राजस्थान में स्वास्थ्य का अधिकार को लेकर हड़ताली डाक्टरों और अशोक गहलोत सरकार के मध्य हुए समझौते के बाद इसे लागू करने का मार्ग प्रशस्त हो गया। कई बार नैतिक और कानूनी दृष्टि से अच्छी कई योजनाएं पेशेवर और व्यवसायिक हितों पर आधारित विरोध का शिकार होती रही है। राजस्थान में स्वास्थ्य के अधिकार के खिलाफ उठा विरोध कुछ आधारहीन गलतफहमियों के कारण पैदा हुआ था लेकिन डाक्टरों और राज्य सरकार के बीच महत्वपूर्ण बिल को लेकर सहमति बनना सुखद और संतोषजनक संकेत है। उम्मीद की जाती है कि अब इसे सरकारी और निजी अस्पताल मिलकर सफल बनाएंगे। स्वास्थ्य का अधिकार धरातल पर सफलतापूर्वक लागू होने से ही ‘‘राजस्थान मॉडल ऑफ पब्लिक हेल्थ’’ सामने आएगा।
स्वास्थ्य का अधिकार पूरी तरह से जीवन के अधिकार की संवैधानिक गारंटी और नीति-निर्देशक सिद्धांतों में वर्णित अन्य तत्वों के अनुरूप है। यह एक स्वीकार्य मान्यता है कि स्वास्थ्य संबंधी देखभाल चाहने वाले किसी भी व्यक्ति को पहुंच और सामर्थ्य के आधार पर इससे वंचित नहीं किया जाना चाहिए। राजस्थान का ‘स्वास्थ्य का अधिकार अधिनियम, 2022’’ पहुंच और सामर्थ्य के इन्हीं प्रमुख मुद्दों को इंगित करता है। यह अधिनियम ‘‘राज्य के सभी निवासियों को गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा की गारंटी के माध्यम से सभी के लिए स्वास्थ्य सेवा के लक्ष्य को हासिल करने के वास्ते बिना किसी बेतहाशा खर्च के स्वास्थ्य एवं कल्याण के संदर्भ में अधिकारों की सुरक्षा और उसकी पूर्ति करने का इरादा रखता है।’’ यह कानून जो कि एक ‘सोशल ऑडिट’ और शिकायत निवारण की भी सुविधा प्रदान करता है, राज्य के प्रत्येक निवासी को एक पैसा दिए बिना किसी भी स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने वाले संस्थान से आपातकालीन उपचार पाने का अधिकार देता है और निर्दिष्ट करता है कि स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने वाले निजी संस्थानों को इस किस्म के उपचार पर खर्च होने वाले शुल्क के लिए मुआवजा दिया जाएगा।
राजस्थान स्वास्थ्य का अधिकार विधेयक पारित करने वाला पहला राज्य बन गया है, जो राज्य के प्रत्येक निवासी को सभी सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में ओपीडी सेवा और रोगी विभाग (आईपीडी) सेवाओं का मुफ्त लाभ उठाने का अधिकार देता है। यह एक प्रकार से प्रगतिशील कानून है। जो संविधान के अनुच्छेद-47 में नीति निर्देशक तत्व के अधीन स्वास्थ्य और कल्याण के अधिकार और उनकी पूर्ति और अनुच्छेद-21 के तहत स्वतंत्रता के अधिकार की विस्तारित परिभाषा के अनुरूप स्वास्थ्य के अधिकार को सुनिश्चित करता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण एक बढ़ती हुई वास्तविकता है। स्वास्थ्य के अधिकार को लागू करने के लिए निजी क्षेत्र की भूमिका को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। यह कानून बहुत बड़े बदलाव ला सकता है।
स्वास्थ्य का अधिकार मानव गरिमा का एक अनिवार्य घटक है। 1989 में परमानंद कटारा बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि प्रत्येक डाक्टर चाहे वह सरकारी अस्पताल में हो या अन्य कहीं, जीवन की रक्षा के लिए उचित विशेषज्ञता के साथ अपनी सेवाएं देना उसका पेशेवर दायित्व है। 1996 में पश्चिम बंगाल खेत मजदूर समिति मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एक कल्याणकारी राज्य में सरकार का प्राथमिक कर्त्तव्य लोगों का कल्याण सुनिश्चित करना और उन्हें पर्याप्त चिकित्सा सुविधा प्रदान करना है। यद्यपि हैल्थ सैक्टर में लगातार सुधार हो रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद देश के ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढांचा अभी अपर्याप्त है।
भारत में एक हजार लोगों पर बैड की संख्या 140 है। 1445 लोगों के लिए केवल एक डॉक्टर है। 75 फीसदी से अधिक हैल्थकेयर इन्फ्रास्टर्क्चर मैट्रो शहरों में केन्द्रित है, जहां कुल आबादी का केवल 27 फीसदी रहता है। 73 फीसदी भारतीय आबादी में बुनियादी चिकित्सा सुविधाओं का अभाव है। यद्यपि देश में नए एम्स बनाए जा रहे हैं। कोरोना महामारी के दौरान हमें बहुत कुछ सीखने को मिला है। अभी इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना बाकी है। लेकिन इतना जरूर है कि राजस्थान ने जो पहल की है वह अनुकरणीय है। मानव जीवन को बचाने के लिए प्रत्येक राज्य को इसका अनुकरण करना चाहिए। इस कानून को पूरे देशभर में लागू किया जाए तो देश का चिकित्सा परिदृश्य ही बदल जाएगा। राज्य सरकारों की गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ गरीब जनता को और हाशिये पर खड़े लोगों को मिलेगा तो ही स्वास्थ्य के अधिकार का सपना पूरा होगा। निजी क्षेत्र हमेशा अपने लाभ को देखता है। मरीजों को अनाप-शनाप बिल थमाना उनकी दिनचर्या बन चुका है। जब तक निजी क्षेत्र सेवाभाव को नहीं अपनाता तब तक यह योजना फलीभूत नहीं होगी। जरूरी है कि इसके लिए सरकार और निजी क्षेत्र लगातार संवाद और जुड़ाव बनाए रखें। फिर धीरे-धीरे एक आदर्श मॉडल हमारे सामने आ जाएगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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