जब समाजवादी पुरोधा स्व. डा. राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि जिन्दा कौमें कभी पांच साल इंतजार नहीं करती हैं तो उनका मतलब सिर्फ इतना सा था कि लोगों की चुनी हुई संसद मुल्क के सामने आये मसलों को आगे किसी भी बहाने से टाल नहीं सकती है। डा. लोहिया ऐसी हस्ती थे जो अमेरिका जैसे मुल्क में वहां के काले नागरिकों को बराबरी का अधिकार दिलाने के लिए साठ के दशक के शुरू में शिकागो शहर में प्रदर्शन करने गये थे। उन्हीं का कहना था कि जब भी भारत की सड़कों पर कोहराम मचा होगा तो भारत की संसद बिल्कुल शान्त नहीं बैठ सकती है। सवाल विपक्ष और सत्ता पक्ष का नहीं होता बल्कि उन नागरिकों का होता है जिन्होंने संसद में बैठने वालों को अपने वोट से चुन कर भेजा होता है।
ये मतदाता ही संसद के मालिक होते हैं क्योंकि उन्हीं के दम से संसद में बहुमत की सरकार बनती है जिसका धर्म और कर्त्तव्य भारत के लोगों द्वारा स्वीकार किये गये संविधान के अनुसार कल्याणकारी राज चलाना होता है। कल्याणकारी राज वही होता है जिसमें हर नागरिक की सत्ता में बराबर की भागीदारी होती है। यही संसदीय लोकतंत्र का मूल नियामक होता है परन्तु क्या मंजर बना संसद के दोनों सदनों का लम्बे वक्त के बाद खुलने पर कि लोकसभा में ‘प्रत्यक्ष कर विवाद से विश्वास विधेयक’ पर विचार शुरू कर दिया गया और राज्यसभा में मानव विकास मंत्री भी विधायी कार्य करने के लिए वेद और संस्कृत के ग्रन्थों के उद्धरण देते रहे और उन्हीं की पार्टी के एक सदस्य सत्यनारायण जटिया महऋषि पाणिनी जैसे मनीषी को उद्धृत करके गुरु की महिमा का बखान करते रहे।
बेशक संसद चलाने के अपने नियम होते हैं और उनकी अवमानना करने का मेरा लेशमात्र भी उद्देश्य नहीं है परन्तु केवल इतना सा निवेदन है कि दिल्ली की हिंसा में शिकार बने हजारों नागरिकों का दर्द अगर वरीयता पर उन्हीं की चुनी हुई संसद नहीं उठायेगी तो वे किस दरवाजे पर जाकर माथा फोड़ेंगे। अतः लोकसभा के भीतर भाजपा और कांग्रेस सांसदों का आपस में भिड़ना समस्या का हल नहीं हो सकता। इसी लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष श्री जी. वी. मावलंकर ने कहा था कि ‘‘आने वाली पीढि़यां संसद को इसलिए याद नहीं करेंगी कि इसमें कितने विधेयक पारित हुए और कानून बने बल्कि इसलिए याद करेंगी कि संसद के माध्यम से कितने लोगों के जीवन में बदलाव आया।’’
इसके साथ ही भारत के प्रथम दलित राष्ट्रपति श्री के. आर. नारायणन ने लोकतांित्रक व्यवस्था में विसंगतियों के समाहित हो जाने पर जो कहा था वह प्रत्येक राजनैतिक दल से लेकर सत्ता करने वाले संगठनों को हमेशा सही राह दिखाता रहेगा। उन्होंने कहा था कि ‘विचारणीय यह है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था असफल हो रही है या हम उसे असफल कर रहे हैं।’ भारत की प्राचीन सभ्यता पर हम गर्व करते हैं मगर वर्तमान में उसी सभ्यता को ‘असभ्य’ बनाने के हम नये तरीके निकाल रहे हैं। जरा कोई जाकर पूछे उत्तर-पूर्वी दिल्ली की बस्तियों में रहने वाले उन मृतकों के घर वालों से, जिनके शव अभी भी गन्दे नालों से निकल रहे हैं, कि उनकी गलती क्या यह थी कि वे किसी खास धर्म को मानने वाले थे? कोई तो जवाब दे कि क्या कोई इंसान भगवान या खुदा के घर अर्जी देकर आता है कि उसे हिन्दू के घर में जन्म देना या मुसलमान के अथवा सिख या इसाई या जैन के?
जो जिसके घर पैदा हो गया वही बन गया मगर संसदीय व्यवस्था में यह जिम्मेदारी संसद की आती है कि वह लोगों को हिन्दू-मुसलमान से ऊपर इंसान की नजर से देखे क्योंकि हमारा संविधान इसी इंसानियत की बुनियाद पर लिखा गया दुनिया का सबसे बड़ा ऐसा कानूनी दस्तावेज है जिसमें समूचे समाज के उत्थान और विकास की व्यवस्था समाहित है। यह संविधान 90 प्रतिशत से भी अधिक तब लिखा गया जब 1947 में भारत के दो टुकड़े मजहब के आधार पर ही हो चुके थे। यह हमारे उन पुरखों की ‘दूरदृष्टि’ नहीं बल्कि ‘दिव्य दृष्टि’ थी जो संविधान सभा में मौजूद थे, यही वजह है कि चार सौ से ज्यादा सफों की जो किताब बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने लिखी उसमें किसी मजहब का नाम एक बार भी नहीं आया जबकि इसकी दिलकश ‘गंगा-जमुनी’ तहजीब की तस्वीरें ज्यादातर सफों पर साया की गईं।
यही तो वह मुल्क है और इसका शहर दिल्ली है जहां मुगलिया सल्तनत के आखिरी दौर में अंग्रेज बहादुर के पास गिरवी रखी गई चांदनी चौक की फतेहपुरी मस्जिद को नगर सेठ छुन्ना मल ने रकम चुका कर छुड़ाया था। सेठ छुन्ना मल की कदीमी हवेलियां आज भी चांदनी चौक में अपनी पुरानी शान-ओ-शौकत को छिपाये बैठी हैं। क्या सेठ छुन्ना मुसलमान हो गये थे! दूसरी तरह उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में मुसलमान नागरिक चुन्ना मियां ने भगवान लक्ष्मी नारायण का मन्दिर तामीर करवाया। क्या वह हिन्दू हो गये थे! हमारी आजादी की लड़ाई लड़नेे वाले महापुरुषों ने लोकतन्त्र बहुत सोच समझ कर आने वाली पीढि़यों की खुशनसीबी के लिए इसलिए अपनाया था जिससे दो सौ साल की अंग्रेजों की गुलामी से बाहर निकले हिन्दोस्तानियों में आत्म सम्मान का भाव जागृत हो सके और वे शान से स्वयं को भारतीय पुकार सकें।
जो लोग खुद की पहचान धर्म से करना चाहते थे उन्होंने पाकिस्तान जाना कबूल किया था मगर किस बेशर्मी के साथ हम पूरी कौम की पहचान को शक के घेरे में चन्द ऐसे नारे लगा कर लाना चाहते हैं जिनमें जुल्मो-सितम की पैरवी खुल कर की जाती है। क्या किसी सभ्य देश में ‘गोली मारो सालों को’ जैसा नारा जनता के गले उतारा जा सकता है लेकिन वह दिन भी याद किया जा सकता है जब कांग्रेस नेता राजीव गांधी की तमिलनाडु में हत्या कर दी गई थी और उनके शव को दिल्ली लाकर जब जुलूस की शक्ल में राजघाट ले जाया जा रहा था तो उस भीड़ में यह नारा लगाया जा रहा था कि ‘राजीव के हत्यारों को जूते मारो सालों को।’
उस समय स्व. चन्द्रशेखर प्रधानमन्त्री थे और उनकी सरकार को जब इसका पता लगा तो उन्होंने कांग्रेसी नेताओं को चेतावनी दी कि लोकतन्त्र में यह जिम्मेदारी किसी के कहने से नहीं निभानी पड़ती बल्कि संविधान की पाकीजगी बरकरार रखने के लिए इसका खुद संज्ञान लेना पड़ता है। अतः आज के माहौल में खुद को शीशे में उतारने से कुछ हासिल नहीं हो सकता। जरूरत इस बात की है कि संसद से सभी दलों के सदस्यों की एक आवाज जाये कि ‘कानून का राज’ ही हिन्दोस्तान का मुस्तकबिल है और इसमें कोई रियायत किसी भी पार्टी की सरकार नहीं दे सकती। इस रोशनी में जो भी खतावार हैं वे सख्त सजा के काबिल होंगे।
चाहे आरिफ पठान हो या कपिल मिश्रा, दोनों को कानून एक ही तराजू पर तोलेगा और उन गुंडों को चुन–चुन कर पकड़ा जायेगा जिन्होंने पूरे दो दिन बेखौफ होकर हजारों लोगों के घरों से लेकर दुकानें और बच्चों के स्कूल जलाये हैं। संसद की पहली जिम्मेदारी यही बनती है। सियासत के लिए और बहुत से मामले हैं उन पर लड़ते रहियेगा। अभी तो इस नौजवान मुल्क हिन्दोस्तान को इंसानियत की रोशनी चाहिए जिसकी पेशेनगोई हमारे रहनुमा करके गये हैंः
कोई तो सूद चुकाये
कोई तो जिम्मा ले
उस इन्कलाब का
जो उधार सा है