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न्यायपालिका की प्रतिष्ठा सर्वोच्च

भारत का लोकतन्त्र जिस चौखम्भे राज से चलता है उसमें स्वतन्त्र न्यायपालिका का स्थान सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके ऊपर देश के पूरे शासन के संविधान के अनुसार चलते देखने की वृहद और गंभीर जिम्मेदारी है।

भारत का लोकतन्त्र जिस चौखम्भे राज से चलता है उसमें स्वतन्त्र न्यायपालिका का स्थान सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके ऊपर देश के पूरे शासन के संविधान के अनुसार चलते देखने की वृहद और गंभीर जिम्मेदारी है। देश की  सबसे बड़ी अदालत ‘सर्वोच्च न्यायालय’ के पास जो अधिकार हैं वे भारत के लोकतन्त्र को सभी प्रशासनिक व विधायी खतरों से इस प्रकार दूर रखते हैं कि सत्ता का सर्वोच्च संस्थान भी इसकी समीक्षा के दायरे में रहता है। अतः इसके सम्मान और प्रतिष्ठा पर प्रतिकूल टिप्पणी करना समूचे लोकतन्त्र की गरिमा और विश्वसनीयता पर आक्रमण कहा जा सकता है। इसी न्यायालय के वकील श्री प्रशान्त भूषण ने कुछ ऐसा कह डाला जिसने इस न्यायालय के न्यायमूर्तियों को झकझोर डाला और उन्हें श्री भूषण के विरुद्ध समुचित कार्रवाई करने को मजबूर होना पड़ा। अपने दो ट्वीटों में श्री भूषण ने सर्वोच्च न्यायालय को ही ‘ढहता हुआ संस्थान’ कह दिया जो कि किसी भी रूप में उपयुक्त नहीं कहा जा सकता।  सर्वोच्च न्यायालय भारत की समूची न्यायपालिका का प्रतिनिधित्व ही नहीं करता बल्कि वह इसका सम्पूर्णता का स्वरूप है। अतः इसकी प्रतिष्ठा को ध्वस्त करने वाले कथन को आपराधिक श्रेणी में रख कर न्यायमूर्तियों ने उस प्राकृतिक न्याय की भावना से कार्य किया है जो कटु वचनों को न केवल दूसरे को पीड़ा पहुंचाने का माध्यम मानता है बल्कि ऐसे कथन को मर्यादा मलिन करने वाला अपमानजनक तीर भी मानता है। इसलिए प्रशान्त भूषण को न्यायालय की अवमानना का दोषी मानना न केवल तर्कपूर्ण है बल्कि समयोचित भी है क्योंकि पिछले कुछ वर्षों  से न्यायालयों और न्यायाधीशों की कु-आलोचना करने की जो प्रवृत्ति बढ़ रही है उससे उच्च न्यायपालिका पर आम लोगों के विश्वास को ठेस पहुंच रही है।
 भारत में उच्च न्यायपालिका पर आम जनता का अटूट विश्वास ही नहीं बल्कि अगाध श्रद्धा भी है क्योंकि यह संस्थान स्वतन्त्र भारत में आज तक (केवल इमरजेंसी को छोड़ कर ) पूरी निष्पक्षता और निडरता के साथ अपने दायित्व का निस्पृह भाव से निर्वाह करता रहा है। बेशक इसकी आन्तरिक कार्य प्रणाली के बारे में जायज नुक्ताचीनी होती रही है जिसे स्वयं न्यायमूर्तियों ने ही दो साल पहले जग जाहिर किया था मगर इसका मतलब यह कतई नहीं निकलता कि यह संस्थान ही ढीला पड़ रहा है। सबसे पहले यह समझा जाना चाहिए कि संस्थान को चलाने वाले लोग ही होते हैं।  इनमें यदि कोई कमी या खामी होती है तो उसके लिए संस्थान की बुनियादी संरचना को दोष नहीं दिया जा सकता।  इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो हमारी लोकसभा ही है जहां सभी सदस्य जनता द्वारा चुन कर आते हैं परन्तु हर लोकसभा में हमें नये किस्म के सदस्य दिखाई पड़ते हैं और सबके गुण-दोष अलग-अलग होते हैं मगर लोकसभा तो अपने उन्हीं संविधान गत दायित्वों से बन्धी होती है जो भारत की विधायिका में निहित होते हैं। अतः व्यक्तिगत आलोचना और सांस्थानिक आलोचना में मूलभूत अन्तर होता है। सांस्थानिक आलोचना पूरी व्यवस्था को ही दोषपूर्ण होने का प्रमाण देती है जबकि व्यक्तिगत आलोचना संस्थान के भीतर के दोषी को बताती है।  श्री भूषण का नजरिया बेशक एक योग्य वकील का नजरिया  हो सकता है मगर उन्हें समूची न्याय व्यवस्था को ही चरमराता ढांचा कहने का अधिकार कहां से मिल जाता है? अतः न्यायमूर्तियों ने उनके मामले पर आज विचार करते हुए कहा कि क्या स्वयं श्री भूषण ही पूरी व्यवस्था का हिस्सा नहीं हैं?  इसका यदि हम भारतीय सन्दर्भों में  वैज्ञानिक विश्लेषण करें तो अर्थ यह निकलता है कि श्री भूषण उसी पेड़ की डाल को काट रहे हैं जिस पर वह बैठे हुए हैं।
 प्रश्न यह है कि क्या भारत में उस संस्थान की कु-आलोचना करने की खुली छूट दी जा सकती है जिसके कन्धों पर पूरे लोकतन्त्र के सभी खम्भों की मजबूती देखने की प्राथमिक जिम्मेदारी हो? अतः ऐसे  संस्थान की यदि सकारात्मक आलोचना की जगह विशुद्ध आलोचना ही की जाती है तो समूची व्यवस्था पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है?  हालांकि सर्वोच्च न्यायालय  श्री भूषण को उनके ट्वीटों के लिए पहले ही दोषी करार दे चुका है फिर भी उसने श्री भूषण को यथोचित समय दिया था कि वह अपने कथनों पर न्यायालय से माफी मांग सकते हैं और सजा से बच सकते हैं मगर श्री भूषण को यह स्वीकार नहीं हुआ जिसकी वजह से विद्वान न्यायाधीशों ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है। इतना करने से पहले न्यायालय ने श्री भूषण को यह अवसर भी दिया कि वह न्यायालय में दाखिल माफी न मांगने के अपने वक्तव्य को भी चाहें तो वापस ले सकते हैं।
  सुविज्ञता कहती है कि संस्था का सम्मान लोकतन्त्र की आधारभूत शर्त होती है। अतः श्री भूषण को अपने वकील मस्तिष्क का इस्तेमाल करते हुए न्यायालय की सलाह मान लेनी चाहिए थी क्योंकि इसमें लोकतन्त्र का ही सम्मान होता। न्यायालय की अवमानना इस प्रणाली में सम्यक दृष्टि से पूरी व्यवस्था का अपमान ही करती है। दुनिया जानती है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय की अन्य लोकतान्त्रिक देशों में बहुत ऊंची प्रतिष्ठा है और हमारे संविधान निर्माताओं ने इसकी स्थापना ब्रिटेन की परिपाठी से हट कर इसीलिए की थी जिससे भारत का लोकतन्त्र निर्भय होकर अपना रास्ता तय कर सके। ब्रिटेन में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना 2010 में ही हुई अन्यथा ये अधिकार उसके ‘हाऊस आफ लार्ड्स’ के पास थे, इसके साथ ही श्री भूषण के विरुद्ध वह मामला न्यायालय ने एक पीठ के सुपुर्द कर दिया है जो 2009 के उनके  एक पत्रिका को दिये गये उस साक्षात्कार के मु​त्तलिक है जिसमें न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाये गये थे।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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