अब से लगभग 15 वर्ष पहले ‘ब्रिक्स’ संगठन का जो पौधा चालू समय के राजनेता ( स्टेट्समैन) माने जाने वाले स्व. प्रणव दा ने संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा की बैठकों से इतर रूस, चीन, द. अफ्रीका व ब्राजील के विदेश मन्त्रियों के साथ हुई अपनी अनौपचारिक बातचीत के दौरान लगाया था आज वह पूरा ‘वट वृक्ष’ बन गया है और दक्षिणी दुनिया समूह के प्रमुख माने जाने वाले सभी देश इसका हिस्सा बनना चाहते हैं। ब्रिक्स में ब्राजील, भारत, चीन, रूस व द. अफ्रीका देश शामिल हैं और यह संगठन फिलहाल विश्व अर्थव्यवस्था का इंजिन माना जाता है क्योंकि सभी शामिल देशों की अर्थव्यवस्था तेजी से विकास करते देशों में गिनी जाती है। स्व. प्रणव मुखर्जी भारत के राष्ट्रपति तो रहे ही मगर साथ ही वित्त मन्त्री से लेकर रक्षामन्त्री और विदेश मन्त्री तक रहे और बहुत ही अल्पकाल के लिए डा. मनमोहन सिंह के शासन के दौरान व कार्यकारी प्रधानमन्त्री भी तब रहे जब डा. मनमोहन सिंह स्वास्थ्य कारणों से ‘आपरेशन टेबल’ पर थे। ‘भारत रत्न’ प्रणव दा ऐसे सफल और दूरदर्शी कूटनीतिज्ञ भी थे जो अगले पचास वर्षों में बदलती दुनिया का नक्शा देख रहे थे और उसी के अनुसार भारत की नीतियों का निर्धारण भी कर रहे थे।
राष्ट्रसंघ में अमेरिका समेत पश्चिमी यूरोपीय देशों के दबदबे को देखते हुए उन्होंने तभी आह्वान कर दिया था कि राष्ट्रसंघ का ढांचागत परिवर्तन होना चाहिए और बदलते वैश्विक आर्थिक क्रम में भारत को विश्व बैंक से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे वित्तीय संस्थानों में भी वाजिब तवज्जो दी जानी चाहिए। आज 15 साल में चीजें जिस तरह बदल रही हैं वे हमारे सामने हैं। जहां तक ब्रिक्स का सम्बन्ध है तो भारत इसे गैर पश्चिमी देशों का एक समूह कहता है और चीन, अमेरिका विरोधी गुट के रूप में प्रस्तुत करने से नहीं हिचकता है। भारत की राय में यह बहुल ध्रुवीय विश्व क्रम का एक नमूना है जिसका किसी विशेष देश या गुट के विरोध से कोई ताल्लुक नहीं है। जब ब्रिक्स का गठन हुआ था तो ‘पंजाब केसरी’ में तभी प्रथम पृष्ठ पर प्रमुखता से यह खबर छपी थी कि ब्रिक्स दुनिया के सात में से चार महाद्वीपों का संपुष्ट महागठबन्धन साबित होने की क्षमता रखता है। अब यह अवधारणा पुष्ट व मजबूत हो गई है क्योंकि पांच देशों के इस संगठन में फिलहाल कम से कम 19 और देश बेताबी के साथ अपनी शिरकत चाहते हैं जिनमें दक्षिण अमेरीकी महाद्वीप के अर्जेंटीना, निकारागुआ, मेक्सिको, उरुग्वे, वेनेजुएला। अफ्रीका महाद्वीप के नाइजीरिया, अल्जीरिया, मिस्र, सेनेगल व मोरक्को। एशिया के पश्चिमी क्षेत्र से सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, तुर्की, सीरिया व ईरान। मध्य एशिया से कजाखस्तान। दक्षिण एशिया से बांग्लादेश व अफगानिस्तान और दक्षिण-पूर्व एशिया से इंडोनेशिया व थाईलैंड।
कल्पना कीजिये कि यदि ये सब देश ब्रिक्स के छाते के नीचे आ जायेंगे तो विश्व अर्थव्यवस्था में इनकी हिस्सेदारी क्या होगी क्योंकि इन सभी देशों पर आज पूरी दुनिया की आर्थिक प्रगति व गति निर्भर करती है। ब्रिक्स संगठन की अध्यक्षता इस वर्ष द. अफ्रीका को करनी है और अगस्त महीने में इसका शिखर सम्मेलन इस देश में होगा जिसमें शिरकत करने प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी जायेंगे। मगर विगत शुक्रवार को द. अफ्रीका ने ब्रिक्स के मित्र देशों का सम्मेलन किया जिसमें भाग लेने भारत के विदेश मन्त्री श्री एस. जयशंकर भी गये थे। इस सम्मेलन में ब्रिक्स देशों के अलावा 15 ऐसे देशों ने भाग लिया जिन्हें दक्षिणी दुनिया का हिस्सा कहा जाता है। दरअसल ब्रिक्स के इस वर्ष अगस्त महीने में होने वाले सम्मेलन का मुख्य एजेंडा इसका विस्तार व ‘बहुध्रुवीय विश्व संरचना’ होगा। यह एजेंडा हमें संकेत देता है कि आने वाला समय ऐसे उभरते हुए देशों का होगा जो अपने विकास के लिए अंतर्सम्बन्धी आपसी भाईचारे पर निर्भर रहते हुए वैश्विक विकास को नई गति देंगे। इनमें वेनेजुएला व ईरान जैसे तेल उत्पादक देश भी शामिल होंगे। साथ ही ये देश किसी खतरे का मिलजुल कर इस तरह मुकाबला कर सकते हैं कि उन्हें अपने विरोध में खड़े समूह या गुट से कोई गंभीर चुनौती न मिल सके।
रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते पूरी दुनिया के सामने पश्चिमी यूरोपीय देशों व अमेरिका के एक साथ खड़े होकर नाटो सन्धि देशों की आड़ में जिस तरह की स्थिति बनी उससे एशिया, अफ्रीका व द. अमेरिकी या लैटिन अमेरिकी देशों के सामने अजीब कशमकश के हालात पैदा हो गये थे। ब्रिक्स ऐसी वारदातों का सन्तुलन साबित होने की क्षमता रखता है। जहां तक भारत का सवाल है तो वह अमेरिका के साथ भी अपने सम्बन्ध सुधारना चाहता है और साथ ही बहु ध्रुवीय विश्व संरचना को भी उबरते हुए देशों के हित में समझता है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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