भारत के संविधान में किसी राज्य के मुख्यमन्त्री व राज्यपाल के बीच के आपसी सम्बन्धों के बारे में कहीं कोई भ्रम की जगह नहीं है और विभिन्न अनुच्छेदों व उपबन्धों में पूरी स्पष्टता के साथ व्याख्या है। इसके बावजूद विभिन्न राज्यों से ऐसे मामले सामने आ रहे हैं जिनमें राज्यपाल व मुख्यमन्त्री आमने-सामने खड़े हुए नजर आते हैं। देश की सर्वोच्च अदालत पूर्व में भी कई बार ऐसे मामलों में केन्द्र-राज्य सम्बन्धों से लेकर राज्यपाल व चुनी हुई सरकारों के बीच के सम्बन्धों के बारे में फैसले दे चुकी है, इसके बावजूद नोकझोंक की खबरें आती ही रहती हैं जो कि भारत की संघीय व्यवस्था के लिए न तो उचित है और न ही स्वस्थ लोकतन्त्र के हित में है। सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि राज्यपाल केवल संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति महोदय के प्रतिनिधि हैं और उनका मुख्य कार्य राज्य का शासन संविधान के अनुसार चलते हुए देखना है जिसे राज्य की जनता द्वारा चुनी गई सरकार चलाती है। यह सरकार भी संविधान की शपथ लेकर ही काम करती है और उसे शपथ भी राज्यपाल ही दिलाते हैं परन्तु जनतन्त्र में राज्यपाल की भूमिका इस तरह सीमित है कि वह संवैधानिक मुखिया होने के साथ जनता के चुने हुए सदन विधानसभा की कार्यवाही को संविधान के अनुसार इसके भीतर की बनाई गई व्यवस्था के नियमानुरूप संचालन की प्रक्रिया के भी संरक्षक बने रहें क्योंकि विधानसभा का सत्र या उसका सत्रावसान वही घोषित करते हैं परन्तु अपने इन संवैधानिक दायित्वों का निर्वाह वह केवल चुनी हुई सरकार की सलाह पर ही कर सकते हैं। अतः हमारे संविधान के अनुच्छेद 167(बी) में यह प्रावधान है कि राज्यपाल मुख्यमन्त्री से प्रशासन व विधायी कार्यों के बारे में जानकारी या सूचना मांग सकते हैं किन्तु राज्यपाल संविधान के अनुसार कार्य करती हुई सरकार के मुख्यमन्त्री के कार्य में हस्तक्षेप नहीं कर सकते।
मुख्यमन्त्री का दायित्व है कि वह राज्यपाल को ऐसी मांगी गई सूचनाएं या जानकारी उपलब्ध करायें। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई. चन्द्रचूड की अध्यक्षता में गठित पांच न्यायमूर्तियों की पीठ ने पंजाब के राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित व मुख्यमन्त्री भगवन्त मान के बीच विधानसभा का सत्र बुलाये जाने को लेकर चल रही लाग-डांट के सन्दर्भ में दायर याचिका पर अपना फैसला देते हुए जो विचार व्यक्त किये वे कानूनी नजरिये से अत्यन्त महत्व के हैं और राज्यपाल व मुख्यमन्त्री दोनों को ही ताकीद करने वाले हैं कि उन्हें आपस में उलझना नहीं चाहिए। अनुच्छेद 167(बी) का हवाला न्यायमूर्ति चन्द्रचूड ने ही दिया और चेतावनी दी कि यदि मुख्यमन्त्री राज्यपाल को मांगी गई जानकारी उपलब्ध नहीं कराते हैं तो यह उनका अपने संवैधानिक दायित्व का निर्वाह न करना माना जायेगा।
दूसरी तरफ उन्होंने राज्यपाल श्री बनवारी लाल पुरोहित को भी ताकीद की कि जब मुख्यमन्त्री भगवन्त मान के मन्त्रिमंडल ने विधानसभा का सत्र बुलाने की उनसे सिफारिश की है तो वह इसे अस्वीकार नहीं कर सकते। सत्र बुलाने के लिए वह बन्धे हुए हैं। इस सम्बन्ध में 1974 के सर्वोच्च न्यायालय की सात सदस्यीय संविधान पीठ ने शमशेर सिंह बरक्स पंजाब सरकार मुकदमे में स्पष्ट फैसला देते हुए कहा था कि राज्यपाल किसी भी राज्य का संवैधानिक औपचारिक मुखिया होता है और वह अपनी शक्तियों व कार्यों का उपयोग मन्त्रिमंडल के मशविरे पर ही करता है। अतः संविधान इस मामले में बहुत स्पष्ट है कि केवल राज्य सरकार की सलाह पर ही राज्यपाल विधानसभा या विधान परिषद का सत्र बुला सकता है। इस सम्बन्ध में राज्यपाल कोई और फैसला नहीं कर सकते। हालांकि राज्यपाल पुरोहित ने कल ही विधानसभा का सत्र 3 मार्च से बुलाने का आदेश जारी कर दिया मगर इस विवाद के सर्वोच्च न्यायालय पहुंचने से पंजाब के मुख्यमन्त्री और राज्यपाल दोनों को ही यह विचार करना चाहिए कि लोकतन्त्र का सबसे बड़ा गहना ‘लोकलज्जा’ होती है। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकतीं कि श्री मान की सरकार भारी बहुमत की सरकार है और उन्हें पंजाब के हित में सभी प्रकार के फैसले करने का पूरा अधिकार है। विधानसभा का बजट सत्र बुलाये जाने का फैसला पूरी तरह संवैधानिक था और उसे राज्यपाल किसी भी तरह टाल नहीं सकते थे क्योंकि वह संविधान से बंधे हुए हैं और राज्यपाल का पद संवैधानिक मर्यादा का पद है अतः उन्हें इसकी मर्यादा और गरिमा का ध्यान रखते हुए मुख्यमन्त्री से नोकझोंक करने से बचना चाहिए था। वहीं मुख्यमन्त्री को भी राज्यपाल के पद व मर्यादा का भी ध्यान कोई भी सार्वजनिक प्रतिक्रिया देते हुए रखना चाहिए था। न्यायमूर्ति चन्द्रचूड ने इसी तरफ इशारा किया है।
हमारे लोकतन्त्र में पिछले 75 सालों से राजनीतिज्ञ ही राज्यपाल की भूमिका निभाते आ रहे हैं और यह काम वह सामान्यतः अपने राजनैतिक आग्रहों से ऊपर उठते हुए संविधान की रूह से ही करते हैं (कुछ अपवादों को छोड़ कर)। बल्कि ऐसे भी खूबसूरत उदाहरण हैं जब राज्यपाल अपने पद से इस्तीफा देकर राजनीति में सक्रिय हुए हैं और मुख्यमन्त्री तक बने हैं मगर राज्यपाल के रूप में उन पर कभी अंगुली नहीं उठी। ऐसा ही उदाहरण 1971 के करीब उत्तर प्रदेश के राज्यपाल स्व. विश्वनाथ दास का है। वह इसी वर्ष अपने राज्य ओडिशा स्वतन्त्र पार्टी के नेतृत्व में बनी सरकार का नेतृत्व करने चले गये थे क्योंकि इस पार्टी के मुख्यमन्त्री स्व. आर.एन. सिंह देव की सरकार डालमडोल हो रही थी। अतः पद की गरिमा व मर्यादा का महत्व समझा जाना चाहिए।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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