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राईट टू एजूकेशन और गरीब

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कानून बनाना उसे लागू करना दो अलग-अलग बातें हैं। पहले भी हम कई बार देख चुके हैं कि सामाजिक हित में कानून तो बहुत अच्छे-अच्छे बनाए गए मगर उन्हें लागू करने में विफलता ही हाथ लगी। अपनी पुस्तक ‘विजन-2020’ में पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम ने ज्ञान या शिक्षा को ही प्रगति का आधार बताया है। उनके अनुसार ‘‘जो देश शिक्षित होगा, वही आगे बढ़ेगा। यह शिक्षा की ही वजह है कि सिलिकॉन घाटी में भारतीय सॉफ्टवेयर इंजीनियरों ने तहलका मचाया और चन्द्रयान-I ने चांद पर पानी तलाश लिया। हालांकि इस कोशिश में दूसरे देश चीन और जापान भी वर्षों से लगे हुए थे।’’

शिक्षा के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। यही वजह है कि देश में शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाया गया आैर इसके तहत प्रावधान यह भी है कि 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों को मुफ्त शिक्षा प्रदान की जाएगी। राजधानी दिल्ली का हाल देख लीजिये। एक प्राइवेट स्कूल ने ईडब्ल्यूएस (आर्थिक रूप से पिछड़ा वर्ग) के एक छात्र को पहली कक्षा में ही बाहर निकाल दिया और उसके अभिभावकों से कहा गया कि उनका बच्चा निःशुल्क शिक्षा के लिए पात्र ही नहीं है क्योंकि वह पढ़ाई में बहुत कमजोर है। राईट टू एजूकेशन कानून 2009 के मुताबिक कोई भी स्कूल कक्षा 7वीं तक न तो किसी बच्चे को निकाल सकता है आैर न ही फेल कर सकता है।

फिर इस कानून में संशोधन भी किया गया था। अगर 5वीं और 7वीं में बच्चा पास नहीं होगा तो भी स्कूल उसे निष्कासित नहीं कर सकते। वह उनकी दोबारा परीक्षा ले सकते हैं। बच्चों को स्कूल से निष्कासित करने वाले स्कूल ने यह भी कहा है कि अगर बच्चे को स्कूल में पढ़ाना है तो उसे पूरी फीस देनी होगी। बच्चे का पिता सब्जी की रेहड़ी लगाता है आैर वह स्कूल की भारी-भरकम फीस नहीं चुका सकता। राईट टू एजूकेशन कानून के तहत ईडब्ल्यूएस छात्रों की पढ़ाई का खर्च राज्य सरकार उठाती है। राज्य सरकार इसके लिए स्कूल को धन भी अदा करती है। फिर पहली ही कक्षा से बच्चे को निकालने का औचित्य ही समझ में नहीं आता।

स्कूल भले ही कोई भी कारण बताए लेकिन राजधानी के प्राइवेट स्कूलों ने शिक्षा के नाम पर आलीशान इमारतें बना रखी हैं जहां गरीबों के बच्चों का पढ़ना बहुत ​मुश्किल है। अगर पहली ही कक्षा में स्कूलों से बच्चों को बाहर कर दिया जाएगा तो फिर राईट टू एजूकेशन कानून का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। यह जरूरी नहीं कि पहली कक्षा में ही हर बच्चा पढ़ाई में तेज हो, हो सकता है कि बच्चों की पढ़ाई में रुचि पैदा करने वाला घर का वातावरण न हो लेकिन शिक्षा प्रदान करने वाले स्कूलों की कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं? इस बात की गारंटी क्या स्कूल दे सकता है कि अगर इस बच्चे को पूरी फीस देकर पढ़ाया जाए तो यह बच्चा पढ़ाई में तेज हो जाएगा। इसका अर्थ यही निकलता है कि जिन बच्चों के अभिभावक भारी-भरकम फीस चुकाते हैं उन्हीं के बच्चों पर स्कूल पूरा ध्यान देते हैं।

ईडब्ल्यूएस बच्चों के लिए दिल्ली सरकार कक्षा एक के लिए 1255 और अन्य शुल्क स्कूलों को अदा करती है। शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने वाला कानून सुनने और पढ़ने में बहुत अच्छा लगता है लेकिन इसे लागू कर पाना अपने आप में बड़ी टेढ़ी खीर है। हर अकादमिक वर्ष से खर्च बढ़ता जाता है। ईडब्ल्यूएस वर्ग में दाखिला लेना भी कोई आसान काम नहीं है। दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग को ऐसी अनेक शिकायतें मिली हैं कि कई निजी स्कूल बच्चों को नर्सरी, केजी और पहली कक्षा में ईडब्ल्यूएस श्रेणी में दाखिला देने से इन्कार कर रहे हैं। ईडब्ल्यूएस के जो बच्चे 9वीं कक्षा में पहुंचे हैं उन्हें प्राइवेट स्कूलों द्वारा पूरी फीस देने के लिए विवश किया जा रहा है। इनमें से अनेक बच्चों ने तो स्कूल ही छोड़ दिया।

इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत को शैक्षिक शक्ति बनाने के लिए शिक्षा अधिकार कानून में जबर्दस्त सम्भावनाएं और क्षमता है लेकिन अगर यह ईमानदारी से लागू ही नहीं किया गया तो फिर इसका फायदा कुछ नहीं होगा। राज्य सरकारों को चाहिए कि इस दिशा में कारगर कदम बढ़ाए जाएं ताकि अमीर और गरीब का बच्चा एक समान शिक्षा प्राप्त करे। प्रतिभाओं के चयन के लिए समान शिक्षा बहुत जरूरी है। अगर अमीरों के बच्चों को शिक्षा की हर सुुविधा उपलब्ध हो और पिछड़े वर्गों के बच्चों को किताबें लेने में ही दिक्कत हो तो फिर प्रतिभाओं के चयन में समान मानदण्ड कैसे तय किए जा सकते हैं।

जरूरी है कि देश और समाज की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए प्राथमिक शिक्षा के तंत्र में बदलाव किए जाएं। इसमें कोई संदेह नहीं कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों में काफी प​रिवर्तन हुआ है। अब गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर ध्यान दिया जा रहा है। परिणाम भी अच्छे हुए हैं। आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा के लिए और शिक्षा संस्थानों की जरूरत है।

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