जब से भगवान श्रीरामचंद्र जी का मंदिर श्री अयोध्या जी में बनकर तैयार हो गया, हमारे सांस्कृतिक और राष्ट्रीय गौरव की पुन: प्रतिष्ठा हो गई, उसी समय से यह प्रश्न हर राम भक्त के सामने है कि राम जी का मंदिर बना लेना ही पर्याप्त है या राममय जीवन, राममय राष्ट्र, राममय सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना भी क्यों न हो। उसके लिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने राम राज्य का जो वर्णन किया वैसा राम राज्य हमारे देश में और इसके साथ ही विश्व भर में स्थापित होना ही चाहिए, पर याद यह भी रखना होगा कि मदिरालय, वेश्यालय, बूचड़खाने और जुए के अड्डे जब तक देश में रहेंगे राम राज्य कैसे आएगा। यह तो कलियुग के निवास स्थान हैं। याद रखना होगा मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम सत्य, न्याय एवं सद्चरित्र के प्रतीक हैं। युगों-युगों से भारतवासी इस दिवस को गौरव से मनाते आ रहे हैं। कोई किसी भी धर्म, संप्रदाय में आस्था रखने वाला हो, पर श्रीराम जी को जीवन में आदर्श के रूप में स्वीकार करता है। वे आदर्श राजा हैं, आदर्श पुत्र, आदर्श भाई एवं आदर्श पति भी हैं।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में भगवान श्रीराम के इस धरती पर मानव अवतार में प्रकट होने के संबंध में भी लिखा है- जब जब होहि धर्म की हानि, बाढ़हिं असुर महा अभिमानी, तब-तब धरि प्रभु मनुज शरीरा, हरहिं सकल सज्जन भव पीरा।
इसके साथ ही भगवान राम के इस संसार में अवतरण का उद्देश्य और कारण बताते हुए भी तुलसीदास जी ने कहा है- विप्र धेनु सुर संत हित लीन मनुज अवतार। आज जब हर नगर, प्रदेश और देश से प्रतिदिन महिलाओं के अपमान और उनके साथ बलात्कार की घटनाएं सुनने, देखने को मिलती हैं ऐसे समय में भगवान श्रीराम के वे शब्द जो बाली को तीर मारने के बाद बाली के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहे थे, समाज के लिए ज्योतिपुंज और मार्गदर्शक है।
भगवान रामजी का सारा ही जीवन अधर्म और अत्याचार से संघर्ष करते हुए जन-जन के लिए कल्याणकारी, श्रेष्ठ राज्य की स्थापना करने में लगा। जिस समय रामचंद्र जी का राज्याभिषेक करने की तैयारियां हो रही थीं उसी समय उन्हें यह पता चल गया कि उनके पिता ने तो उन्हें 14 वर्ष का वनवास दिया है। मां कौशल्या से भी उन्होंने यही कहा- पिता दीन मोहि कानन राज्य। पिता की आज्ञा का पालन कर श्रीरामचंद्र जी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण सहित जंगल के लिए चल पड़े। उनका तो जन्म ही अत्याचारियों और राक्षसों को समाप्त करने के लिए हुआ था। वे राजा बनकर अयोध्या में कैसे रुक जाते। यह निश्चित ही उनकी अपनी लीला थी। वनवास काल में जब उन्होंने रावण और अन्य राक्षसों द्वारा मारे गए निर्दोष ऋषि-मुनियों और नागरिकों की अस्थियों के बड़े-बड़े ढेर देेखे तो एक आदर्श महामानव और शासक की तरह यह संकल्प लिया- निश्चिर हीन करहूं मही, भुज उठाई प्रण कीन, सकल मुनिन्ह के आश्रमहीं जाई जाई सुख दीन।
जो संकल्प भगवान राम ने लिया उसे एक आदर्श प्रजापालक राजा की तरह अधर्म के प्रतीक राक्षसों के साम्राज्य का नाश करके पूरा किया। जिस रावण के लिए यह कहा जाता था कि काल भी उसके घर में बंधक है और सभी देवता अर्थात प्राकृतिक शक्तियां उसके अधीन हैं उसी रावण को इस तरह वंश सहित नष्ट कर दिया जिससे उसके परिवार में कोई पितरों के नाम पर दीपक जलाने वाला भी न बचा। कवि ने लिखा है-
इक लाख पूत, सवा लाख नाती, ता रावण कर दीया न बाती।
रावण की मृत्यु रामजी के हाथों किसी निजी स्वार्थ अथवा लंका पर विजय प्राप्त कर अपने राज्य का प्रसार करने के लिए नहीं थी, अपितु अधर्म को मिटाकर सुशासन की स्थापना था। रावण के भाई विभीषण को लंका का राज्य सौंपकर स्वयं 14 वर्ष के वनवास की अवधि पूरी होने के साथ ही वे अयोध्या वापस पहुंचने के लिए वचनबद्ध थे। रामजी का स्वदेश प्रेम जो उस समय महाकवि वाल्मीकि जी ने भी संसार को सुनाया वह आज भी सभी देशवासियों के लिए प्रेरणापुंज है।
राम राज बैठे त्रैलोका, हर्षित भय गए सब शोका।
दैहिक, दैविक, भौतिक तापा, राम राज्य काहूहिं नहीं व्यापा,
सब नर करहिं परस्पर प्रीति,
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति। सब निर्दंभ धर्मरत पुनी। नर अरु नारि चतुर सब गुनी।
समय चक्र से भारत परतंत्र हो गया, सदियों तक हम गुलाम रहे। देश में पुरुष और महिला दोनों ही शिक्षा दीक्षा के क्षेत्र में पीछे रह गए। स्वतंत्रता के बाद भी बहुत से लोग महिलाओं के साथ भेदभाव रखते हुए उन्हें शिक्षा से वंचित रखना ही अपनी शान समझते थे उस समय भगवान राम का यह उदाहरण कि रामराज्य में महिलाएं और पुरुष सभी शिक्षित, चतुर और गुणी थे, हमें आगे का रास्ता दिखाने वाला आदर्श वाक्य मिला।
आज यह भी सोचना है कि जिस धर्म की स्थापना हेतु भगवान श्रीराम इस संसार में आए थे और जिस अधर्म के कारण रावण वंश सहित नष्ट हुआ था आज हम सब भारतीय और दुनिया भर में बसे भारतवंशी विशेषकर रामजी को अपना आदर्श मानने वाले समाज का यह कर्तव्य है कि हम उसी रास्ते पर चलें जो धर्म, सत्य और सदाचार का रास्ता भगवान श्रीरामचंद्र जी ने दिखाया था, क्योंकि वे तो इस संसार में प्रकट ही साधुओं अर्थात सज्जनों की रक्षा के लिए, दुष्टों के नाश के लिए और धर्म की स्थापना और उन्नति के लिए ही हुए थे। तुलसीदास जी ने यह लिखा है : विप्र धेनु सुर संत हित, लीन मनुज अवतार
आज भी हर माता राम जैसा पुत्र, प्रजा राम जैसा राजा, बेटियां रामजी जैसा पति और भाई भरत और लक्ष्मण भी राम जैसे अग्रज की ही आशा करते हैं। आइए हम संकल्प लें कि श्रीरामजन्म का पर्व इस संकल्प के साथ ही मनाएं कि जो सन्मार्ग, मर्यादा पूर्ण जीवन का मार्ग भगवान श्रीरामचंद्र जी ने इस संसार को दिखाया था हम उसी रास्ते पर चलें। मर्यादा पुरुषोत्तम न भी बन पाए तो भी मर्यादा मानव तो बनें। याद रखना होगा कि मर्यादा के किनारों में ही गंगा गंगा रहती है अन्यथा बाढ़ और कीचड़ बन जाती है। हमें भारतीयों को यह गौरव प्राप्त हुआ है कि भगवान श्रीराम ने भारत में ही अवतार लिया और उनके कारण ही भारत देश विश्व में एक ऐसा आदर्श प्रस्तुत कर रहा है जो भावी असंख्य पीढ़ियों के लिए भी प्रेरणास्रोत और श्रद्धापुंज बना रहेगा।
सुनो और लेकर आओ राम राज्य जिसके लिए तुलसीदास जी ने कहा है -सब नर करहिं परस्पर प्रीति
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति
सब निददम्भ धर्मरत पुनी
नर अरु नारी चतुर सब गुनी
इसके साथ ही यह भी कहा
ससि संपन्न सदा रह धर्मी
त्रेता भई कृत युग कै करनी।।
कब लाएंगे हम ऐसा रामजी का राज्य?