जिम्बाब्वे में राजनीतिक संकट गहरा चुका है। सड़कों पर सेना के टैंक उतर चुके हैं। राजधानी हरारे में विस्फोटों की आवाजें सुनाई दी हैं। सेना के जवानों द्वारा राह चलते लोगों को मारने और वाहनों में गोला-बारूद भरने का वीडियो भी सामने आ गया है। 1980 में ब्रिटेन से आजादी के बाद जिम्बाब्वे की सत्ता पर काबिज 93 वर्षीय राबर्ट मुगाबे को नजरबन्द कर दिया गया है। राबर्ट मुगाबे ने उपराष्ट्रपति एमरसन मनांगाग्वा को पिछले साल बर्खास्त कर दिया था। उपराष्ट्रपति की बर्खास्तगी को लेकर राबर्ट मुगाबे और सेना प्रमुख चिवेंगा में टकराव पैदा हो गया था। मनांगाग्वा की बर्खास्तगी से पहले सेना प्रमुख का मुगाबे की पत्नी ग्रेस से कई बार टकराव हुआ था। ग्रेस को अगले राष्ट्रपति के लिए मनांगाग्वा का प्रतिद्वंद्वी माना जा रहा है।
सेना प्रमुख मनांगाग्वा की बर्खास्तगी को रद्द करने की मांग कर रहे थे। यद्यपि सेना किसी तरह के तख्ता पलट से इन्कार कर रही है लेकिन ऐसी स्थिति को तख्ता पलट की कार्रवाई ही माना जाएगा। मुगाबे के 37 वर्ष के शासन का क्या अन्त हो चुका है? इस सवाल का उत्तर कुछ दिनों में स्थिति स्पष्ट होने पर ही मिलेगा। जिम्बाब्वे को पहले रोडोशिया कहा जाता था। राबर्ट मुगाबे राजनीति में आने से पहले एक शिक्षक थे। 1960-64 के दौर में उन्होंने राजनीति में कदम रखा। उन्होंने जिम्बाब्वे अफ्रीकन नेशनल यूनियन पैट्रियाटिक फ्रंट की स्थापना में योगदान किया। रोडोशिया की सरकार ने 1970 में मुगाबे को देशद्रोह के आरोप में जेल भेज दिया जिसके बाद मार्क्सवादी नेता ने सरकार के विरुद्ध सशस्त्र आन्दोलन छेड़ दिया। यह विद्रोह तब थमा जब वे 1980 में पहली बार प्रधानमंत्री बन गए और साल 1988 में वे जिम्बाब्वे के राष्ट्रपति बने। वैसे राबर्ट मुगाबे भूमि सुधारों की वजह से जाने जाते हैं। उन्होंने अपने समर्थकों के साथ पूंजीपतियों की जमीनों को पूंजीहीन श्रमिकों के मध्य हिंसक तरीके से बांटा। जिम्बाब्वे की जमीन की उपजाऊ शक्ति कम थी लेकिन एक समान भूमि वितरण के बाद जिम्बाब्वे काफी हद तक आत्मनिर्भर हो गया। मुगाबे का विवादों से भी पुराना रिश्ता रहा है। उन पर सैकड़ों मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की आवाज कुचलने का आरोप है। उन्होंने कई बार समाचार पत्रों को अपने खिलाफ लिखने पर बन्द कराया और विरोधी स्वरों को दबाने के लिए हिंसा का जमकर सहारा लिया।
मुगाबे अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को दबाने के लिए पुलिस तंत्र का इस्तेमाल करते रहे। उन पर अपने विरोधियों को दबाने के लिए देशद्रोह और समलैंगिकता के आरोप लगाकर जेल भेजने के कई आरोप लगे हैं। 2000 में आम चुनाव में उनकी पार्टी पराजित हुई थी। जिम्बाब्वे जब अनियंत्रित मुद्रास्फीति के दौर से गुजर रहा था उस वक्त मुगाबे के हाथों में देश की कमान थी। देश के स्टेट बैंक ने जरूरत से ज्यादा नोट छाप दिए थे लेकिन उनकी कीमत बेहद कम थी। मजबूर होकर राष्ट्रीय मुद्रा छोड़कर डॉलर अपनाना पड़ा। पिछले वर्ष ही जिम्बाब्वे ने बांड नोट अपनाया तब जाकर सरकारी मुद्रा बदली। स्वतंत्रता सेनानी राबर्ट मुगाबे की सत्ता पर गहरी पकड़ रही। लगभग चार दशकों से देश पर शासन करने वाले मुगाबे पहली बार कमजोर दिखाई दिए। बर्खास्त किए गए उपराष्ट्रपति मनांगाग्वा को अनेक लोग मगरमच्छ भी कहते हैं। पहले वह आजादी की लड़ाई में मुगाबे के सहयोगी रहे, बाद में खुफिया प्रमुख, कैबिनेट मंत्री आैर उपराष्ट्रपति बने। मुगाबे के बाद देश की सत्ता वही सम्भालेंगे, ऐसा माना जा रहा था। राबर्ट मुगाबे की पत्नी ग्रेस उनसे 40 वर्ष छोटी हैं। उन्हें कुशल राजनीतिज्ञ माना जाता है। अपनी शॉपिंग की आदत के कारण गरीबी से जूझ रहे देश में वह लोगों का केन्द्र बिन्दु रहीं। काफी चालाक और खर्चीली होने के बावजूद उन्हें देश के युवा राजनेताओं का समर्थन प्राप्त है। मुगाबे ने अपनी पत्नी को अपना उत्तराधिकारी बनाने के लिए मनांगाग्वा पर धोखाधड़ी आैर अनादर का आरोप लगाकर उन्हें उपराष्ट्रपति पद से हटा दिया। इसे अपनी पत्नी के लिए रास्ता साफ करने के तौर पर देखा गया। इसी वजह से मुगाबे के कई समर्थकों में असंतोष फैल गया।
कभी इस देश को अफ्रीका का ज्वेल कहा जाता था। खेती पर आधारित अर्थव्यवस्था थी आैर अधिकांश देश अफ्रीका के उदर का पोषण करने वाले इस देश को अफ्रीका की ब्रेड बास्केट कहते थे लेकिन न तो गहना बचा, न रोटी की टोकरी। राबर्ट मुगाबे अफ्रीका और अश्वेत समाज के एक मान्य नेता के तौर पर उभरे और उन्हें संसार ने कई सम्मानों से नवाजा, इसमें प्रमुख थे इंग्लैंड का नाईटहुड अवार्ड अाैर भारत का जवाहर लाल नेहरू अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार लेकिन कुछ गलत फैसलों से देश की आर्थिक प्रगति को आघात लगा। देश में एक ही पार्टी का शासन होने से भी असंतोष फैला। मुगाबे धांधलियों के बल पर चुनाव जीतते रहे लेकिन देश गृहयुद्ध में उलझ गया। मुगाबे सत्ता की लालसा को नियंत्रण में रखते तो वे राष्ट्रपिता की तरह पूजे जाते। उनकी पत्नी ग्रेस में भी सत्ता की चाह रही। सत्ता बड़ी निष्ठुर होती है, वह किसी को नहीं बख्शती। बस सत्ता की लालसा ने उन्हें नायक से खलनायक बना डाला। एक बार यदि किसी नेता को गलतफहमी हो जाए कि वही देश का भाग्य विधाता है तो मानिये देश का दुर्भाग्य शुरू हो चुका है। राष्ट्र का भाग्य राष्ट्र की पूजा ही होती है। 93 वर्ष की उम्र में भी उनकी चाहत सत्ता पत्नी को सौंपने की थी। फिलहाल उनका वर्तमान अंधेरे में है। देखना है सियासत क्या करवट लेती है।