अंबर से जब अमृत बरसे,
बूंद-बूंद को क्यों तरसे!
प्रकृति बहुत उदार है। धरती के दो-तिहाई हिस्से में पानी भरा है। भारत में भी जल की कोई कमी नहीं। फिर भी लोगों को पीने के लिए शुद्ध जल नहीं मिल रहा। पहले पानी सहित सारे प्राकृतिक संसाधन धरती पर संतुलित थे। तब लोग बैंक के जमा धन पर मिलने वाले ब्याज की तरह ही पानी का इस्तेमाल करते थे, यानी बारिश और मानसून की बूंदों को साल भर धरती के पेट में पहुंचाते थे। इससे धरती के गर्भ में जमा पानी मूलधन रहता था और भंडारण किए गए बारिश के जल का ब्याज के रूप में सालभर इस्तेमाल करते रहते थे। अब तो इस धरती की कोख से पानी का दोहन ही कर रहे हैं, बारिश के पानी को धरती के पेट तक पहुंचाने का कोई उपक्रम नहीं कर रहे। बढ़ते शहरीकरण से जमीन का कंक्रीटीकरण हो चुका है।
वर्षा के जल भंडारण का स्वतःस्फूर्त प्राकृतिक तंत्र अवरुद्ध हो चुका है। परिणामस्वरूप पानी तमाम जल स्रोतों से होकर समुद्र में जाकर बर्बाद हो जाता है। ऐसे में मानसूनी वर्षा के पानी को सहेज कर सालभर पानीदार बने रहने की कला आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है। जल की बर्बादी रोकने के लिए सशक्त उपाय करने की जरूरत है। आजादी के बाद से ही भारत में कई राज्यों में जल विवाद रहा। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान में नदी जल विवाद रहा तो कावेरी के जल को लेकर दक्षिण भारतीय राज्य उलझते रहे। अंतर्राज्यीय जल समझौतों का पालन न होने से कई बार पानी को लेकर उबाल भी आए और हिंसा भी हुई। कभी देश को बाढ़ का सामना करना पड़ा तो कभी देश को सूखे का सामना करना पड़ा। न तो हम बाढ़ के पानी का संचय कर सके और न ही सूखे का सामना कर सके।
सूखे और अतिवृष्टि ने किसानों को बार-बार तबाह किया। हालात यह हो गए कि कर्ज के बोझ तले दबे किसान आत्महत्याएं करने लगे। बार-बार सरकारों ने किसानों का कर्ज माफ किया लेकिन किसान की हालत नहीं बदली। ऐसा इसलिए हुआ कि हमने मूल समस्या की ओर ध्यान ही नहीं दिया। गर्मी के दिनों में राजधानी दिल्ली में भी जल संकट पैदा हो जाता है। दिल्ली पानी की खरीदार बनी रही। रेणुका बांध बनाने की बात तो 1972 में शुरू हुई थी। 2008 में दिल्ली की मुख्यमंत्री पद पर रहते शीला दीक्षित ने रेणुका जी पर बांध बनाने की जोरदार पैरवी की थी और वह तत्कलीन प्रधानमंत्री से भी मिली थीं। उनका कहना था कि दिल्ली को पानी के नए जल स्रोत की जरूरत है लेकिन न तो रेणुका बांध को कानूनी मंजूरी मिली और न ही राज्यों के बीच समझौता हुआ। अब हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिला में वर्षों बाद रेणुका बांध बनने का मार्ग प्रशस्त हुआ है।
6 राज्यों हिमाचल, राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और नई दिल्ली के मुख्यमंत्रियों ने रेणुका जी बहुउद्देश्यीय बांध परियोजना के समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए। इस परियोजना से 6 राज्यों के लिए पानी उपलब्ध होगा। बांध के निर्माण के बाद गिरि नदी का प्रवाह 110 प्रतिशत बढ़ जाएगा जो दिल्ली और अन्य राज्यों की पीने के पानी की जरूरत काे कमी के दिनों में कुछ सीमा तक पूरा करेगा। यमुना की सहायक नदी गिरि उत्तराखंड से हिमाचल होते हुए 6 राज्यों से गुजर कर जाती है। लम्बे समय से विभिन्न राज्यों की आपसी सहमति नहीं बन सकी थी लेकिन अब तीन महीने पहले लखवार पर एमओयू हुआ था, अब रेणुका बांध पर एमओयू हुआ और कुछ दिनों में किशकि डैम पर समझौता होने वाला है। इसका श्रेय केन्द्रीय जल संसाधन नदी विकास मंत्री नितिन गडकरी को दिया ही जाना चाहिए। जब सभी परियोजनाएं शुरू हो जाएंगी तो इतना पानी होगा कि पंजाब, हरियाणा का पानी का विवाद ही खत्म हो जाएगा। राजधानी दिल्ली में पानी का संकट नहीं होगा। हरियाणा को इसमें सबसे ज्यादा 47.82 फीसदी, उत्तराखंड को 33.65 फीसदी पानी उपलब्ध होगा। हरियाणा में करीब 36 लाख हैक्टेयर रकबे में खेती होती है।
ऐसे में जल की मात्रा बढ़ने से 16.5 लाख किसान परिवारों को लाभ होगा। सिंचाई के लिए पानी अधिक मिलने से हरियाणा के कुल खाद्य उत्पादन में बढ़ौतरी होगी। रेणुका बांध परियोजना से 40 मैगावाट बिजली का उत्पादन होगा। दिल्ली सरकार बिजली उत्पादन पर आने वाले खर्च का 90 फीसदी खर्च वहन करेगी। इसलिए हिमाचल को केवल 0.30 रुपए प्रति यूनिट की दर से लगभग 20 करोड़ यूनिट बिजली मिलेगी। इससे हिमाचल प्रदेश पावर कार्पोरेशन को हर साल 60 करोड़ का शुद्ध लाभ होगा।
रेणुका बांध के दायरे में आने वाले 32 गांवाें के सभी विस्थापितों को मुआवजा भी बांट दिया गया है। यह अच्छी बात है कि राज्य सरकारों ने महसूस किया कि जल है तो कल है। काश! यह परियोजना दो दशक पहले तैयार हो जाती तो जल संचय भी होता और बिजली उत्पादन भी मगर अफसोस कि हमारे यहां दलगत राजनीति के चक्कर में पानी-बिजली मुद्दा चुनावी मुद्दा तो बन जाते हैं लेकिन समस्या से निपटने के लिए तेजी से काम नहीं किया गया। पंजाब और हरियाणा की सरकारें सतलुज-यमुना लिंक नहर पर सियासत गर्म करती रही हैं लेकिन निदान अभी तक नहीं हुआ। जरूरत है नदियों के जल संरक्षण की एक समग्र नीति की और नई परियोजनाएं तैयार कर जल संचय की। सबसे बड़ा सवाल तो जल प्रबंधन का है। जिस दिन हम जल प्रबंधन सीख गए तो कोई समस्या रहेगी ही नहीं।