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दलितों का सम्मान ही आजादी

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यदि आजादी के 70 वर्ष बाद भी भारत के किसी राज्य के सरकारी स्कूल में दलित बच्चों को अलग जानवर बांधने के बाड़े में बिठाकर देश के प्रधानमन्त्री के सम्बोधन को सुनने के लिए बाध्य किया जाता है तो उस आजादी का कोई मतलब नहीं है जिसे प्राप्त करके हमने अपना वह संविधान लागू किया जिसमें प्रत्येक नागरिक को एक समान अधिकार उसकी जाति, धर्म व लिंग को परे रखकर दिये गये हैं। एेसे राज्य की सत्ता पर काबिज सरकार पूरे राष्ट्र के माथे पर बदनुमा दाग के अलावा और कुछ नहीं कही जा सकती। एेसी सरकार को हम लोकतन्त्र में लोगों की सरकार किस आधार पर कह सकते हैं? हिमाचल प्रदेश के कुल्लू इलाके में पड़ने वाली ‘चेष्टा ग्राम पंचायत’ के सरकारी स्कूल में विगत 16 फरवरी को प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी के ‘परीक्षा पर चर्चा’ कार्यक्रम को सुनने के लिए छात्र-छात्राओं को स्कूल की प्रबन्ध समिति के मुखिया के घर बुलाया गया और उनमें से दलित छात्रों को छांटकर उन्हें टीवी लगे कमरे से बाहर ही गाय व घोड़े आदि बांधने के बाड़े में बिठा दिया गया।

दलित छात्रों ने अपने कथित ऊंची जाति वाले छात्रों से अलग जानवरों के स्थान पर बैठकर प्रधानमन्त्री का कार्यक्रम सुना। यह स्वयं में भारत की उस सामाजिक व्यवस्था पर तीखी टिप्पणी है जिसे हम रात–दिन बाबा साहेब अम्बेडकर का नाम ले-लेकर दलितों को रिझाने का प्रयास करते रहते हैं मगर देखिये क्या सितम ढहाया जा रहा है कि हिमाचल प्रदेश में अभी पिछले दिनों ही भारी बहुमत से लोगों ने सत्ता बदल किया है और भाजपा की सरकार गठित की है। जाहिर तौर पर भाजपा को जो दो तिहाई बहुमत इन चुनावों में मिला था उसमें सभी वर्ग के लोगों की हिस्सेदारी थी। वोट देते समय यहां के लोगों ने यह नहीं सोचा होगा कि उनके दलित होने से उनके वोट की गिनती अलग खाने में रखकर होगी मगर सरकार बनने पर उन लोगों की पहचान अलग खाने में रखकर होने लगी जिनके एक वोट से सरकार का गठन हुआ था। दलितों की नई पीढ़ी को जो लोग आज भी अहसास करा रहे हैं कि उनकी हैसियत उन बाबा साहेब से आज भी अलग नहीं है, जिन्होंने अपनी पढ़ाई कक्षा से बाहर बैठकर सिर्फ दलित होने की वजह से पूरी की थी, उन्हें इस देश की राजनैतिक व्यवस्था में हिस्सेदारी करने की छूट किसी भी कीमत पर नहीं दी जा सकती।

स्कूल की प्रबन्ध समिति के जिस मुखिया के घर पर यह घिनौना कार्य हुआ है, सर्वप्रथम उसे कानून के फन्दे में फंसना ही होगा। जरा हिम्मत तो देखिये इन गुनहगारों की कि वे भारत के लोकतन्त्र के सबसे बड़े कार्यकारी अधिकारी ‘प्रधानमन्त्री’ की आवाज सुनने तक पर विद्यार्थियों पर अपनी जातिवादी मानसिकता थोपकर एेलान कर रहे हैं कि देश की सरकार चाहे कुछ भी कहती रहे और प्रधानमन्त्री परीक्षा को निर्भय व बिना डर के साथ देने की ताकीद छात्रों से बेशक करते रहें मगर उन्हें अपनी जाति के दायरे के ‘डर’ के घेरे में रहकर ही उनकी बातें सुननी होंगी। उनके लिए स्वतन्त्रता के मायने अन्य कथित ऊंची जाति वाले लोगों से अलग ही रहेंगे। एेसे लोगों की सोच और मानसिकता पर खाक डालने के अलावा और क्या ​किया जा सकता है, जिन्हें यह तक मालूम नहीं है कि अगर बाबा साहेब ने आजादी की लड़ाई में दलितों की सहभागिता कांग्रेस पार्टी द्वारा चलाये जा रहे आजादी के आन्दोलन में तय न की होती तो अंग्रेजों ने हिन्दुओं को ही बीच से बांटकर भारत को खंड–खंड कर दिया होता मगर देखिये एक तरफ हिमाचल के मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर दो दिन पहले ही एक अंग्रेजी अखबार से यह कहते हैं कि पूरा देश ‘नरेन्द्र मोदी’ के नाम पर संचालित होना चाहता है और दूसरी तरफ उन्हीं की नाक के नीचे कुल्लू में उन्हीं की पार्टी के कुछ कारिन्दे नरेन्द्र मोदी के सम्बोधन को ही दलित व सवर्ण में बांटने की हिमाकत कर देते हैं। इससे जाहिर यही होता है कि सरकार का रुतबा उन लोगों की हठधर्मिता और बर-जोरी के आगे पानी भर रहा है जो अपनी हैसियत समाज के ठेकेदारों के रूप में आंकते हैं।

संविधान की मर्यादा दलगत राजनीति का विषय किसी भी सूरत में नहीं हो सकती मगर राजनीति के लिए दलितों के साथ दुर्व्यवहार किये जाने की घटना ने रास्ता जरूर बना दिया है। यह मुद्दा इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर का नाम लेकर जबानी जमा खर्च करने में कोई भी पार्टी पीछे नहीं रहती। केन्द्र सरकार के ही अनुसूचित जाति के मामलों के मन्त्री थावर चन्द गहलौत ने हाल ही में मानव संसाधन मन्त्री को पत्र लिखकर कहा है कि स्व. अम्बेडकर के जन्म से लेकर देहत्याग तक के पांच स्थलों को ‘पंच तीर्थ’ के रूप में स्कूली छात्रों को पढ़ाया जाना चाहिए। क्या गजब की तजवीज पेश की है मन्त्री महोदय ने कि बाबा साहेब के सभी अनुयायियों को भी भक्तिभाव से समर्थन करना पड़े और उन लोगों को शोर मचाने का अवसर मिले कि देखो कितना ऊंचा ‘मयार’ बाबा साहेब को बख्शा जा रहा है मगर जब बाबा साहेब की असली विरासत दलितों को सम्मान देने का सवाल पैदा हो तो दीवार की तरफ मुंह करके खड़ा होने से क्या फर्क पड़ता है? बाबा साहेब का सम्मान और दलितों का अपमान दोनों एक साथ किसी भी तरह नहीं चल सकते। जो लोग आदमी-आदमी में फर्क सिर्फ इसलिए करते हैं कि उन्होंने अलग–अलग जातियों के लोगों के घरों में जन्म लिया है वे ‘संविधान से ऊपर उस मनुस्मृति’ को रखने का दावा करते हैं जिसका आधुनिक सभ्य समाज में कोई स्थान नहीं हो सकता। सदियों से जिन लोगों के साथ जन्म के आधार पर पशुवत व्यवहार किया जाता रहा हो अगर स्वतन्त्र भारत में भी उनके साथ एेसा ही व्यवहार किया जाता है तो हमें सोचने पर मजबूर होना पड़ेगा कि हमारी आजादी किन लोगों ने चुराई है?

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