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गंगा सागर की यात्रा में रथ?

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प. बंगाल में भाजपा को रथयात्रा निकालने की इजाजत देने से इंकार करके सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि राज्य की साम्प्रदायिक सद्भावना को बिगड़ने न देने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है अतः इस बाबत अपने विवेक से फैसला करने के उसके अधिकार को कम करके नहीं देखा जा सकता। प. बंगाल की तृणमूल कांग्रेस की नेता सुश्री ममता बनर्जी का रथयात्रा पर रुख शुरू से ही यह रहा है कि भाजपा ने जिस तरह इस यात्रा का रास्ता तय किया है उससे राज्य के उन इलाकों में साम्प्रदायिक तनाव बढ़ सकता है जहां अल्पसंख्यक या मुस्लिम समुदाय के लोगों का बाहुल्य है।

सवाल यह है कि रथयात्रा को लेकर इतनी राजनीति क्यों हो रही है कि सरकार और राजनीतिक दलों को न्यायालय की शरण में जाना पड़ रहा है? लोकतन्त्र में हर पार्टी को अधिकार होता है कि वह संविधान के दायरे में अपनी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए सभी जायज रास्ते अपनाए। उत्तर भारत के लोगों को सोचकर हैरानी हो सकती है कि चुनावी मौसम में कांग्रेस पार्टी से लेकर तृणमूल कांग्रेस व अन्य क्षेत्रीय दलों के जब जुलूस सड़कों पर निकलते हैं तो हाथ में अपनी-अपनी पार्टी का झंडा पकड़े राजनीतिक दलों के हिन्दू-मुसलमान समर्थक ऊंची आवाज में वन्दे मातरम् का नारा लगाते हुए आगे बढ़ते हैं।

यहां की बांग्ला संस्कृति का आकार धर्म की संकुचित सीमाओं को तोड़ते हुए समस्त धरती पुत्रों को अपने आगोश में इस तरह भरता है कि हिन्दू-मुस्लिम होने का भाव बंगाली होने की पहचान में छिप कर बैठ जाता है। इसके बावजूद 1947 में इसी बंगाल के एक भाग को काट कर पूर्वी पाकिस्तान बना दिया गया था जो 1971 में एक अलग बांग्लादेश के रूप में उदित हुआ। यह बांग्ला संस्कृति का ही तेज था जिसने मजहब के दायरे को तोड़कर इस तरह फैंका कि पूरी दुनिया दांतों तले अंगुली दबाकर पूर्वी पाकिस्तान को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बांग्लादेश के रूप में स्थापित होते हुए देखती रह गई। यही वजह रही कि प. बंगाल में कभी भी न तो हिन्दू और न ही मुस्लिम कट्टरपंथियों को सियासत में अपनी जगह बनाने की कोई जगह मिल पाई अलबत्ता मार्क्सवादियों के लिए यहां की जमीन इस तरह मुफीद निकली कि यह पार्टी लगातार तीन दशक तक यहां राज करती रही परन्तु ममता दी द्वारा मार्क्सवादियों को परास्त करने के बाद विपक्ष में जो राजनीतिक जगह खाली हुई है भाजपा अब उसे भरने की फिराक में है।

बंगाल तक पहुंचते-पहुंचते गंगा अपने पूर्ण विशाल स्वरूप में आकर गंगा सागर में तब्दील हो जाती है जिसमें भारत के सभी धर्म और संस्कृतियों का समागम एकाकार हो जाता है। वास्तव में यही बांग्ला संस्कृति का चरित्र है जो सभी धर्मों के लोगों को अपने में समा लेता है और वे सब एक स्वर से बांग्ला बोलने लगते हैं। अतः ममता दी की चिन्ताएं गैर-वाजिब नहीं कही जा सकतीं क्योंकि एक बार फिर से प. बंगाल को पुराने जख्मों को सहलाने के लिए किसी भी तौर पर तैयार नहीं किया जा सकता। राष्ट्रभक्ति यही है जिसे हम केवल ‘राग देश’ में गा सकते हैं। यदि इस राज्य को भी हम उत्तर प्रदेश बनाने का सपना देख रहे हैं तो माफ कीजिये यह उन नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की जन्म स्थली है जिन्होंने भारत को ‘जय हिन्द’ का नारा देते हुए ऐलान किया था कि मजहब को अपने घरों में बंद रखकर ही भारत के सेवक बन सकते हो और इसकी बेहतरी के लिए अंग्रेजों से तभी लड़ सकते हो।

नेताजी तो मानते थे कि अंग्रेजों ने दो सौ साल तक राज इसीलिए किया क्योंकि उन्होंने हिन्दू-मुसलमानों के बीच ऐसी दीवार खड़ी करने में सफलता हासिल कर ली थी जिस पर चढ़कर वे दोनों ही तरफ अपनी बन्दूकें दाग सकते थे। ममता दी आम जनता के बीच से उठकर सतत संघर्ष करते हुए जन नेता की पदवी तक पहुंची हैं अतः वह भलीभांति जानती हैं कि जमीनी सियासत में कौन-कौन से हथियार इस्तेमाल किये जा सकते हैं। हमारे लोकतन्त्र की राजनीति का पहला सिद्धान्त यही है कि धर्म के आधार पर लोगों को बांटने की कोई भी तरकीब राष्ट्र को तोड़ने से कमतर नहीं देखी जानी चाहिए।

प. बंगाल की मुख्यमन्त्री की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने राज्य की कानून-व्यवस्था दुरुस्त रखने के लिए साम्प्रदायिक द्वेष को फैलने से ही पहले काबू में करने की तजवीज लागू करें। जिम्मेदारी राजनीतिक दलों की भी बनती है कि वह कोई सांप्रदाियक द्वेष पैदा न होने दें। चुनाव तो इस देश में होते रहेंगे और सियासी पार्टियां हारती-जीतती रहेंगी मगर इस देश के लोग कभी हारने नहीं चाहिएं क्योंकि पूरा देश उन्हीं से मिलकर बना है और उनमें सद्भावना और समरसता बनाये रखकर ही देश मजबूत हो सकता है। देश से प्यार करने का पहला अर्थ इसके लोगों से प्यार करने का ही होता है क्योंकि ये ही लोग खेतों में अन्न उगाने से लेकर सीमाओं तक की चौकसी करके समस्त लोगों को सुरक्षा प्रदान करते हैं।

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