पटना उच्च न्यायालय ने बिहार की नीतीश कुमार सरकार के आरक्षण बढ़ाये जाने के कानून को रद्द कर दिया है। विगत वर्ष के नवम्बर महीने में बिहार की विधानसभा ने यह कानून राज्य में हुए जातिगत सर्वेक्षण के नतीजों के बाद किया था। पिछड़ों व अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगों की संख्या बढ़ी होने की वजह से उनका आरक्षण भी उसी अनुपात में बढ़ा दिया गया था। परन्तु पटना उच्च न्यायालय का कहना है कि यह कानून संविधान के 14, 15 व 16 अनुच्छेदों की मूल भावना के खिलाफ है जिसमें समाज में बराबरी के विभिन्न प्रावधानों का उल्लेख है। संविधान प्रत्येक नागरिक को बराबरी की गारंटी देता है। इसके साथ ही संविधान यह भी गारंटी देता है कि समाज के शैक्षिक व सामाजिक तौर पर पिछड़े रहे व्यक्तियों को बराबरी पर लाने के लिए सरकार विशेष प्रावधान कर सकती है। इसी लिए जब 1990 में पिछड़े वर्ग की जातियों के लोगों पर मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने का प्रावधान तत्कालीन विश्वनाथ प्रताप सिंह ने किया था तो उसके लिए संसद में कोई कानून नहीं बना था बल्कि सरकारी आदेश के तहत यह आरक्षण लागू किया गया था। परन्तु उसके बाद 1992 में सर्वोच्च न्यायालय में आरक्षण को रद्द करने के लिए कई याचिकाएं दायर की गई थीं। इसमें इन्दिरा साहनी बरक्स केन्द्र सरकार का मुकदमा विशेष उल्लेखनीय है क्योंकि इस मुकदमे का फैसला करते हुए सर्वोच्च अदालत ने कहा था कि आरक्षण की सकल सीमा 50 प्रतिशत ही हो सकती है।
50 प्रतिशत में अनुसूचित जातियों व जनजातियों और पिछड़े वर्गों का आरक्षण ही सरकारी नौकरियों में हो सकता है। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला कानून बन गया। बिहार से पहले कई अन्य राज्यों की सरकारों ने भी आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से ऊपर लांघनी चाही मगर वहां के सम्बन्धित उच्च न्यायालयों ने उसे रद्द कर दिया। मगर केन्द्र सरकार यदि चाहती तो बढे़ हुए आरक्षण को बरकरार रख सकती थी बशर्ते कि सम्बन्धित राज्यों के कानून को संविधान की नौवीं अनुसूची में संसद की मार्फत दाखिल करा देती। इस अनुसूची में जो भी कानून चला जाता है उसे न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती जिस प्रकार कि तमिलनाडु में 69 प्रतिशत आरक्षण लागू है। केन्द्र में जब कांग्रेस की सरकार थी तो कई दशक पहले तमिलनाडु विधानसभा द्वारा आरक्षण का कोटा 69 प्रतिशत कर दिया गया था। तमिलनाडु की द्रमुक सरकार के इस कानून को केन्द्र ने नौवीं अनुसूची में डाल दिया था। परन्तु वर्ष 2023 में जब बिहार ने आरक्षण का कोटा बढ़ाकर 75 प्रतिशत (10 प्रतिशत सामान्य वर्ग के गरीब लोगों को मिला कर) किया था तो नीतीश बाबू विपक्षी महागठबन्धन के नेता थे जिसका केन्द्र की सत्तारूढ़ भाजपा से छत्तीस का आंकड़ा था लेकिन अब परिस्थितियां बदल चुकी हैं।
नीतीश बाबू अब भाजपा नीत गठबन्धन में शामिल हैं। ऊपर से उच्च न्यायालय ने उनकी पिछली सरकार द्वारा बनाये गये कानून को रद्द कर डाला है। अतः इस मुद्दे पर अब राजनैतिक बाजार बहुत गर्म होगा। नीतीश बाबू की पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर भी जातिगत जनगणना के पक्ष में है। उन्होंने जब पिछली सरकार का मुखिया रहते बिहार के लोगों का जातिगत व आर्थिक सर्वेक्षण कराया तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आये। सबसे बड़ा तथ्य यह निकल कर आया कि बिहार के हर तीन परिवारों में से एक केवल कुछ हजार मासिक की कमाई पर ही निर्भर रहता है। गरीबी की सीमा रेखा से नीचे रहने वाले 34 प्रतिशत बिहार निवासियों की दयनीय दशा का अन्दाजा लगाया जा सकता है। बिहार में पिछड़ों में भी दो वर्ग हैं। एक तो सामान्य पिछड़े और दूसरे अति पिछड़े। अति पिछड़ा वर्ग नीतीश बाबू की पार्टी का वोट बैंक माना जाता है। इनकी संख्या के अनुसार बिहार सरकार ने इनका आरक्षण 18 प्रतिशत से बढ़ाकर 25 प्रतिशत कर दिया था तथा पिछड़े वर्ग का आरक्षण 12 से बढ़ाकर 18 प्रतिशत कर दिया था। अनुसूचित जातियों का 16 से बढ़ाकर 20 प्रतिशत कर दिया था और अनुसूचित या आदिवासियों का आरक्षण एक से बढ़ाकर दो प्रतिशत कर दिया था।
बिहार में आदिवासी बहुत कम संख्या में हैं क्योंकि 2000 में इस राज्य का बंटवारा होने के बाद अधिकांश आदिवासी बहुल इलाका झारखंड में चला गया था। अब सवाल यह पैदा होता है कि अपनी पार्टी का जनाधार बचाये रखने और सुशासन बाबू की अपनी छवि को बरकरार रखने के लिए नीतीश बाबू अगला कदम कौन सा उठा सकते हैं। उनके सामने एक ही सुरक्षित रास्ता बचता है कि वह वर्तमान आरक्षण को बचाये रखने के लिए केन्द्र सरकार से आग्रह करें कि वह इसे नौवीं सूची में डाल दे। मगर इसमें दिक्कत एक है कि विपक्षी दल कांग्रेस अखिल भारतीय स्तर पर जातिगत जनगणना कराये जाने की मांग कर रही है। हाल ही में सम्पन्न लोकसभा चुनावों में श्री राहुल गांधी ने जाति के आधार पर रायशुमारी कराने को एक प्रमुख मुद्दा बना दिया था।
केन्द्र यदि बिहार के कानून को नौवीं सूची में डालती है तो यह समझा जायेगा कि वह भी जातिगत जनगणना के हक में है। जबकि चुनावों के दौरान भाजपा ने इस मुद्दे पर केवल इतना ही कहा था कि वह जनगणना के खिलाफ नहीं हैं। मगर केन्द्र सरकार के पास वे आंकड़े मौजूद हैं जो 2011 में हुई जातिगत जनगणना के हैं। राहुल गांधी व समाजवादी पार्टी के नेता श्री अखिलेश यादव चुनावी प्रचार के दौरान यह भी कह रहे थे कि 2011 के आंकड़ों को केन्द्र सरकार सार्वजनिक करे और उसके बाद आरक्षण का नया फार्मूला संख्या के अनुसार जारी करे। राहुल गांधी तो यहां तक कह रहे थे कि यदि गठबन्धन की सरकार चुनावों के बाद आयी तो संसद में कानून बना कर वह आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा को ही बढ़ा देंगे लेकिन पटना उच्च न्यायालय के फैसले से यह मुद्दा अब फिर से संसद में गरमा सकता है और इस पर संसद के 24 जून से शुरू होने वाले सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर होने वाली बहस में क्या होता है । यह देखने वाली बात होगी।