गणतंत्र-संविधान और कर्पूरी ठाकुर

गणतंत्र-संविधान और कर्पूरी ठाकुर
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गणतंत्र-दिवस और संविधान को एक बार फिर याद करने के दिन हैं। सैन्य-परेड, बीटिंग-रिट्रीट और भारतरत्न सम्मान इन दिनों विशेष आकर्षण व चर्चा के विषय हैं। सर्वाधिक चर्चा 'भारत रत्न' की हो रही है। कई बार लगता है 'भारत रत्न' कर्पूरी ठाकुर जैसे राजनेता आज भी होते तो शायद आज की राजनीति में उनका प्रवेश भी वर्जित होता। इस 'भारत रत्न' से जुड़े दो संस्मरणों के साथ ही प्रस्तुत हैं गणतंत्र से जुड़ी कुछ लीक से हटकर बातें ः
भारत का संविधान महज़ एक औपचारिक दस्तावेज नहीं था। इसकी मौलिकता व पावनता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए इसकी पहली दो प्रतियां हाथ से लिखी गई थीं। एक प्रति हिंदी में थी दूसरी अंग्रेजी में। दोनों को ब​िढ़या एवं सुन्दर लिखाई के विशिष्ट कैलिग्राफर प्रेम बिहारी नारायण रायज़ादा के द्वारा कागज पर उतारा गया था और बाद में इसके कलापक्ष को संवारने का दायित्व शांति निकेतन के प्रख्यात कलाकार नन्द लाल बोस को सौंपा गया था। नंद लाल बोस बापू गांधी के भी भक्त थे। लक्ष्मण, सीता जी, महाभारत युद्ध में कृष्ण व अर्जुन संवाद ने राम, बुद्ध, महावीर जैन, अशोक, विक्रमादित्य, अकबर, गुुरु गोबिन्द सिंह जी, शिवाजी मराठा, रानी लक्ष्मी बाई, टीपू सुल्तान आदि सभी के चित्र, रेखाचित्र कलात्मक रूप में उकेरे गए थे। इनके अलावा गांधी, सुभाष, नेहरू को भी चित्रात्मक रूपों में लिया गया है। संविधान की ये दोनों मूल प्रतियां आज भी संसद के पुस्तकालय में प्रदर्शित हैं।
'भारत रत्न' कर्पूरी ठाकुर सरीखे राजनेताओं का हमारी भारतीय राजनीति में प्रवेश लगभग वर्जित है। दो बार मुख्यमंत्री रहे व दो बार उपमुख्यमंत्री रहे कर्पूरी ठाकुर ने जब अंतिम सांस ली तो उनके बैंक खाते में 458 रुपए थे और जायदाद के नाम पर खवरैल का पुराना मकान था। एक चर्चा यह भी अखबारों में छपी थी कि जब पहली बार मुख्यमंत्री बने तो उनके एक सगे संबंधी ने आकर एक अच्छी नौकरी के लिए दस्तक बिछा दी थी। ठाकुर ने अपनी जेब से कुछ पैसे निकाले और थमा दिए, 'जाओ भाई। इन पैसों से अपने पुराने पेशे के कुछ उपकरण खरीदो और पुश्तैनी काम फिर से शुरू कर लो।'
वर्ष 1977 में जब जेपी (जयप्रकाश नारायण ) के जन्मदिन पर कर्पूरी भी समारोह में भाग लेने आए तो उनका कुर्ता दो स्थानों से फटा हुआ था। उन्होंने पैबंद भी लगाए थे, मगर बात छिप नहीं पाई। चंद्रशेखर (पूर्व प्रधानमंत्री) व कुछ मित्रों ने चंदा किया और हंसते हुए कर्पूरी ठाकुर की जेब में ठंूस दिया, 'अरे भाई कुर्ता तो नया ले लो। वरना शर्म तो हमें आएगी।' ठाकुर ने बुरा नहीं माना। हंसते हुए चंदे के पैसे ले लिए और अपने निजी सचिव को थमा दिए, 'लो भाई इसे मुख्यमंत्री राहत कोष' में जमा करा देना।
सादगी व विनम्रता की प्रतिमूर्ति इस शख्स ने जब पहली बार मुख्यमंत्री का पद संभाला (वर्ष 1952) तो उन्हें कुछ ही माह बाद एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमण्डल के साथ आस्ट्रिया जाने का निमंत्रण मिला। वहां के लिए तैयारी नहीं थी। सर्दी के दिन थे। एक दोस्त से उधार मांगा उसका कोट और पहनकर आस्ट्रिया चले गए। जल्दबाजी में कोट की जांच-पड़ताल भी नहीं कर पाए। वियना (आस्ट्रिया की राजधानी) पहुंचे तब अपने थैले में से कोट निकाला और सर्दी से बचाव के लिए पहन लिया। जा पहुंचे प्रतिनिधिमण्डल के साथ उस सम्मेलन में जिसकी अध्यक्षता यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति मार्शल टीटो कर रहे थे। जब टीटो का ध्यान कर्पूरी ठाकुर के कोट पर पड़ा तो वह भी देखते ही रह गए। कोट पर दो जगह पैबंद लगे थे। टीटो के आदेश पर नया कोट पैक कर कर्पूरी ठाकुर के होटल में पहुंचाया गया। उस पैक पर 'मार्शल टीटो का सस्नेह उपहार' लिखा हुआ था। कर्पूरी समझ गए, मुस्कुराए और वह उपहार अपने निजी सचिव को सौंप दिया, यह कहते हुए कि वह तो उपहार सरकारी पद के नाते मिला था, अत: इसे राजकोष में ही जमा कराया जाए।
अंग्रेजी में कर्पूरी ठाकुर का भी हाथ तंग था। मैट्रिक की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण तो हो गए मगर अंग्रेजी में फेल थे। उन दिनों अंग्रेजी में पास होना अनिवार्य नहीं था लेकिन उसके बाद यह भी एक चुटकुला बन गया। अंग्रेजी फेल मैट्रिक पास को 'कर्पूरी डिविजन' का मैट्रिक्युलेट कहा जाने लगा। उनकी एक विशेषता यह भी थी कि वर्ष 1984 के अलावा कभी भी चुनाव नहीं हारे। प्रतिपक्ष के नेता भी रहे और उपमुख्यमंत्री व मुख्यमंत्री भी, मगर चना चबैना खाकर जाै का 'सत्तू' पीकर चुनाव लड़ते रहे। हर बार जनादेश का नया कीर्तिमान बनाते रहे।
अपने जीवनकाल में वह जेपी के अलावा चौधरी चरण सिंह, श्री अटल बिहारी वाजपेयी, किशन पटनायक, श्री राजनारायण, मधुलिमये, रविराय, एसएम जोशी, जार्ज फर्नांडीज़, डॉ. राम मनोहर लोहिया आदि के सर्वाधिक प्रिय लोगों में शामिल रहे थे। अपने राजनैतिक जीवनकाल में उन्होंने जनता पार्टी, समता पार्टी, समाजवादी पार्टी, 'संयुक्त समाजवादी पार्टी', 'दलित किसान मजदूर पार्टी', भारतीय क्रांति दल आदि के 'बैनर' देखे और जिए। उनके बारे में एक बार लालू यादव ने कहा कि 'यह व्यक्ति हमेशा तनाव में घिरा रहता है। मैंने इसे कभी भी हंसते नहीं देखा।' वाकई विलक्षण था अपने समय का यह राजनेता।
'पूरा राशन, पूरा काम, नहीं तो होगा चक्का जाम।' उनका यह नारा तब प्रत्येक प्रदेशवासी की ज़ुबान पर चढ़ गया था लेकिन कर्पूरी को निराशा तब महसूस हुई जब कुछ समृद्ध, नेताओं ने उन्हें हाशिए पर सरकाने का प्रयास किया। एक बार तो उन्हें यह भी कहना पड़ा था कि 'यदि मैं जन्म से यादव होता तो शायद इस तरह से अपमानित न किया जाता।'
अंतिम सोपान में एक समय ऐसा भी आया जबकि कर्पूरी स्वयं भी कांग्रेस के पक्ष के 'बूथ-कैप्चरिंग' अभियानों से संतप्त हो गए थे। उन्होंने एक बार तो अपने समर्थकों को आह्वान कर डाला था कि बूथ-हिंसा का सामना करने के लिए उन्हें भी सशस्त्र दिखना पड़ेगा। उन दिनों एक साक्षात्कार के मध्य उन्होंने स्पष्ट भी किया कि वह आह्वान हताश होते कार्यकर्ताओं के लिए था और कुछ ही दिनों बाद उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि वह सैद्धांतिक रूप से चुनावी-हिंसा के विरुद्ध रहे हैं लेकिन यदि दबंगई प्रवृत्ति के लोग अपनी ज़्यादतियां जारी रखेंगे तो हिंसा व प्रति हिंसा का दौर भड़कता रहेगा। उन्होंने साथ ही यह भी जोड़ा था कि हिंसा अंतत: राजनीति में एक हथियार नहीं बन सकती। बदलाव लाना है तो संघर्ष व जूझने के अलावा कोई चारा नहीं।
उन्होंने तभी यह भी स्पष्ट किया था कि यदि उस समय वह क्षुब्ध कार्यकर्ताओं को किसी बहाने शांत न करते तो हिंसा फैल सकती थी। कुल मिलाकर राजनैतिक-प्रेक्षक यही मानते हैं कि कर्पूरी ठाकुर अपनी समाजवादी निष्ठाओं के बावजूद एक असफल नायक रहे। उन्हें बार-बार जूझते रहना पड़ा। शायद यही उनकी नियति थी। वह स्वीकार करते थे कि जब तक समानता की बात उठेगी तब-तब टकराव की नौबत आएगी लेकिन उस टकराव को शांतिपूर्ण बनाए रखना ही वास्तविक कसौटी होगी।

 – डॉ. चंद्र त्रिखा

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