महात्मा गांधी का स्वतंत्रता आंदोलन तब जनांदोलन के रूप में परिवर्तित हुआ था जब समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति उससे जुड़े। क्रांति शब्द नवनिर्माण और परिवर्तन दोनों का प्रतीक है। सम्पूर्ण क्रांति का नारा जनता के लिए हैै। उसका मोर्चा हर गांव, शहर, कार्यालय, विद्यालय, फैक्टरी श्रमिकों और ठेला चलाने वालों तक है। लोकतंत्र में हर किसी को अपनी आवाज उठाने का हक है। शांतिपूर्ण धरना, प्रदर्शन, भूख हड़ताल करना हमें बापू ने ही सिखाया था। लोक नायक जयप्रकाश भी इसी क्रांति के माध्यम से सरकार, समाज, शिक्षा, चुनाव, विकास की योजना हर चीज में परिवर्तन चाहते थे।
जेपी की मान्यता थी कि क्रांति सरकारी शक्ति से नहीं जनशक्ति से होगी, इसलिए उन्होंने लोक शक्ति को सामाजिक परिवर्तन का साधन बनाया था और यही कारण था कि जेपी ने कोई पद स्वीकार नहीं किया। सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने भी गांधीवादी तरीके से अनशन का मार्ग अपनाया। गांधी जी का पहला सिद्धांत था कि साधन और साध्य की शुद्धता हर हालत में बरकरार रखी जानी चाहिए मगर गांधीवाद के सिद्धांत का जितना दुरुपयोग शाहीन बाग में हुआ, सम्भवतः आजाद भारत में इससे पहले कभी नहीं हुआ। नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में दक्षिणी दिल्ली में लगभग तीन माह से अधिक समय तक चले शाहीन बाग आंदोलन पर तल्ख टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सार्वजनिक स्थल पर अनिश्चितकालीन कब्जा करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। शीर्ष अदालत ने कहा है कि लोकतंत्र और सहमति साथ-साथ चल सकते हैं, मगर इससे सार्वजनिक जीवन बाधित नहीं किया जा सकता। असहमति के लिए संविधान विरोध प्रकट करने का अधिकार तो देता है, लेकिन लोगों को अपना कर्त्तव्य याद रखना चाहिए। शाहीन बाग में धरना-प्रदर्शन के चलते कालिंदी कुंज के पास दिल्ली से नोएडा को जोड़ने वाली सड़क महीनों बंद रही थी। आसपास का कारोबार ठप्प रहा और स्कूली बच्चों को भी कई किलोमीटर घूम कर स्कूल जाना पड़ता था। इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर की गई थीं।
सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने मार्गदर्शक फैसले में यह भी कहा है कि विरोध जताने के लिए सार्वजनिक स्थान और सड़क को बंद नहीं किया जा सकता। सरकारी अधिकारियों को इस तरह के अवरोधों काे समय रहते हटा देना चाहिए था। उन्हें न्यायालय के आदेशों की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए थी। साथ ही कहा कि नागरिकों को धरना-प्रदर्शन करने का अधिकार तो है लेकिन अंग्रेजी राज के दौरान विरोध के तौर-तरीकों को अब दोहराया नहीं जा सकता। लोकतांत्रिक तरीके से किसी व्यक्ति या समूह को अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए प्रदर्शन करने का हक है लेकिन यह अधिकार तभी मजबूत होता है जब उससे आम नागरिकों के अधिकारों पर कोई चोट नहीं पहुंचती हो। शाहीन बाग में प्रदर्शन के चलते आम लोगों के लिए असुविधा पैदा हो गई थी।
अक्सर देखा जाता है कि प्रदर्शन के कारण सड़कों पर लम्बा जाम लग जाता है। रास्ते में मरीजों को लेकर जा रही एम्बुलैंस फंस जाती है। कई बार मरीज रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं। परीक्षा देने वाले परीक्षा केन्द्रों पर समय पर नहीं पहुंच पाते या फिर यात्री हवाई अड्डे और रेलवे स्टेशन पर भी नहीं पहुंच पाते हैं। यही वजह है कि कोर्ट को कहना पड़ा कि विरोध प्रदर्शन के अधिकार को अभिव्यक्त करने का तो हक है मगर यह आजादी निरंकुश नहीं हो सकती। शासन-प्रशासन यह सुनिश्चित करे कि भविष्य में विरोध प्रदर्शनोें को लेकर मनमर्जी न हो सके।
जामिया मिलिया इस्लामिया में नागरिक संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ प्रोटेस्ट के दौरान छात्रों को खदेड़ने के लिए पुलिस द्वारा किए गए एक्शन के खिलाफ शाहीन बाग में जब धरना शुरू हुआ था तो इसकी बड़ी तारीफ हुई थी। शाहीन बाग धरने की पूरी राजनीति एक तरफ और दादियां एक तरफ। इसी धरने के जरिये लोकप्रिय हुई दादी बिलकिस बानू को तो टाइम पत्रिका ने सबसे प्रभावशाली लोगों की सूची में शामिल किया है। बिलकिस बानू अपनी गर्भवती बहू की देखभाल के लिए दिल्ली आई थी। जो भी टाइम मिलता बिलकिस धरना स्थल पर बिताती रही। उन्हें टीवी, अखबार और वेबसाइट्स पर जगह मिली। लोग इनके साथ सेल्फी लेते। जीवन के 80 वसंत देख चुकी बिलकिस धरने की ब्रैंड एम्बैसडर बन गई थी लेकिन कुछ सवाल तो अब भी बनते हैं। जैसे कानून को आये ठीक-ठाक वक्त गुजर चुका है, अब तक इस कानून का इस्तेमाल कर सरकार ने मुस्लिम समुदाय के किसी भी व्यक्ति की नागरिकता नहीं छीनी, सभी लोग पहले की तरह रह रहे हैं तो दादी को बताना चाहिए कि आखिर धरना किस लिए हुआ था।
एक बुजुर्ग के रूप में हम सब दादी का पूरा सम्मान करते हैं लेकिन हमने प्रदर्शनकारियों का वो चेहरा देखा जो न केवल भयानक था बल्कि जिसके कारण हमने निर्दोष लोगों की लाशें देखीं। यह भी याद रखना होगा कि इलैक्ट्रानिक मीडिया पर रात-दिन एक ही आवाज लगाते रहने से आंदोलनकारी पैदा नहीं होते बल्कि तमाशाई पैदा होते हैं। जब कानून से मुस्लिम प्रभावित नहीं हो रहे तो फिर कानून को काला क्यों कहा गया। असहमति, विरोध और आंदोलन किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था और समाज की खूबसूरती है और इससे देश और समाज मजबूत होता है, लेकिन यह भी देखना होगा कि इससे आम जनता को परेशानी न हो।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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