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रेलवे के निजीकरण का कारण ?

सरकार ने जिस तरह निजी रेलगाड़िया चलाने का फैसला किया है उसे सकल भारतीय आर्थिक-सामाजिक सन्दर्भों में देखा जायेगा और वे ये हैं कि विश्व बैंक के अनुसार दुनिया के 164 देशों में प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से भारत का नम्बर 2015-16 में 112वां था जो अब खिसक कर और नीचे आ गया है।

सरकार ने जिस तरह निजी रेलगाड़िया चलाने का फैसला किया है उसे सकल भारतीय आर्थिक-सामाजिक सन्दर्भों में देखा जायेगा और वे ये हैं कि विश्व बैंक के अनुसार दुनिया के 164 देशों में प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से भारत का नम्बर 2015-16 में 112वां था जो अब खिसक कर और नीचे आ गया है। सामाजिक स्तर पर देखा जाये तो भारत के आदिवासी क्षेत्रों में अब भी कुछ ऐसे इलाके हैं जहां के निवासियों ने आज तक रेल नहीं देखी है? इसके बावजूद भारतीय रेल पूरे भारत को आपस में जोड़ने की ऐसी महत्वपूर्ण जीवन रेखा है जिससे राष्ट्रीय एकीकरण मजबूत होता है और उत्तर-दक्षिण व पूर्व-पश्चिम के राज्यों के विविध भाषा-भाषी लोग एक- दूसरे की संस्कृति और जीवन शैली से परिचित होकर भारतीयता को मजबूत करते हैं। भारत तीर्थ स्थलों का देश भी है और इन तक जाने का सबसे सस्ता व सुगम यात्रा माध्यम रेल ही है जिसे स्वतन्त्रता के बाद से भारत की सरकार ही चलाती आ रही है।
पं. नेहरू का स्पष्ट मानना था कि रेलवे कोई वाणिज्यिक संस्थान नहीं है कि इसे मुनाफा कमाने के नजरिये से चलाया जाये, यह भारत के नागरिकों के यात्रा करने के मौलिक अधिकारों की आपूर्ति है जिसे पूरा करना किसी भी सरकार का दायित्व है।  समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि रेलवे भारत की गरीब जनता की सबसे बड़ी सम्पत्ति है जिसकी सुरक्षा करना सरकार का प्रथम दायित्व है क्योंकि भारत में रेलवे नेटवर्क बिछाने में सबसे बड़ा योगदान गरीब किसानों का रहा है जिन्होंने अपनी जमीनें इसके लिए दी हैं। अतः गरीब आदमी का रेल सफर करने का सबसे पहला अधिकार बनता है और सरकार को उसकी जेब को देखते हुए ही किराये का निर्धारण भी करना चाहिए। बेशक अंग्रेजों ने रेल पटरियां वाणिज्यिक हितों को साधने की गरज से बिछाई थीं जिनका मूल उद्देश्य भारत से कच्चा माल इंग्लैंड व अन्य देशों को भेजना था और वहां से तैयार माल भारत के बाजारों में लाना था। इनकी पहुंच शुरू में भारत के प्रमुख बन्दरगाहों तक इसीलिए बनाई गई थी, बाद में इसमें परिवर्तन तब आया जब अंग्रेजों ने यह सोच लिया कि उन्हें भारत पर भारत में ही रह कर राज करना है। आजादी मिलने तक भारत में औद्योगिक गतिविधियां नाममात्र की थी और सरकार का खजाना भू राजस्व से ही मुख्य रूप से भरता था।
देश में रेलवे सबसे बड़ा सरकारी  वाणिज्यिक व औद्योगिक संस्थान था। अतः इसका बजट पृथक रूप से रखने की अंग्रेजों ने परंपरा डाली परन्तु स्वतन्त्र भारत में पृथक रेलवे बजट की परंपरा को इस वजह से जारी रखा गया जिससे भारत की लोक कल्याणकारी सरकार देश की जनता के सामने अन्तर्देशीय परिवहन की रूपरेखा पारदर्शी तरीके से रख सके और बता सके कि समाज के गरीब तबकों को सस्ती यात्रा सुलभ कराने पर उसका कुल खर्च कितना आया है, इसी वजह से आजाद भारत में रेलवे घाटे में चलता रहा है क्योंकि सरकार की यह मूलभूत जिम्मेदारी थी कि वह नागरिकों के यात्रा करने के मौलिक अधिकार की रक्षा करे। यह अधिकार तभी सुरक्षित रह सकता है जब रेलवे पूर्णतः सरकारी प्रबन्धन में चले। रेलवे को लाभ देने वाली किसी निजी कम्पनी की तरह देखना लोकतान्त्रिक भारत से लोक कल्याण के भाव का परित्याग होना ही माना जायेगा। कुछ सामर्थ्यवान लोगों की सुविधा के लिए आम जनता की गाढ़ी कमाई से बनाये गये रेलवे नेटवर्क को निजी जायदाद में नहीं बदला जा सकता। हमने देखा है कि हवाई सेवाओं के निजीकरण का नतीजा क्या निकल रहा है? आज एयर इंडिया बिकने को तैयार खड़ी है मगर खरीदार कोई नहीं मिल रहा है, इसके साथ ही कोई भी सरकार सार्वजनिक  सम्पत्ति का उपयोग चन्द पूंजीपतियों के लाभ हेतु इस प्रकार नहीं कर सकती जिससे इस सम्पत्ति में हिस्सेदार आम जनता पर वित्तीय बोझ बढे़, अभी यह फैसला किया गया है कि कुल 109 रूटों पर 151 निजी ट्रेनें अप्रैल 2023 से चलना शुरू करेंगी। इन निजी चालकों को तैयार बाजार देने की क्या कीमत होगी जो रेलवे ने खड़ी की है। कुछ उद्योगपति ट्रेनें जोड़ कर रेलवे की पटरियों पर उन्हें दौड़ा भर देंगे और रेलवे के पूरे आधारभूत ढांचे का उपयोग करेंगे। क्या इस ढांचे को खड़ा करने की कीमत उनसे वसूली जायेगी?
आज तक किसी निजी उद्योगपति ने क्या ऐसे इलाकों में ट्रेन पटरी बिछाने की गुजारिश की है जो अभी तक रेल से न जुड़ा हो? आम जनता से वसूली गई धनराशि के बूते पर खड़ा किये गये रेलवे नेटवर्क का उपयोग करने की फिर हम छूट किस प्रकार दे सकते हैं। रेलवे में सुविधा के नाम पर जिस प्रकार इसकी सहायक सेवाओं का निजीकरण किया जा चुका है उससे जमीनी स्तर पर भ्रष्टाचार ही बढ़ा है और रेलवे में नौकरियों की कमी हुई है? अभी भी रेलवे में लाखों पद खाली पड़ेे हैं जिन्हें भरा नहीं जा रहा है। बेशक पूर्व में रेलवे मन्त्रालय कुछ क्षेत्रीय राजनैतिक दलों की राजनैतिक पार्टियां चलाने का जरिया बन गया था मगर इसका मतलब यह नहीं है कि हम पूरे कुएं से ही पानी निकालने की शुरूआत कर दें। रेलवे आम जनता के दिलों से जुड़ा हुआ मामला है। गरीब आदमी का एक स्थान से दूसरे स्थान जाने का अन्तिम सहारा रेलवे ही होता है। वह किसी भी तरह जुगाड़ करके यात्रा कर लेता है। निजी हाथों में इस संस्थान को देने से हम गरीब आदमी के दिल को तोड़ने का ही काम करेंगे और फिर निजी क्षेत्र लाभप्रद रूटों पर ही अपनी ट्रेनें चलाना पसन्द करेगा जिस तरह उसने हवाई यात्रा में ‘ट्रंक रूट’ लेकर सरकारी इंडियन एयर लाइंस को तबाह कर डाला।
दूसरा प्रत्यक्ष उदाहरण हमारे सामने सड़क यातायात का है। जिन रूटों पर भी निजी बसें चलती हैं वहां सरकारी बसें भारी घाटे में खुद-ब-खुद चलने लगती हैं। स्वास्थ्य क्षेत्र की हालत हमारे सामने है, पांच सितारा अस्पतालों ने गरीब आदमी से बीमार होने का हक तक छीन लिया है। हमें अपनी वरीयताएं इस प्रकार तय करनी होंगी जिनके केन्द्र में हर हालत में गरीब आदमी रहे। निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र के चक्कर में पड़ने से हम रास्ता भटक सकते हैं। सरकार का काम यदि व्यापार करना होता तो फिर सरकार किस तरह जनता के धन से खड़े किये रेलवे नेटवर्क पर निजी रेलगाड़ियों को चलाने की इजाजत दे सकती है और उनसे कुछ मुआवजा वसूल सकती है। देश की औद्योगिक प्रगति में रेलवे का महत्वपूर्ण योगदान रहा है और इसका लाभ  भरपूर तरीके से निजी क्षेत्र को मिला है। रेलवे के एक कर्मचारी की उत्पादकता यदि इस लिहाज से निकाली जाये तो देश भर में उसका नम्बर प्रथम आयेगा। अतः रेलवे को हम भारत के लोगों की सम्पत्ति की तरह देखें और इसका सच्चा-सच्चा हिसाब रखें।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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