भारत आरक्षण की आग में कई बार जला है। वोट बैंक की राजनीति के चलते बार-बार झूठ के ऊपर सत्य का आवरण ओढ़ाने की कोशिश की गई लेकिन भारत की न्यायपालिका ने हमेशा तथाकथित आवरण हटाकर झूठ को झूठ साबित किया है। आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों का विकास राष्ट्र और समाज का दायित्व है लेकिन प्रतिभाओं को पीछे धकेलना कहां तक उचित है। आजादी के 73 वर्षों बाद भी भारत में आरक्षण को लेकर विवाद है। वीपी सिंह शासनकाल में मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू किये जाने से आंदोलन भड़क उठा था और देश के बेटे सड़कों पर आत्मदाह करने लगे थे। आज तक आरक्षण को लेकर राजनीति होती रही है लेकिन न्यायपालिका ने अनेक ऐतिहासिक फैसले देकर राजनीतिज्ञों पर नकेल भी लगाई है। ऐसा ही मामला सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण का।
शीर्ष अदालत ने फैसला दिया है कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण का दावा करना मौलिक अधिकार नहीं है। आरक्षण देने का यह अधिकार और दायित्व पूरी तरह राज्य सरकारों के विवेक पर निर्भर है कि उन्हें नियुक्ति या पदोन्नति में आरक्षण देना है या नहीं, हालांकि राज्य सरकारें इस प्रावधान को अनिवार्य रूप से लागू करने के लिए बाध्य नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड सरकार के लोक निर्माण विभाग के सहायक अभियंता (सिविल) के पद पर पदोन्नति में एक और एसटी को आरक्षण से संबंधित मामलों को एक साथ निपटाते हुए यह निर्देश दिया है।
पीठ ने उत्तराखंड हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए ये व्यवस्था दी है। 2018 में भी सुप्रीम कोर्ट ने जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण मामले में फैसला सुनाते हुए कहा था कि ओबीसी के लिए तय कीमीलेयर का कान्सेप्ट एससी/एसटी के लिए भी नियुक्ति और तरक्की में लागू होगा। पदोन्नति में आरक्षण और सीधी भर्ती में निकाले रोस्टर को लागू करने की मांग को लेकर पिछले महीने देहरादून में हजारों एसटी,एससी कर्मचारियों ने सचिवालय का घेराव किया था। अनेक संगठनों ने सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया और अपनी मांगें न माने जाने की सूरत में सामूहिक धर्म परिवर्तन की चेतावनी भी दी थी। इस मामले में सितम्बर 2018 में फैसला सुनाते हुए जस्टिस नरीमन ने कहा था कि नागराज मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला सही था। इस पर फिर से विचार करने की जरूरत नहीं है।
अब उत्तराखंड सरकार को हाईकोर्ट के आदेश पर पदोन्नति में आरक्षण खत्म करने के फैसले को सही ठहराने की एवज में मात्रात्मक द्वारा नहीं देना होगा। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से प्रदेश में पदोन्नति में लगी रोक भी जल्द हट सकती है। अब इस मुद्दे पर सियासत गर्म होने लगी है। कांग्रेस और राजग के सहयोगी दल लोजपा और अन्य ने इस फैसले का विरोध किया है। इस मामले की गूंज संसद में भी सुनाई दी। केंद्र सरकार पहले ही अपने हाथ जला चुकी है। दो वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट ने जब एससी/एसटी एक्ट में बदलाव किया था तो दलित समुदाय की ओर से उग्र आंदोलन हुआ था। सड़कों पर हिंसा होने के बाद सरकार ने अध्यादेश जारी कर पुराना कानून बहाल कर दिया था। इसके बाद सवर्णों ने काउंटर आंदोलन शुरू कर दिया था।
आरक्षण ऐसा मुद्दा है जिस पर कुछ भी बोलते ही आप दलित विरोधी या सवर्ण विरोधी हो जाते हो। आरक्षण जारी रखने के पक्ष में अक्सर यह कहा जाता है कि जब तक समाज में समानता नहीं आ जाती तब तक आरक्षण जारी करना चाहिए। समाज में शोषित और दलित जातियों के लिए आरक्षण एक टॉनिक की तरह है। सबसे पहले समानता तो मानव जीवन की बुनियादी आधार मिला है ही नहीं क्योंकि एक ही परिवार के सदस्यों की सामाजिक दिशा अलग-अलग होती है। समस्या यह है कि आरक्षण सामाजिक जरूरत से ज्यादा राजनीतिक जरूरत में तब्दील हो चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी पूछा था कि एक दलित आईएएस के पोते और पोतियों को क्या पदोन्नति में आरक्षण की जरूरत है। यह सवाल उन लोगों को स्वयं से पूछना होगा।
सामाजिक समानता के लिए व्यक्तिगत हितों की कुर्बानी देनी होगी तब जाकर संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर के सपनों को वास्तविक रूप से स्वीकार किया जा सकेगा। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि ठीक पांच साल पहले 2015 में जब बिहार विधानसभा चुनाव हुए थे तो तब आरक्षण शब्द पर ही लड़ाई लड़ी गई थी। अब इस वर्ष बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं और आरक्षण फिर सुर्खियों में है। बिहार विधानसभा चुनावों में संघ नेताओं के बयानों पर भाजपा नेतृत्व सफाई देता रहा था और राजद के प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने मुद्दा लपक लिया था। केंद्र सरकार के सामने यह दुविधा है कि अगर वह पदोन्नति में आरक्षण के समर्थन में बोलती है तो सवर्ण वर्ग उससे नाराज होगा, अगर वह ऐसा नहीं करती तो दलित वर्ग छिटक जाएगा। यह मुद्दा अब दो धारी तलवार बन चुका है। अब समय है कि आरक्षण की पूरी व्यवस्था की समीक्षा की जाए। आरक्षण का आधार आर्थिक होना चाहिए ना कि जाति या धर्म। भारत को ऐसे समाज की जरूरत है जिसे अपनी बौद्धिक क्षमता पर विश्वास हो। आरक्षण पर सियासत बंद होनी चाहिए।