वैध मतदाताओं के अधिकार !

भारत के संसदीय लोकतन्त्र में आम जनता को बिना किसी भेदभाव के मिला एक वोट का संवैधानिक अधिकार सबसे बड़ा अधिकार है जिसकी बुनियाद पर पूरी जनतान्त्रिक व्यवस्था टिकी हुई है
वैध मतदाताओं के अधिकार !
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भारत के संसदीय लोकतन्त्र में आम जनता को बिना किसी भेदभाव के मिला एक वोट का संवैधानिक अधिकार सबसे बड़ा अधिकार है जिसकी बुनियाद पर पूरी जनतान्त्रिक व्यवस्था टिकी हुई है अतः जब किसी नागरिक को अपने इस अधिकार का प्रयोग करने से पुलिस ही रोक रही हो तो उसे संवैधानिक व्यवस्था के चरमराने की स्थिति कहा जायेगा। पुलिस के सम्बन्ध में साठ के दशक में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश ‘स्व. आनन्द नारायण मुल्ला’ ने जब यह टिप्पणी की थी कि यह वर्दीधारी गुंडों का सबसे बड़ा अमला है तो पूरे देश में उस समय खलबली मच गई थी और पुलिस प्रणाली में संशोधन करने की बहस शुरू हो गई थी। हम आज 2024 में जी रहे हैं और साठ वर्ष बाद उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में कई जिलों से यह खबर मिल रही है कि खुद पुलिस ने मुज्जफरनगर, कानपुर व मुरादाबाद जिलों के उपचुनाव क्षेत्रों में जायज मतदाताओं को अपने वोट का इस्तेमाल करने से इसलिए रोका क्योंकि वे एक विशेष समुदाय मुस्लिम से सम्बन्ध रखते हैं तो हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि पुलिस स्वयं कानून तोड़ने वालों की भूमिका में आ गई। जब पुलिस ही कानून तोड़ने लगे तो कानून की रक्षा कौन करेगा। जब रक्षक ही स्वयं भक्षक हो जाये तो कानून का राज किस तरह चलेगा?

हमें नहीं भूलना चाहिए कि यह अंग्रेजों का राज नहीं बल्कि स्वयं भारतीयों का राज चल रहा है मगर पुलिस पूरी तरह अंग्रेजी राज की तरह अपने आकाओं के हक में काम कर रही है जबकि स्वतन्त्र भारत में पुलिस अपना काम संविधान की शपथ लेकर ही शुरू करती है और कानून का पालन कराने में उसे इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि किस राजनैतिक पार्टी की हुकूमत है। यदि लोकतन्त्र में पुलिस का भी राजनीतिकरण हो जायेगा तो लोकतन्त्र दम तोड़ने की स्थिति में आ जायेगा। मुजफ्फरनगर जिले की मीरापुर विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में जिस तरह इसके एक कस्बे ककरौली के थानेदार ने मुस्लिम मतदाता स्त्री व पुरुषों को मतदान करने से रोकने का प्रयास किया, वह बताता है कि इस इलाके की पुलिस ने खुद कानून तोड़कर अपने उस चरित्र का प्रदर्शन किया जिसका उल्लेख न्यायाधीश मुल्ला ने साठ के दशक में किया था। ठीक एेसा ही काम पुलिस ने जिला मुरादाबाद की सीट कुन्दरकी व कानपुर की सीसामऊ में भी किया । इन दोनों उपचुनाव क्षेत्रों में भी मुस्लिम मतदाताओं को वोट देने से पुलिस ने रोका।

भारत का संविधान पुलिस को चुनाव प्रक्रिया के दौरान केवल कानून-व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त बनाये रखने की जिम्मेदारी देता है और यह कार्य वह चुनाव आयोग की निगरानी में करती है। इसलिए चुनाव आयोग से जब समाजवादी पार्टी के नेता श्री अखिलेश यादव ने सबूत के साथ इस बारे में शिकायत की तो आयोग के सामने दोषी पुलिस कर्मियों के खिलाफ कार्रवाई करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा था। क्योंकि भारत का संविधान चुनाव आयोग को शान्तिपूर्वक चुनाव सम्पन्न कराने का अधिकार इस प्रकार देता है कि ये पूरी तरह निष्पक्ष व स्वतन्त्र हों और प्रत्येक वैध मतदाता को अपने वोट के अधिकार का प्रयोग करने की वैधानिक छूट हो। मगर जब पुलिस ही इस काम में अड़ंगा लगाने लगे तो दोषी पुलिसकर्मियों के विरुद्ध चुनाव आयोग को सख्त कदम उठाने पड़े और पांच पुलिसकर्मियों को निलम्बित करना पड़ा। सवाल यह है कि पुलिस को एेसा काम करने की हिम्मत कहां से मिल रही है। निश्चित रूप से इसके कारण राजनीतिक ही हो सकते हैं क्योंकि भारत की समूची व्यवस्था राजनीतिक तन्त्र के तहत ही चलती है। इसलिए बहुत जरूरी है कि सभी राजनैतिक दल पुलिस को राजनीति से निरपेक्ष करने हेतु जरूरी कदम उठाने पर मतैक्य कायम करें।

लोकतन्त्र में नागरिकों को एक वोट का अधिकार हमारे स्वतन्त्रता सेनानियों द्वारा किये गये लम्बे संघर्ष के बाद मिला है। अंग्रेजों की दो सौ वर्ष की गुलामी के बाद इसी वोट के माध्यम से भारत का मजदूर लोकतन्त्र का ‘राजा’ घोषित किया गया था तभी चुनावों के मौके पर देश का प्रधानमन्त्री तक उसके समक्ष याचक बन कर खड़ा रहता है। यदि पुलिस उसके इसी अधिकार पर डाका डालने की कोशिश करेगी तो पूरा लोकतन्त्र ही दम तोड़ता नजर आने लगेगा और भारत का चुनाव आयोग अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी से ही बरतरफ कर दिया जायेगा। भारत की चुनाव प्रक्रिया न केवल पूरी दुनिया में सबसे बड़ी है, बल्कि पूरे संसार में बहुत पाक-साफ और प्रतिष्ठित भी मानी जाती है। इसकी इज्जत पर यदि जरा सा भी बट्टा लगता है तो यह भारत के सम्मान पर चोट पहुंचाने वाली राष्ट्र विरोधी कार्रवाई होगी। वैसे बुधवार को उत्तर प्रदेश में हुए नौ विधानसभा उपचुनावों के अलावा दो राज्यों महाराष्ट्र व झारखंड में भी चुनाव सम्पन्न हुए और दोनों में ही मतदान प्रतिशत पिछले चुनावों से अधिक हुआ है। इनमें भी ग्रामीण क्षेत्रों में मतदान के लिए भारी उत्साह देखने को मिला।

महाराष्ट्र में पिछले तीस वर्षों में सर्वाधिक 65 प्रतिशत मतदान हुआ जबकि झारखंड में 68.45 प्रतिशत रहा। पिछले लोकसभा चुनावों में महाराष्ट्र में मतदान 61.39 प्रतिशत हुआ था जबकि 2019 के विधानसभा चुनावों में यह 61.40 प्रतिशत था। बेशक शहरी क्षेत्रों में पहले की भांति मतदान प्रतिशत कम था मगर ग्रामीण क्षेत्रों में बढे़ मतदान से यह देखा जा सकता है कि लोगों ने अधिक संख्या में बाहर आकर मतदान करना उचित समझा। मतदान अधिकाधिक कराने के लिए स्वयं चुनाव आयोग बहुत अधिक प्रयास करता है और बाकायदा प्रचार अभियान भी चलाता है मगर दूसरी तरफ यदि पुलिस लोगों को अकारण केवल उनके धर्म के आधार पर प्रताड़ित करते हुए उन्हें वोट डालने से रोकती है तो यह समूचे लोकतन्त्र के प्रति गंभीर अपराध माना जाना चाहिए। मतदाताओं की शिनाख्त करने का अधिकार केवल चुनाव आयोग के कर्मचारियों के पास होता है और चुनावों के समय प्रत्येक जिलाधीश चुनाव अधिकारी भी होता है। अतः प्रश्न बहुत गंभीर है जिसका हल पूरी गंभीरता के साथ निकाला जाना चाहिए।

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