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रिजर्व बैंक और सामान्य व्यक्ति

देश में बढ़ती महंगाई को थामने के लिए रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों में .4 प्रतिशत की जिस वृद्धि का एलान किया है उसका कितना असर सामान्य नागरिक की दैनिक जीवन की जरूरी वस्तुओं की कीमतों पर पड़ेगा

देश में बढ़ती महंगाई को थामने के लिए रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों में .4 प्रतिशत की जिस वृद्धि का एलान किया है उसका कितना असर सामान्य नागरिक की दैनिक जीवन की जरूरी वस्तुओं की कीमतों पर पड़ेगा, यह कहना तो अभी संभव नहीं है परन्तु इतना निश्चित है कि इससे बाजार में मुद्रा प्रसार पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा और पूंजी उगाही की कीमत बढे़गी। साथ ही रिजर्व बैंक ने वाणिज्यिक बैंकों के लिए नकद रोकड़ा अनुपात (सीआरआर) में भी .5 प्रतिशत की वृद्धि की है जिससे बैंकों को अपनी कुल जमा राशियों की 4.5 प्रतिशत पूंजी रिजर्व बैंक के पास जमानत के तौर पर रखनी होगी। इस प्रकार रिजर्व बैंक ने बैंकों को कर्ज देने की ब्याज प्रतिशत दर 4.4 कर दी है और सीआरआर बढ़ा कर 4.5 प्रतिशत कर दी है। इन दोनों ही कदमों से मुद्रा प्रसार पर प्रभाव पड़ेगा, जिससे महंगाई रोकने में मदद मिल सकती है। वित्त विशेषज्ञों की राय में रिजर्व बैंक को यह कदम पहले ही उठा लिया जाना चाहिए था परन्तु इसे बाजार की हालत देखते हुए तुरत-फुरत में यह फैसला करना पड़ा है। वजह यह है कि मुद्रा स्फीति की दर सात प्रतिशत के आसपास पहुंच रही है और थोक बाजार मूल्य सूचकांक में वृद्धि रुकने का नाम नहीं ले रही है। इसकी प्रमुख वजह सप्लाई या संभरण मोर्चे पर माल की कम आवक होना बताया जा रहा है क्योंकि यूक्रेन व रूस के बीच युद्ध जारी रखने की वजह से विश्व बाजारों से माल के आमद की सुस्थापित शृंखला टूट सी गई है। मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि मांग के अनुरूप माल की सप्लाई नहीं मिल पा रही है जिसकी वजह से दामों में वृद्धि हो रही है। परन्तु यह मुख्य रूप से गैर खाद्य वस्तुओं में है (खाद्य तेल को छोड़ कर)।
 रिजर्व बैंक के गवर्नर श्री शक्ति कान्त दास ने भी गैर खाद्य वस्तुओं को ही आंकलन में लिया है जिसकी वजह से उन्होंने मौद्रिक मोर्चे पर संशोधनात्मक कदम उठाये हैं। दरअसल कोरोना काल में रिजर्व बैंक ने सबसे ज्यादा जोर बाजार में पूंजी की सुलभता बढ़ाने के ​िलए ही उठाये थे और बैंक ब्याज दरों में कोई परिवर्तन नहीं किया था। 2014 में अन्तर्बैकिंग ब्याज दर 8 प्रतिशत के करीब थी जिसे 2020 तक घटा कर 4 प्रतिशत कर दिया गया था। इसके बाद वित्तीय मोर्चे पर सरकार ने कई मदद पैकेज पूंजी उपलब्धता मूलक ही प्रदान किये। इसका सकारात्मक असर पर भी अर्थव्यवस्था पर पड़ा और इसकी विकास वृद्धि दर जल्द ही पटरी पर आती दिखाई देने लगी। परन्तु खपत के मोर्चे पर आनुपातिक वृद्धि दर्ज नहीं हुई जिसकी वजह से बैंकों की ब्याज दरों से ज्यादा छेड़छाड़ नहीं की गई। परन्तु अब स्थिति पलट चुकी है खपत के मुकाबले सप्लाई में रुकावटें आ रही हैं और बाजर में पूंजी उपलब्धता अपेक्षाकृत सस्ती है जिसकी वजह से दामों के बढ़ने में सरलता हो रही है। 
मगर भारत के साधारण व आम आदमी को  ज्यादा आर्थिक पेंचों में फंसने की जरूरत नहीं है। उसे केवल यह देखना है कि उसके उपयोग की वस्तुएं जैसे आटा, दाल, चावल, तेल, घी, सब्जी, चीनी, साबुन, टूथपेस्ट समेत अन्य घरेलू जरूरत की चीजों में महंगाई कम हो। इन चीजों का सीधा सम्बन्ध ग्रामीण अर्थव्यवस्था से होता है (अगर कुछ ब्रांडेड चीजों को छोड़ दे तो) और यह अर्थव्यवस्था आज भी नकद रोकड़ा के लेन-देन के  आधार पर ही चलती है। इसका गहरा सम्बन्ध परिवहन खर्च से होता है जो पेट्रोल व डीजल की कीमतों पर निर्भर करता है। परिवहन खर्च बढ़ने का असर बहुआयामी होता है। साधारण व्यक्ति के यातायात से लेकर उसके लिए जरूरी चीजों का महंगा परिवहन आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में दाम बढ़ाता है। यह काम रिजर्व बैंक के बूते से बाहर है।
 पेट्रोल व डीजल के दामों को थामे रखने की जिम्मेदारी सरकारों की इसलिए होती है क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय  बाजार में कच्चे तेल के भावों से पेट्रोल व डीजल की घरेलू दरें बांधने के बावजूद उस पर उत्पाद या आयात शुल्क व बिक्रीकर निर्धारित करने का काम केन्द्र व राज्य सरकारें अपने-अपने कार्यक्षेत्र में करती हैं। अतः इस मद में शुल्क रियायत देकर सरकारें दैनिक वस्तुओं के भागते दामों पर लगाम लगाने का काम कर सकती हैं। बेशक खाद्य तेल के मामले में स्थिति थोड़ी विकट है क्योंकि सबसे सस्ते पाम आयल को निर्यात करने वाले कई देशों ने अपने ही बाजारों में इसकी बढ़ती कीमतों को देखते हुए निर्यात कारोबार पर प्रतिबन्ध लगा दिया है और यूक्रेन से भी इसका आयात बन्द हो चुका है। परन्तु भारत में इस बार सरसों की फसल शानदार होने का अनुमान है। फिर भी खाद्य तेल में तंगी को समझा जा सकता है। परन्तु अन्य सभी खाद्य उत्पादों में भारत के खलिहान लबालब हैं अतः इनके दामों में बढ़ना स्थानीय कारणों पर ही निर्भर कहा जा सकता है। इस बारे में हमें पूरी तरह निस्पृह भाव से बिना कोई राजनीति बीच में लाये सोचना होगा और सामान्य व्यक्ति को राहत देने पर विचार करना होगा क्योंकि पिछले दो सालों में उसकी आय में वृद्धि के साधन अपेक्षानुरूप नहीं जुट सके हैं। 

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