जीवट सदा काम आता है, इसका प्रमाण एक ओर 'रैट माइनर्स' की भूमिका से मिला है, दूसरी ओर अतीत के दो मेहनतकश नायकों को एक बार फिर याद करने की ज़रूरत महसूस हो रही है। उत्तराखंड की आपदाग्रस्त सुरंग में जब आस्ट्रेलियाई विशेषज्ञों व अत्याधुनिक मशीनों को सफलता नहीं मिल पाई, तब उन मेहनतकश 'रैट माइनरों' की याद आई, जिन पर अतीत में भारत सहित कई देशों ने प्रतिबंध लगा दिया था, हालांकि उनकी विशेषज्ञता पर कहीं भी, कभी भी संदेह नहीं जताया गया था।
'रैट माइनर्स' की सर्वाधिक चर्चा द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हुई थी। उस युद्ध में नगालैंड की नगा जनजाति के लोगों को कुली, जासूस, स्ट्रेचर ढोने, खंदकें खोदने आदि कामों में प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया गया था। इसके अलावा युद्ध में एक और खास काम के लिए उनका उपयोग किया जाता था और वो था खुफिया जानकारियां जुटाना। जब यूरोपीय 'बी फोर्स' के सदस्य पकड़े जाते थे या मारे जाते या छिपे हुए होते थे और जंगली इलाके में हवाई फोटोग्राफी ज्यादा कारगर साबित नहीं होती तो नगा लोग ही कोहिमा के आसपास जापानी सेना की मूवमेंट के बारे में खबर रखते थे। इतिहास उन्हें ऐसे लोगों के रूप में याद करता है, जो न केवल युद्ध में जीत, बल्कि युद्ध में उनके द्वारा बचाई जिंदगियों के लिए भी जिम्मेदार थे।
इस बार वर्तमान बचाव अभियान में आदमी और मशीनें दोनों ही महत्वपूर्ण साबित हुए थे लेकिन गैस कटर से छोटे टुकड़ों में काटकर 'ऑगर' मशीन के हिस्सों को निकालना और फिर पाइप को नुकसान पहुंचा, बिना मैन्युअल खुदाई करना सबसे कठिन था और मशीनें इसे इतने अच्छे से नहीं कर सकती थीं, जैसा 'रैट माइनर्स' मनुष्यों ने किया है।
निष्कर्ष यही निकला था कि संकट में मनुष्यों और मशीनों, दोनों को ही मदद लेना समझदारी भरा होता है लेकिन जब मुश्किल घड़ी आती है तो जिंदगियां बचाने में मनुष्यों का जीवट सबसे बेहतरीन मशीनों पर भी भारी पड़ता है। इसी संदर्भ में 'माउंटमैन दशरथ मांझी' और हिमाचल के भलखू राम इंजीनियर की याद हो आना भी स्वाभाविक था। 'दशरथ मांझी' पर फिल्में भी बनीं, किताबों में भी उसका जि़क्र एक महानायक के रूप में दर्ज किया गया। इस फिल्म का एक मशहूर डायलॉग भी बेहद मशहूर है, मांझी जब भी सुबह जाते, पर्वत को निहारते तो कहते, तुम्हें क्या लगा कि हम आएंगे और 'जब तोड़ेंगे नहीं, तो छोड़ेंगे नहीं।' दशरथ मांझी ने निरंतर 22 वर्ष हथौड़े और छैनी से पहाड़ को चीर डाला था। उसने 360-30 फीट का रास्ता बनाकर पहाड़ को पराजित किया था।
तीसरी ओर भलखू इंजीनियर याद हो आता है। यह सीधा-सादा, अनपढ़ मेहनतकश न होता तो शिमला-कालका रेलमार्ग बन ही नहीं पाती। उसकी भूमिका के प्रति श्रद्धा व प्रशंसा का भाव जताने के लिए पुराने शिमला रेल-स्टेशन के एक ओर उसकी स्मृति में एक 'म्यूजियम' स्थापित किया गया। यहां एक रेलमार्ग के कुछ दुखद पृष्ठों को भी पलटना होगा। प्रारंभ में कर्नल बरोग नामक एक फौजी इंजीनियर के नेतृत्व में इस रेलमार्ग के मार्ग में आने वाली सुरंगों के निर्माण का कार्य आरंभ किया। बरोग अपनी ही बार-बार की असफलता से इतना अधिक टूट गया था कि आखिर उसने आत्महत्या कर ली थी। वर्तमान बरोग रेल-स्टेशन व कस्बा उसी की स्मृति को समर्पित है।
अब इस कालका-शिमला रेल लाइन को यूनेस्को ने मानव श्रम का अद्वितीय प्रतीक बताते हुए 'हैरिटेज स्टेट्स' प्रदान किया है। इस 'हैरिटेज स्टेट्स' में मुख्य योगदान इसी भलखू राम का था। यह रेल मार्ग जून 1898 में बनना प्रारंभ हुआ था और नवम्बर 1903 को पूरा हुआ। तब तक इस रेलमार्ग पर 889 पुल और 103 सुरंगों का निर्माण हुआ था। इसके निर्माण के मध्य असंख्य बाधाएं आईं, मगर बाद में यह भी महसूस किया गया कि यदि भलखू राम पहले ही कर्नल बरोग को मिल गया होता तो कर्नल हताशा में आत्महत्या न करता।
भलखू राम को अब बाबा भलखू के नाम से भी याद किया जाता है। उसे कुछ लोग एक संत भी मानते थे। वह दरअसल अपने गांव में नहीं रहता था। गांव के समीप एक एकांत वाली चट्टान पर ही उसकी झोंपड़ी थी। वह वहीं रहता और प्रकृति, चट्टानों, झरनों, वन्य-प्राणियों और वृक्षों के साथ ही रचा बसा रहता। उसे पहाड़ों की कमजोरियों का भी एक हथौड़े से ठोक कर ही अनुमान लगा लेता था कि इसके भीतर क्या है। उसी ने रेलमार्ग निर्माताओं को मार्गदर्शन दिया था और यह रेल मार्ग बन गया।
– डॉ. चंद्र त्रिखा
chandertrikha@gmail.com