हर रोज सुबह-सवेरे समाचार पत्रों के पन्ने पलटते ही हमें हादसों की घटनाओं का सामना करना पड़ता है। टीवी चैनल देखें तो हादसों के दिल दहला देने वाले दृश्य दिखाई देते हैं। कुछ क्षण बाद कोई बड़ी खबर पुरानी खबर की जगह ले लेती है आैर हम भी हादसा तो हादसा है यह बुदबुदाकर कामकाज में जुट जाते हैं। सड़क हादसों के करीब खड़े लोग यह कहकर आगे बढ़ जाते हैं कि अनहोनी को कौन टाल सकता है। ईश्वर ने इसकी मौत ऐसे ही लिखी थी। सुबह लोग घर से दफ्तर के लिए निकलते हैं, कोई बच्चों को स्कूल छोड़ने के लिए निकलते हैं, कोई घूमने के लिए निकलता है लेकिन वह सड़कों पर तेज रफ्तार कारों, ट्रकों या अन्य किसी वाहन से कुचल दिए जाते हैं। भारत में सबसे ज्यादा लोग बस चलते-चलते ही मारे जाते हैं।
गुरुवार को ही लोकसभा में एक प्रश्न के उत्तर में सड़क परिवहन राज्यमंत्री मनसुख मांडविया ने बताया कि 2015-2017 के दौरान देश में हुए सड़क हादसों में करीब 4.45 लाख लोगों की मौत हो गई और 14.65 लाख लोग घायल हुए हैं। 2015 में 5 लाख से अधिक हादसे हुए जिनमें 1,46,133 लोग मारे गए, 2016 में भी डेढ़ लाख से ज्यादा और 2017 में भी 1,47,913 लोगों की मौत हुई। क्या सड़क हादसों में मरने वालों की संख्या देश की यातायात व्यवस्था पर सवाल नहीं खड़े कर रही? देश में आतंकवाद, नक्सलवाद, प्राकृतिक आपदाओं, अपराध या बीमारी से इतने लोग नहीं मरते जितने सड़क हादसों में मर जाते हैं। पहाड़ी राज्यों में बसों का गहरी खाई में लुढ़क जाने की घटनाएं लगातार सुनने को मिल रही हैं। सर्दियों में धुंध के चलते दर्जनों वाहन आपस में टकरा जाते हैं तो लोग मर जाते हैं। आखिर हमारी संवेदनाएं सड़क हादसों को लेकर क्यों ठण्डी पड़ी रहती हैं? दरअसल सड़क हादसों को हम इसलिए नजरंदाज कर देते हैं क्योंकि इसके पीछे छिपा है नियतिवादी मनोविज्ञान।
आमतौर पर आम भारतीय सड़क हादसों को महज हादसा मानकर संतोष कर लेता है। सड़क हादसे हाेते क्यों हैं? इस सवाल के जवाब में लोग सड़क परिवहन व्यवस्था को कोसते हैं और कहते हैं कि सड़क पर गड्ढे हैं, न रोशनी है, ड्राइवरों को पूरी ट्रेनिंग नहीं, ट्रैफिक नियमों का पालन नहीं किया जाना, बस ड्राइवर शराब पीकर लापरवाही से ड्राइविंग करते हैं। लोग 100 कारण गिनवा देते हैं लेकिन समाज कभी खुद अपने भीतर झांककर नहीं देखता कि आखिर वह सड़क हादसों से बचने के लिए स्वयं क्या कर रहा है? धनी परिवारों के बच्चे शराब के नशे में धुत्त होकर सड़क के किनारे सो रहे गरीब मजदूरों पर अपनी चमचमाती कार चढ़ा देते हैं, उत्साही कालेज छात्र ओवरटेक करने के चक्कर में दुर्घटना का शिकार हो जाते हैं और उनकी कार की टक्कर से लोग मारे जाते हैं या घायल हो जाते हैं। अब स्कूलों और कुकुरमुत्तों की तरह उग आए कोचिंग सैंटरों के बाहर स्कूटी सवार छात्र-छात्राओं को तेज रफ्तार से रेस लगाते देखा जा सकता है। कभी-कभी सड़कें इन बच्चों को भी निगल जाती है। जिन्दगी में रफ्तार उतनी ही अच्छी होती है जिस पर नियंत्रण रखा जा सके। जब रफ्तार नियंत्रणहीन हो जाए तो फिर यह मौत का कारण बनती है। बड़े-बड़े घरों के नाबालिग बच्चे जब 100-125 की स्पीड से सड़कों पर कारों को दौड़ाते हैं तो उनके परिवारों को सोचना होगा कि यह रफ्तार उनके बच्चों को देती क्या है?
भारत के दो रूप हैं। एक धनी इंडिया है तो दूसरी तरफ गरीब भारत है। तेज रफ्तार के चलते कुचलने वाला भी भारतीय है और कुचला जाने वाला भी भारतीय है। मामूली सी टक्कर होने पर गोलियां चल जाती हैं और लोगों को मार दिया जाता है। रफ्तार की हवस ने लोगों को अंधा बना दिया है। रोडरेज की घटनाएं भी खतरनाक ढंग से बढ़ रही हैं। सड़क सुरक्षा के लिए एक व्यापक कानूनी ढांचे की जरूरत है। सड़क परिवहन पर नियंत्रण रखने के लिए मोटर वाहन अधिनियम 1988 को लागू किए भी तीन दशक बीत गए लेकिन यह कानून आज भी हकीकत से परे है। 1990 के दशक में भारतीय सड़कों पर वाहनों की संख्या 3 करोड़ के पार थी जो आज बढ़कर 15 करोड़ से ज्यादा हो गई है। वाहनों की लगातार बढ़ती संख्या ने भी भारतीय सड़कों को मृत्युपथ बना डाला है।
हैरानी इस बात की है कि डेढ़ लाख लोगों का हर वर्ष मौत का शिकार होना कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं बनता। यह संख्या एक छोटे से कस्बे के बराबर है। इसका अर्थ यही है कि हम हर वर्ष एक कस्बा सड़क हादसों में खो देते हैं। जनता और राजनीतिक दल इसे चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बनाते? डेढ़ लाख मौतों का अर्थ इतने ही पिरवारों में जीवनभर के लिए मातम का छा जाना है। आज हालत यह है कि घर से बाहर जा रहा व्यक्ति सकुशल वापस आएगा या नहीं, यह विश्वास कोई नहीं दिला सकता। 80 फीसदी सड़क दुर्घटनाएं वाहन चालकों की गलती से होती हैं। सड़क हादसों पर लगाम लगाने के लिए वाहन चालकों को प्रशिक्षण के साथ-साथ सड़क सुरक्षा नियमों की पालना बहुत जरूरी है। युवा पीढ़ी को चाहिए कि वह गति सीमा का पालन करें और ड्राइविंग के समय मोबाइल फोन का प्रयोग न करें। अभिभावकों को भी नाबालिगों के हाथ में कार की चाबी नहीं थमानी चाहिए। देशभर में सड़क सुरक्षा नियमों को सख्त बनाया जाए। विदेशों की तर्ज पर ही दुर्घटना होने पर ड्राइविंग लाइसेंस निलम्बित किए जाने के नियम लागू किए जाने चाहिए।