मीर में लोकतांत्रिक शक्तियों को मजबूत करके समस्या का रचनात्मक हल ढूंढने की जरूरत है। यह केवल तभी संभव है जबकि कश्मीर के हर हिस्सेदार को हल ढूंढने में शामिल किया जाये और पाकिस्तान की तरफ से प्रायोजित समस्या को बढ़ाने के लिए शुरू किये गये आतंकवादी संगठनों को हांशिये पर डाल कर लोकतन्त्र के दायरे में वार्ता तंत्र को मजबूत किया जाये। ऐसा नहीं है कि भारत में कश्मीर में ही अलगाववाद की समस्या रही है।
उत्तर पूर्व के कुछ राज्यों में भी यह समस्या रही है। हमने इनका हल ढूंढा है और केवल बातचीत के जरिये ही ढूंढा है। पाकिस्तान से निपटने के लिए हमारी फौजें पूरी तरह काबिल हैं और इस हद तक काबिल हैं कि उसे पुन: उसकी मांद में निपटाने की ताकत रखती है। मगर अपने ही राज्य में हम किस तरह अपनी ही फौजों को अपने नागरिकों के खिलाफ इस्तेमाल होते देख सकते हैं। फौज से किसी भी सूरत मे लम्बे समय तक नागरिक प्रशासन व्यवस्था कायम रखने का काम लोकतंत्र में नहीं लिया जा सकता क्योंकि इसके परिणाम उलटे ही निकलते हैं। फौज को आतंकवादियों के खात्मे के लिए ही प्रयोग किया जा सकता है और इस तरह किया जा सकता है कि किसी भी आतंकवादी को नागरिकों का संरक्षण या प्रश्रय न मिलने पाये। वास्तव में कश्मीर की घरेलू समस्या का कुछ लोग इस्लामीकरण करना चाहते हैं जिसे दिमागी दिवालियेपन का सबूत ही माना जा सकता है क्योकि कश्मीर की समस्या को इसी रूप में तो पाकिस्तान दिखाना चाहता है।
वह अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर यही तजवीज तो पेश करता है कि कश्मीर सांस्कृतिक रूप से उसकी इस्लामी तहदीब का हिस्सा है, जो कि जड़ से गलत है क्योंकि कश्मीरी संस्कृति हिन्दू-मुस्लिम इत्तेहाद की गंगा-जमुनी संस्कृति से ऊपर से लेकर नीचे तक ओतप्रोत है। यहां इस्लाम का सर्वाधिक उदार स्वरूप ही मान्य रहा है। अत: जो लोग धर्म के चश्मे से कश्मीर की समस्या को देखने की कोशिश करते हैं वे पाकिस्तान के नजरिये की ही वकालत करते हैं। यह तो वह सूबा है जिसकी जनता ने 1947 में भारत के टुकड़े करके पाकिस्तान बनाने की सबसे जबर्दस्त मुखालफत की थी।
परन्तु 90 के दशक में यहां जो खेल खेला गया वह संगीन साजिश के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन दिक्कत यह है कि उन वाकयों का जिक्र करने से भी हम घबराते हैं और उन लोगों पर अंगुली उठाने से परहेज करते हैं जो उस समय इस सूबे की हुक्मरान बने हुए थे। श्री राजनाथ सिंह मोदी सरकार का एसा उदार सिद्धान्तवादी चेहरा हैं जिन्हें आम नागरिक भारतीय जनता पार्टी का जनसंवेदनाओं से प्रेरित प्रतिनिधी मानता है। उनकी यह खूबी रही है कि गृहमंत्री बनने के बाद से ही वह कश्मीर समस्या का अध्ययन हर दृष्टि से करते रहे हैं। उनसे देशवासी उम्मीद लगा रहे हैं कि कुछ न कुछ तो एसा जरूर होना चाहिए जिसेस धरती के स्वर्ग कहलाये जाने वाले कश्मीर में फिर से सुकून की हवा बहे।