रामनाथ कोविन्द और भारत - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

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रामनाथ कोविन्द और भारत

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श्री रामनाथ कोविन्द देश के नए राष्ट्रपति चुन लिए गए हैं। वह एक दलित के बेटे हैं जो सर्वोच्च संवैधानिक पद पर पहुंचे हैं मगर यह उनकी योग्यता नहीं है बल्कि भारत की जड़ों में फैली जाति व्यवस्था की द्योतक है जिसे भारत के संविधान में खत्म करने का प्रण लिया गया है और श्री कोविन्द संविधान के ही संरक्षक होंगे। इसमें कोई दो राय नहीं कि वह एक साधारण राजनीतिज्ञ रहे हैं मगर भारत का यह इतिहास रहा है कि साधारण लोगों ने ही ‘असाधारण’ कार्य किये हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि श्री कोविन्द ऐसे समय में वर्तमान राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी का स्थान ग्रहण कर रहे हैं जिन्हें मौजूदा दौर का स्टेट्समैन (राजनेता) माना जाता है और भारत को महान बनाने में जिनके खाते में राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय उपलब्धियां भरी पड़ी हैं। इसके बावजूद भारत की वर्तमान राजनैतिक परिस्थितियां राष्ट्रीय अखंडता व एकता के लिए चुनौती बनकर उभर रही हैं, इनमें सबसे ऊपर कानून के शासन को दरकिनार करते हुए सामुदायिक शासन को ऊपर रखने की दुष्प्रवृत्ति है जिसकी वजह से कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भारतवासियों में असुरक्षा की भावना घर करती जा रही है।

भारतीय लोकतन्त्र के लिए यह एक परीक्षा की घड़ी भी है क्योंकि एक तरफ हम पूरे भारत को एकीकृत बाजार में परिवर्तित कर जीएसटी को लागू कर रहे हैं और दूसरी तरफ विभिन्न राज्यों का पृथक ध्वज रखने की मांग उठ रही है। ‘एक भारत-सशक्त भारत’ का सपना एक दिशा में आगे बढ़ता है तो दूसरी दिशा में वह पीछे चला जाता है। यह अजीब विरोधाभास का दौर है जिसमें प्रत्येक भारतवासी सोच रहा है कि हम किस दिशा में बढ़ रहे हैं। एक तरफ राजनीतिक बिरादरी को चोर, भ्रष्ट, सत्ता लोलुप और बेइमान साबित किया जा रहा है तो दूसरी तरफ उसे कानून से ऊपर रखने की तिकड़में भिड़ाई जा रही हैं। हवाई यात्राओं में राजनीतिज्ञों के व्यवहार ने यही सिद्ध किया। एक तरफ गौरक्षक आतंक का माहौल पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं तो दूसरी तरफ बीफ की कमी न होने देने का ऐलान किया जा रहा है। राजनैतिक विमर्श को मजहबी दायरे में कैद करके देखने को समयोचित समझा जाने लगा है। नया भाषा विवाद जन्म ले रहा है जिससे उत्तर और दक्षिण भारत के बीच विरोध बढ़ रहा है। दिग्भ्रमित विपक्ष स्वयं ही अन्तर्विरोधों से जूझ रहा है और पूरे राजनैतिक माहौल को सड़क छाप बनाने पर आमादा दिखाई पड़ता है। जानबूझ कर वह हिन्दू और मुसलमानों के बीच खाई पैदा करना चाहता है। जिस तरह राज्यसभा में समाजवादी पार्टी के सदस्य नरेश अग्रवाल ने गौरक्षा के नाम पर की जा रही हत्याओं के मुद्दे पर चल रही बहस को किसी ”सड़क छाप झड़प” में बदलने की कोशिश की उसने यह साबित कर दिया कि संसद के उच्च सदन में बैठने की लियाकत की परिभाषा फिर से लिखी जानी चाहिए।

शराब की बोतलों से हिन्दू देवी-देवताओं के नाम जोड़कर उन्होंने सिद्ध कर दिया कि उनकी सोच इस देश को साम्प्रदायिक दंगों की आग में झुलसाना चाहती है। उत्तर प्रदेश को तबाह करने के बाद अब ऐसी राजनीति वह पूरे भारत में चलाना चाहते हैं। यह सनद रहनी चाहिए कि उत्तर प्रदेश में पिछले 25 सालों में जिस प्रकार की राजनीति चली है उसने इस प्रदेश को पचास साल पीछे कर दिया है। इस राज्य का हर गांव गवाही दे रहा है कि किस तरह कानून को ताक पर रखकर यहां ‘सियासी कारकुनों’ का राज चला और हर शासन में दलित ही सबसे ज्यादा कुचला गया, भारत को जाति व सम्प्रदाय के सींखचों में बांट कर सत्ता में आने की राजनीति को इस देश के लोगों ने कभी स्वीकार नहीं किया। जब भी इस देश में किसी पार्टी का शासन आया है तो गरीब व वंचितों और किसानों व ग्रामीण परिवेश के लोगों को उनका वाजिब हक दिलाने के नाम पर ही आया है चाहे वह इन्दिरा गांधी की सरकार रही हो या वर्तमान में नरेन्द्र मोदी की। दोनों की मजबूती के पीछे यही गरीब तबके रहे हैं और इनका कानून के शासन के ऊपर गहरा विश्वास है क्योंकि लोकतन्त्र ने उन्हें यह अच्छी तरह समझा दिया है कि भारत ऐसा देश है जिसमें गरीबों को उनका हक कानूनी तौर पर मिलता है, किसी शासक की मेहरबानी से नहीं। यह हक न तो जाति देखकर दिया जाता है न धर्म देख कर, जो भी सरकार बनती है वह 125 करोड़ भारतीयों की बनती है और इसका धर्म सिर्फ संविधान होता है। इसी की रक्षा के लिए भारत का राष्ट्रपति होता है क्योंकि उसके फरमान से ही लोगों की चुनी हुई सबसे बड़ी संस्था ‘संसद’ उठती और बैठती है। अत: श्री कोविन्द के ऊपर यह भार डालकर देश आश्वस्त होना चाहता है कि संविधान का शासन अरुणाचल प्रदेश से लेकर प. बंगाल तक में निर्बाध रूप से चलेगा और देश की सीमाएं पूरी तरह सुरक्षित रहेंगी क्योंकि राष्ट्रपति ही सेनाओं के सुप्रीम कमांडर होते हैं।

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