अन्ततः महाराष्ट्र में त्रिगुट (कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस-शिवसेना) की सरकार गठित होने जा रही है जिसके मुखिया श्री उद्धव ठाकरे होंगे। 26 जून, 1966 को मुम्बई के शिवाजी पार्क में बमुश्किल 15 हजार लोगों की हाजिरी में स्व. बाल ठाकरे ने जिस शिवसेना का गठन ‘महाराष्ट्र मराठियों का’ के उत्तेजक नाद के साथ किया गया था वह पिछले 64 वर्षों में घूम फिर कर ‘ठाकरे परिवार’ की राजनीतिक पार्टी में तब्दील होकर राज्य की राजनीति को मराठी मानुष के घेरे में बांधते हुए ‘हिन्दुत्व’ के उग्र स्वरों को अपना स्थान बनाने में इस तरह सफल रही कि उसने भारतीय जनता पार्टी के अपेक्षाकृत मर्यादित हिन्दुत्व को ही चुनौती देते हुए सत्ता में हिस्सेदारी अपनी शर्तों पर तय की और एक समय में मुम्बई में ‘डान’ के खिताब तक से नवाजे गये नारायण राने को राज्य का मुख्यमन्त्री तक बना डाला।
हालांकि श्री राने केवल साढे़ आठ महीने ही मुख्यमन्त्री रहे मगर इसका खामियाजा शिवसेना को इतना जबर्दस्त चुकाना पड़ा कि इसके बाद 1999 से 2014 तक पूरे 15 साल तक राज्य में कांग्रेस व श्री शरद पवार की स्थापित राष्ट्रवादी कांग्रेस का शासन रहा। शिवसेना की 2014 के विधानसभा चुनावों में वापसी भाजपा के द्वारा कांग्रेस के खिलाफ छेड़े गये दुर्दान्त अभियान के साये में ही संभव हो सकी। हालांकि इन चुनावों में भाजपा ने शिवसेना को बुरी तरह पछाड़ कर विधानसभा में सबसे ज्यादा सीटें जीत कर पहले नम्बर की पार्टी बनने का रुतबा हासिल किया। दरअसल इसी वर्ष के लोकसभा चुनावों के बाद श्री नरेन्द्र मोदी के प्रधानमन्त्री बनने पर उनकी लोकप्रियता का यह कमाल था। 2014 के विधानसभा चुनाव हालांकि भाजपा व शिवसेना ने अलग-अलग लड़े थे मगर यह लड़ाई मित्रवत थी।
अर्थात दोनों ही दलों ने एक-दूसरे के असरदार इलाकों में अपने-अपने प्रत्याशी उतारने में कंजूसी बरती थी। वास्तव में यह शिवसेना को पहला जबर्दस्त झटका था जब उससे राज्य की वैकल्पिक सत्तारूढ़ पार्टी होने का हक भाजपा ने छीन लिया था। बिना शक 2019 के विधानसभा चुनाव शिवसेना ने भाजपा के साथ गठबन्धन बना कर लड़े मगर इन चुनावों में भाजपा के दो बड़े नेताओं सर्वश्री नरेन्द्र मोदी व अमित शाह द्वारा रखा गया चुनावी विमर्श ही भाजपा-शिवसेना की ‘महायुति’ का एजेंडा बना जो कि जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को समाप्त करना व तीन तलाक कानून को लागू करना था। एक प्रकार से भाजपा ने इन चुनावों में शिवसेना की उस जमीनी ताकत का आंशिक अधिग्रहण कर लिया था जो पिछले छह दशकों से इसका जनाधार था मगर यह कार्य भी प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता के बूते पर ही हुआ था जिसकी वजह से शिवसेना के सर्वेसर्वा उद्धव ठाकरे को भाजपा की ‘लटकन’ बनने का डर पैदा हो गया था।
वरना पूरा चुनाव ही भाजपा-शिवसेना ने संयुक्त रूप से श्री मोदी की लोकप्रियता के बूते पर लड़ा था। राजनीति का यह सुस्थापित नियम होता है कि कोई भी कार्य बिना वजह या अकारण नहीं किया जाता। अतः चुनावों में भाजपा-शिवसेना को स्पष्ट रूप से पूर्ण बहुमत मिलने के बावजूद शिवसेना द्वारा ढाई साल तक मुख्यमन्त्री पद अपने पास रखने की शर्त लगाना, उसकी ताकत का नहीं बल्कि कमजोरी का परिचायक था जिसका लाभ उठाने में इसके विरोधी खेमे के ‘चतुर-सुजान’ राजनीतिज्ञ कहे जाने वाले श्री शरद पवार ने कोई गलती नहीं की।
अतः महाराष्ट्र की महान लोक नाट्य परंपरा ‘तमाशे’ के एक भाग का अन्त हो जाने के बाद शिवसेना के नेता उद्धव ठाकरे के ‘त्रिगुट’ सरकार का मुख्यमन्त्री बनाना इस सरकार को मजबूती दे सकता है और इसका कार्यकाल अपेक्षा से अधिक लम्बा खिंच सकता है, इसी में गृहमन्त्री श्री अमित शाह के उस सवाल का जवाब का उत्तर छिपा हुआ है जो उन्होंने आज रिपब्लिक टीवी के शिखर सम्मेलन में बेबाक तरीके से रखा और पूछा कि जब कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस ने मिल कर गठबन्धन रूप में चुनाव लड़ा था और इसके संयुक्त विधायकों की संख्या शिवसेना के 56 विधायकों की संख्या 56 के मुकाबले 98 है तो फिर मुख्यमन्त्री इस गठबन्धन के किसी सदस्य की जगह शिवसेना से क्यों बनाया गया है?
यह बहुत वाजिब और तार्किक सवाल है। साझा सरकारों की भीतरी सौदेबाजी का खुलासा भी यह सवाल बेलौस तरीके से करता है। मगर इसके उत्तर में कई और सवाल खड़े होते हैं और ऐसे सवाल खड़े होते हैं जिनका सम्बन्ध संसदीय लोकतन्त्र में जनादेश की सुविधाजनक अवमानना से सीधे जाकर जुड़ता है क्योंकि यह तो दीवार पर लिखी साफ इबारत है कि महाराष्ट्र की जनता का फैसला हर नुक्त-ए-नजर से भाजपा के पक्ष में ही आया है। संभवतः यही कारण रहा होगा कि भाजपा ने राकांपा के अल्पकालिक विद्रोही नेता अजीत पवार के समर्थन के बूते पर पुनः अपनी सरकार बनाने का जोखिम लिया और उसे असफलता हाथ लगी, परन्तु उद्धव ठाकरे ने मुख्यमन्त्री पद स्वीकार करके जनादेश के विरुद्ध जाने का बहुत बड़ा जोखिम भी लिया है।
पूरे सियासी खेल में फिलहाल भाजपा के हाथ से बाजी छिन चुकी है मगर दीर्घकाल में इसका लाभ भाजपा को स्वाभाविक तरीके से मिलेगा। मैं जानता हूं आज मेरे इस तर्क से जोश में आये विपक्षी दलों के नेता किसी भी तरह सहमत होना नहीं चाहेंगे मगर एक बात का जवाब तो उन्हें देना ही होगा इस पूरे खेल में तमाशबीन बने ‘गरीब’ देवेन्द्र फडणवीस क्या गुनाह है कि उनके ही नेतृत्व में शिवसेना ने चुनाव लड़ा और उन्हीं के नेतृत्व को जनता ने पूर्ण बहुमत भी दिया और फिर भी वह कसूरवार हो गये ? इसलिए असली सियासी जंग तो अब शुरू होगी।
दिखाऊंगा तमाशा दी अगर फुर्सत जमाने ने
मेरा हर दागे दिल इक तुख्म है सर्वे चरागां का।