बिहार के पूर्व सांसद व बाहुबली कहे जाने वाले नेता आनन्द मोहन सिंह की जेल से रिहाई के मुद्दे पर जिस तरह की राजनीति हो रही है उसके दो आयाम हैं। एक तो यह कि अदालत द्वारा मिली सजा की पूरी अवधि काट लेने के बाद क्या क्रूर समझे जाने वाले अपराधियों को राज्य सरकारों को क्षमा (रेमिशन) करने के अधिकार का प्रयोग राज्य की सरकारों द्वारा करना चाहिए और दूसरा यह कि क्या जेल से छूटने के बाद ऐसे लोगों का राजनैतिक जगत द्वारा स्वागत किया जाना चाहिए? आनन्द मोहन सिंह बिहार के एक खास समुदाय के बीच एक जमाने में बहुत लोकप्रिय रहे हैं और उसी के बूते पर वह 1998 व 99 में दो बार लोकसभा के सदस्य भी रहे। मगर 1994 में ही उन पर आरोप लगा था कि उनके उकसाने पर गोपालगंज के जिला कलेक्टर श्री जी. कृष्णैया की भीड़ ने हत्या कर डाली थी। इस मामले में उन पर मुकदमा चला और पहले उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई जिसे उच्च न्यायालय ने आजीवन कारावास में बदल दिया। पिछले 14 वर्षों से वह जेल की सजा ही काट रहे थे हालांकि बीच-बीच में पैरोल पर भी बाहर आ जाते थे।
आनन्द मोहन एक समय में मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार की पार्टी जद(यू) में भी रहे हैं अतः नीतीश बाबू पर विपक्षी पार्टी भाजपा आरोप लगा रही है हत्या जैसे अपराध के अपराधियों को सरकार रेमिशन नियमों में जेल से बाहर निकाल रही है। नीतीश बाबू पर राजनैतिक लाभ के लिए ऐसा करने के आरोप भी लग रहे हैं। मगर ऐसे मामले केवल बिहार तक ही सीमित नहीं हैं। दूसरे राज्यों से भी एेसे मामले प्रकाश में आते रहे हैं जब दुर्दान्त व अत्यंत क्रूर समझे जाने वाले अपराधों में अदालती सजा पूरे करने वाले अपराधियों को थोक के हिसाब से रेमिशन की सुविधा दी गई। यह मामला इतना सरल नहीं है जितना ऊपर से दिखाई पड़ रहा है। देश की राजनीति में जो वर्जनाएं पिछले तीन-चार दशकों के दौरान समा गई हैं उनमें राजनीति का अपराधीकरण बहुत बड़ी समस्या के रूप में सामने आया है। इसके अगर मूल में जायें तो भारतीय समाज को अनुशासित रखने के लिए जो दंड व्यवस्था है और अदालती प्रक्रिया है उनकी विसंगतियों को उजागर किये बिना इस विषय की विवेचना नहीं हो सकती और साथ ही राजनैतिक व्यवस्था के गुण-दोषों की समीक्षा किये बिना किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि समाज में अपराधी तत्वों को ‘राबिनहुड’ की स्वीकार्यता कैसे और क्यों मिल जाती है? इसका एक तो बड़ा कारण लोकतन्त्र में जाति या समुदाय के नाम पर वोट बैंक का सृजन होता है और दूसरा छोटे अपराधियों को बड़े अपराधी का संरक्षण होता है। बड़े अपराधी को जब राजनैतिक संरक्षण की वजह से समाज में राबिनहुड की मान्यता मिल जाती है तो पूरी राजनीति के ही अपराधीकरण का खतरा खड़ा हो जाता है और समाज का एक हिस्सा कानून की जगह कथित राबिनहुड के फैसलों को ही अपनी नियति मानने लगता है। मगर मूल सवाल रेमिशन के अधिकार का ही है जिसका इस्तेमाल करके राज्य सरकारें अपने विवेक से जेलों में बन्द घोषित अपराधियों को क्षमा प्रदान करती हैं। बिहार में रेमिशन से सम्बन्धित कानून में संशोधन करके आनन्द मोहन सिंह को जेल से रिहा किया जा रहा है और तर्क दिया जा रहा है कि उनके आजीवन कारावास की सजा के 14 साल पूरे हो गये थे अतः उन्हें जेल में बन्द रखने का कोई तर्क तब नहीं बचता था जबकि बतौर कैदी उनका चाल-चलन ठीक-ठाक था। वैसे आनन्द मोहन सिंह की पत्नी श्रीमती लवली आनन्द भी 2004 में लोकसभा का चुनाव जीत कर सांसद बन चुकी हैं और उनकी छवि एक भद्र महिला की थी। जहां तक आनन्द मोहन सिंह का प्रश्न है वह भी वर्तमान सत्तारूढ़ राजद व जद (यू) गठबन्धन से लेकर भाजपा के नेताओं के बीच कोई विलेन नहीं माने जाते रहे हैं बल्कि नीतीश बाबू की भाजपा गठबन्धन वाली सरकार के एक मन्त्री ने उन्हें जेल से रिहा करने की खुद सार्वजनिक रूप से जोरदार वकालत की थी। अतः यह बेखटके कहा जा सकता है कि राजनीति में अपराध की स्वीकार्यता सुविधा पर निर्भर हो गई है।
1998 में जब भाजपा नीत वाजपेयी सरकार एक वोट से गिर गई थी तो लोकसभा में बहुमत का आंकड़ा जुटाने के समय आनन्द मोहन सिंह की मांग कांग्रेस की तरफ से भी उठ रही थी जबकि उन पर 1994 में ही हत्या का आरोप लग चुका था। निष्कर्ष निकालने के नाम पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्रत्येक राज्य को अपने रेमिशन नियमों को इस तरह सख्त बनाना चाहिए जिससे जघन्य अपराध में सजा पाने वाले कैदियों को क्षमा न मिल सके। मगर जब राजनीति के कुएं में अपराध की भांग घुल चुकी हो तो ऐसा फैसला कौन कर सकता है ?