लगभग बीस वर्ष बाद श्री तारिक अनवर की कांग्रेस पार्टी में वापसी से यह तय हो गया है कि बिहार में इस राष्ट्रीय पार्टी की हालत लावारिसों जैसी नहीं रहेगी क्योंकि श्री अनवर बिहार की राजनीति में कांग्रेस पार्टी के लिए वह स्थान बना सकते हैं जिसे विभिन्न क्षेत्रीय दलों ने जातिगत आधार पर वोटों का बंटवारा करके छीन लिया है। वस्तुतः जब उन्होंने 1999 में श्री शरद पवार के साथ अपनी मूल कांग्रेस पार्टी छोड़ी थी तो राजनैतिक क्षेत्रों में आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा गया था कि उनका मराठा क्षत्रप शरद पवार की राजनीति से कोई मेल नहीं बैठता है क्योंकि श्री पवार का कांग्रेस छोड़ने और फिर उसमें आने-जाने का पूरा इतिहास है परन्तु श्री पवार ने तब एेसे भावुक मुद्दे पर शक्तिशाली नेतृत्व से खाली कांग्रेस पार्टी को छोड़ा था जो आम भारतीय के मन में सवाल पैदा कर रहा था कि क्या किसी एेसे व्यक्ति को देश का प्रधानमन्त्री बनाया जा सकता है जाे मूल रूप से भारत में जन्मा न हो और जिसने इस देश की नागरिकता अन्य नियमों के तहत ग्रहण की हो।
जाहिर तौर पर यह विवाद तब की कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी द्वारा एक वोट से वाजपेयी सरकार गिरने के बाद स्वयं सरकार बनाने के दावे से उपजा था। उस समय भारत की राजनीति में यह मुद्दा एक तूफान की तरह उठा था मगर श्रीमती सोनिया गांधी ने इसके बाद जिस तरह अपनी पार्टी कांग्रेस को एक सूत्र में बांधे रखा और संसद में प्रभावशाली विपक्ष के नेता की भूमिका निभाई, उससे भारत वासियों में उनके प्रति किसी प्रकार का संशय नहीं रहा और भारत के प्रति उनकी निष्ठा पर विरोधी पक्ष भी अंगुली नहीं उठा सके मगर कांग्रेस को जो नुकसान होना था वह हो चुका था। श्री अनवर के साथ स्व. पी.ए. संगमा द्वारा भी कांग्रेस छोड़ने से देश में यह सांकेतिक सन्देश श्री पवार भेजने में सफल रहे थे कि वह हिन्दू-मुस्लिम-ईसाई भाईचारे के प्रतीक हैं मगर यह केवल प्रतीकात्मक भाईचारा ही साबित हुआ क्योंकि इसके बाद 2004 के चुनावों में श्रीमती सोनिया गांधी के नेतृत्व में ही कांग्रेस पार्टी ने भाजपा नीत सत्तारूढ़ वाजपेयी सरकार को गद्दी से उतारने में सफलता हासिल की और स्वयं शरद पवार को इसी यूपीए कहे जाने वाले गठबन्धन में शामिल होना पड़ा तब श्री पवार ने कहा कि उनका विरोध प्रधानमन्त्री पद को लेकर था कांग्रेस अध्यक्ष पद को लेकर नहीं जबकि श्रीमती गांधी यूपीए की चेयरमैन थीं और कांग्रेस संसदीय दल की अध्यक्ष भी थीं।
उन्होंने ही डा. मनमोहन सिंह को प्रधानमन्त्री पद के लिए नामांकित किया था और लोकसभा में सदन का नेता श्री प्रणव मुखर्जी को बनाया था। श्री पवार इसी सरकार में शामिल रहे थे अतः 1999 के लोकसभा चुनाव से पहले श्री पवार द्वारा कांग्रेस छोड़ने के मन्तव्य की गुत्थी राजनीतिज्ञ अभी तक नहीं सुलझा सके हैं अतः श्री अनवर का कांग्रेस पार्टी में पुनः प्रवेश करते समय यह कहना कि उन सभी नेताओं को अपनी मूल पार्टी में फिर से आ जाना चाहिए जिन्होंने कभी किसी समय पार्टी छोड़ी थी, बताते हैं कि भारतीय राजनीति में आज नहीं तो कल सिद्धान्तों के ध्रुवीकरण का दौर शुरू हो सकता है मगर वह समय कब आयेगा इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि फिलहाल तो राजनीति सिद्धान्तों के सारे परखचे उड़ाते हुए बे-पर के ही उड़ती दिखाई पड़ रही है, लेकिन यह भी निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि श्री तारिक अनवर के कांग्रेस मंे पुनः प्रवेश से विभिन्न राज्यों में फैले भूतपूर्व कांग्रेसियों में नई ऊर्जा का संचार हो सकता है और अपनी आंखों के सामने ही लोकतन्त्र के मूल सिद्धान्तों के जर्जर होते देखने से उनकी बेजारी उन्हें अपने पुराने जहाज पर उड़ कर बैठने को मजबूर कर सकती है मगर इसके लिए कांग्रेस के वर्तमान नेतृत्व को भी बलिदान देना होगा और योग्य व्यक्तियों को उनकी प्रतिष्ठानुरूप सम्मान देना होगा।
गौर से देखा जाये सभी प्रकार की कांग्रेस पार्टी, जिनके नाम के साथ कांग्रेस लगा हुआ है, के पास वर्तमान लोकसभा के भीतर भी डेढ़ सौ के करीब सांसद हैं यदि ये सब पार्टियां ही एक मंच पर आकर सांझा मोर्चा बना लेती हैं तो विपक्ष की राजनीति खुद-ब-खुद ही कुलांचे मारने लगेगी मगर इसके लिए निजी हितों से ऊपर उठना होगा और कांग्रेस के नेतृत्व को भी अपने ही खींचे हुए दायरे तोड़ने होंगे तथा शशि थरूर जैसे हवा-हवाई नेताओं को उनके कद में लाना होगा। क्योंकि थरूर जैसे बयानबाज नेता कांग्रेस के उन सिद्धान्तों के ही परखचे उड़ा रहे हैं जिनके लिए यह पार्टी जानी जाती थी। यह नहीं भूला जा सकता कि कांग्रेस का गठन आजादी के बाद लागू हुए लोकतन्त्र का लाभ उठाने के लिए नहीं हुआ था बल्कि इस देश को सदियों पुरानी अंग्रेजी दासता से मुक्ति दिलाने और यहां के नागरिकों के आत्मसम्मान को सर्वोपरि रखने के लिए हुआ था। जिसका प्रमाण हमारा संविधान है। राष्ट्र को महान बनाने के लिए भारत ने एेसे महान संस्थानों की स्थापना की जिनसे किसी भी चुनी हुई सरकार के निरंकुश होने पर नियन्त्रण हो सके। अतः क्षेत्रवाद और सम्प्रदायवाद और जातिवाद की सत्ता पाने की बेहोश राजनीति पर लगाम लगाने का कोई सैद्धान्तिक रास्ता तो निकलना ही चाहिए।