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चीन में सत्ता के विरुद्ध ‘विद्रोह’

‘शी- जिनपिंग’ के खिलाफ यहां की जनता का अचानक गुस्सा फूट रहा है उससे यही सबक लिया जा सकता है कि केवल भौतिक तरक्की करने से कोई भी राष्ट्र महान या बड़ा अथवा शक्तिशाली नहीं हो सकता।

चीन में जिस तरह यहां के राष्ट्रपति ‘शी- जिनपिंग’ के खिलाफ यहां की जनता का अचानक गुस्सा फूट रहा है उससे यही सबक लिया जा सकता है कि केवल भौतिक तरक्की करने से कोई भी राष्ट्र महान या बड़ा अथवा शक्तिशाली नहीं हो सकता। किसी भी देश के महान होने के लिए उसके लोगों को निजी स्वतंत्रता और उनके आत्मसम्मान की प्रमुख भूमिका होती है। चीन एक कम्युनिस्ट देश होने के नाते ऐसी व्यवस्था का परिपालन कर रहा है जिसमें लोगों के निजी अधिकार सत्ता अपने पास गिरवीं रख लेती है और उन्हें ‘मशीन’ बनाकर रात दिन उत्पादन में लगाये रखती है। यह विकास विनाशकारी विकास होता है क्योंकि इसमें मानवीय तत्व को सबसे पहले समाप्त करके आदमी की शख्सियत को मशीन में तब्दील कर दिया जाता है। क्या गजब है कि जब पूरी दुनिया से कोरोना संक्रमण समाप्ति की खबरें आ रही हैं और लोग सामान्य जीवन की तरफ लौट रहे हैं तो चीन में इसके संक्रमण पुनः पैर पसारने की संभावनाओं को देखते हुए यहां की कम्युनिस्ट सरकार ने जनता पर कड़ी पाबन्दियां लगा दी हैं और कम से कम आठ शहरों में लाकडाऊन घोषित किया हुआ है। पिछले तीन महीने से ढाई करोड़ लोग अपने घरों में बन्द हैं और कैदियों जैसा जीवन बिताने के लिए मजबूर हैं। जबकि चीन के कथित सहोदर राष्ट्र ताइवान में 1 दिसम्बर से मास्क लगाने की पाबन्दी हटाने की घोषणा कर दी गई है। चीन की सरकार कह रही है कि कोरोना के बारे में उसकी नीति पूरी तरह इसे नेस्तानाबूद करने की है। इसलिए वह लाकडाऊन लगा रही है। मगर सवाल उठता है कि लगातार पिछले दो साल से लाकडाऊन में रहने वाली चीनी जनता क्या कोई मशीनरी है जो उसकी सारी मानवीय संवेदनाएं उसके पुर्जों में तब्दील हो चुकी हैं? ऐसी जन विरोधी नीति केवल किसी कम्युनिस्ट शासन में ही हो सकती है क्योंकि लोकतंत्र में ऐसा करना संभव नहीं होता। इसकी वजह यह होती है कि लोकतंत्र में जनता कभी भी समस्या नहीं होती बल्कि वह समस्याओं को सुलझाने में सरकार की मदद करती है। इसका कारण यह होता है कि लोकतंत्र में सत्ता में जनता की सीधी भागीदारी होती है। यह भागीदारी जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों की मार्फत होती है जो सरकार को लगातार जनता की समस्याओं और कठिनाइयों से अवगत कराते रहते हैं। मुख्य रूप से विपक्ष की भूमिका लोकतंत्र में यही होती है। मगर चीन जैसे देश में विपक्ष नाम की ‘चिडि़या’ नहीं पाई जाती और सब कुछ एक पार्टी के कारिन्दों के हाथ में ही सत्ता की चाबी होती है। इसे कम्युनिस्ट ‘गरीबों की तानाशाही’ बताते हैं। मगर वास्तव में यह एक पार्टी की तानाशाही ही होती है जिसे एकाधिकारवादी अथवा टोटलिटेरियन प्रणाली कहा जाता है। कोरोना पाबन्दियों के खिलाफ चीन में जनता का इसके विभिन्न शहरों में जिस तरह विरोध हो रहा है और पुलिस लगातार उसे दबाने के लिए दमनकारी नीतियां चला रही है उसे देखते हुए कहा जा सकता है चीनी जनता वर्तमान शासन व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह पर उतारू हो सकती है। इस विरोध प्रदर्शन के मायने इसलिए भी गंभीर हैं क्योंकि आम लोग राष्ट्रपति ‘शी- जिनपिंग’ के खिलाफ खुलकर नारे लगा रहे हैं और उनसे गद्दी छोड़ने की मांग कर रहे हैं। इतना ही नहीं वह ‘चीनी कम्युनिस्ट पार्टी’ मुर्दाबाद के नारे भी लगा रहे हैं।  अब सवाल यह है कि जब चीन की 90 प्रतिशत जनता में कोरोना के कोई लक्षण ही नहीं हैं तो सरकार किस बूते पर लाकडाऊन लागू रख सकती है। कोरोना के समय भारत में भी लाकडाऊन हुआ मगर इस संक्रमण के लक्षणों में जैसे–जैसे कमी आती गई वैसे–वैसे आंशिक प्रतिबन्ध लागू रहने लगे। मगर चीन कोरोना को नेस्तनाबूद करने की नीति के नाम पर जनता पर इस कदर जुल्म ढहा रहा है कि पिछले तीन महीने से उसने पूर्ण लाकडाऊन कुछ शहरों में लगा रखा है।  इस मानवीय संवेदनाओं को समाप्त करके मनुष्य को मशीन बनाने की कला केवल कम्युनिस्टों को ही आती है क्योंकि इनका पूरा फलसफा ही इसी सिद्धान्त पर आधारित होता है। यह संवेदहीनता ही तो है जो मनुष्य को मशीन बनाती है। अतः चीनी नागरिक इसी संवेदना की लड़ाई लड़ रहे हैं और ‘शी जिनपिंग’ का विरोध कर रहे हैं जिन्होंने पिछले अक्तूबर महीने में ही अपनी पार्टी की कांग्रेस से अगले पांच वर्ष तक औऱ पद पर बने रहने की स्वीकृति प्राप्त की थी। बेशक इस जन विरोध के कई आयाम हो सकते हैं और इसमें शी जिनपिंग विरोधी कम्युनिस्ट नेताओं की भी कुछ भूमिका हो सकती है मगर असली सवाल ‘मनुष्य को मशीन’ बनाने का ही है।

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