क्या गजब का निजाम सुर्खरू हो रहा है कि दायां हाथ बायें हाथ की आजमाइश में अपनी हैसियत को दांव पर लगाकर उसकी रजा पूछ रहा है? मुल्क की सरहदों की हिफाजत में अपनी जान की बाजियां लगाने वाले लोगों से उनका ही जिस्म उनकी संजीदगी की कैफियत मांग रहा है? सितम यह है कि दायां हाथ अपने ही बायें हाथ की इजाजत लेकर यह बेकसी का मंजर मुकम्मिल कर रहा है! यह सनद रहनी चाहिए कि हिन्दोस्तान का मुस्तकबिल कभी भी जुबानी ‘नेजों’ की नोकों से तय नहीं हुआ है बल्कि इस मुल्क की ‘खुदआरा’ नाजों भरी तबीयत से तय हुआ है। क्या कयामत है कि इसी मुल्क के एक सूबे की सरकार अपनी ही मरकजी (केन्द्र) सरकार के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा देती है और मरकजी सरकार अदालत के फरमान का इन्तजार करती है।
जम्मू-कश्मीर में पत्थरबाजों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने का सिला गढ़वाल रेजीमेंट के मेजर आदित्य को यह दिया जाता है कि उन्होंने हिन्दोस्तान के तिरंगे झंडे और मुल्क की अस्मत को ललकारने वाले लोगों के खिलाफ फौजी कानून के तहत क्यों जांबाजी दिखाई? पूरे मुल्क की अवाम जब इसके हुक्मरानों से यह सवाल पूछ रही थी तो मेजर आदित्य के पिता लेफ्टि. कर्नल कर्मवीर सिंह ने सुप्रीम कोर्ट से पूछा कि उनके बेटे की खता क्या यह है कि उसने अपने फर्ज को अंजाम दिया? तो मुल्क की सबसे बड़ी अदालत ने जवाब दिया कि लोगों के वोटों से चुनी हुई सरकार जवाब दे कि मुल्क की हिफाजत करने के अहद से बन्धी फौज की ‘नाफरमानियों’ का यह कौन सा पैमाना है जिस पर एक मेजर की पैमाइश करने का तरीका खोजा गया है?
बेशक अगर नाफरमानी हुई है तो इस मुल्क के रक्षामन्त्री की तरफ से हुई है जिसने जम्मू-कश्मीर सूबे की सरकार को एफआईआर दर्ज करने से नहीं रोका, नाफरमानी हुई है तो उस जम्मू-कश्मीर सरकार की तरफ से हुई है जिसके तीन साल से हुकूमत में काबिज रहने के बावजूद इस सूबे की रियाया में अमनो–अमान की उम्मीद पैदा नहीं हुई है। नाफरमानी अगर हुई है तो उस खुसूसी फौजी कानून की हुई है जिसके तहत हिन्दोस्तान के फौजी पिछले 29 साल से जम्मू-कश्मीर में दहशतगर्दों का मुकाबला कर रहे हैं मगर क्या हुकूमत है और क्या उसका निजामी नजरिया है कि उसने मुल्क की फौज को सूबाई पुलिस के किरदार में खड़ा कर दिया है और ठीक शहरियों के सामने लाकर खड़ा कर दिया है। पिछले 29 साल से कितनी सरकारें आईं और गईं मगर जम्मू-कश्मीर के हालात में बदलाव नहीं आया।
हर सरकार ने इसका इलाज ढूंढने की तजवीज भिड़ाई मगर मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की? आखिर इस मर्ज की कोई न कोई दवा तो होगी। यह मर्ज लाइलाज नहीं हो सकता लेकिन सियासत के सिपहसालार इसका इलाज ढूंढे तो बात बनें। कश्मीर को सियासतदानों ने एेसी मुनाफाखोरी की तिजारत में बदल दिया है जिसकी बदौलत वे रोजाना फौज की कीमत पर ‘रोजा अफ्तारी’ की दावतें उड़ा सकते हैं मगर वे भूल रहे हैं कि उनकी इस लापरवाही से लगातार फौज को सियासी रंगत में ढालने की साजिश परवान चढ़ रही है वरना क्या वजह है कि किसी सूबे की सरकार में यह हिम्मत पैदा हो सके कि वह केन्द्र सरकार के सीधे मातहत रहने वाली फौज के किसी अफसर के खिलाफ पुलिस में नाम लेकर एफआईआर दर्ज कर सके?
क्या कभी सोचा गया है कि जिस फौज की हल्की सी हरकत पर कभी जम्मू-कश्मीर की अवाम पुरसुकून हो जाया करती थी आज उसी के खिलाफ कुछ भटके हुए लोग पत्थर क्यों उठाने लगे हैं? हमारी संसद ने 1958 में फौज का जो खुसूसी कानून (अफ्सपा) बनाया था उसका मकसद किसी भी सूबे में लोगों की चुनी हुई सरकार के रुतबे को कुछ मुल्क फरामोश लोगों की दहशतगर्दी के कारनामों से पामाल करने की कोशिशों से निजात दिलाकर लोकतन्त्र का झंडा फहराने का था। यह हमारी कमजोरी नहीं थी बल्कि इस बात का सबूत था कि हमारी फौजें हमारे लोकतन्त्र की भी उसी शिद्दत के साथ मुहाफिज हैं जिस तरह हमारी सरहदों की मगर हमारी सियासतखोरी ने 1989 में जम्मू-कश्मीर के हालात जिस तरह बिगाड़े उसका फलसफा आने वाली नस्लें जरूर किसी न किसी दिन पढ़ेंगी और खुद को राजा जयचन्द का वंशज मानने वाले 11 महीनों के लिए वजीरे-आजम के औहदे पर रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह की असलियत से वाकिफ होंगी।
हमें जो लोग पाकिस्तान का हौवा दिखाते हैं और डराते हैं कि यह मुल्क भी एटमी ताकत हो चुका है, वे भूल जाते हैं कि इस मुल्क को अपनी फौज बनाने के लिए हमने 100 करोड़ रुपए कर्ज में दिये थे जिसका भुगतान उसने कभी नहीं किया और आखिर में 2002 में हमने उस कर्ज को मय सूद के माफ कर दिया। इसलिए एेसा मुल्क अगर हमें हजार जख्म देकर पशेमां करने की नीयत से काम कर रहा है तो यह हमारी सियासती तंजीमों की तौहीन है क्योंकि उनमें अभी तक यह सलाहयित नहीं आयी है कि एक खूंखार भेड़िये के मुंह से खून का चस्का कैसे खत्म किया जाता है। सियासत तो उस शै का नाम होता है जो जंग से बड़ा जंग का खौफ खड़ा करके जंगें जीत लेती है।
बेशक पं. नेहरू को शान्ति का मसीहा कहा जाता रहा हो मगर क्या यह इतिहास बदला जा सकता है कि 1961 में वही पं. नेहरू थे जिन्होंने पुर्तगाल जैसे यूरोपीय देश को सिर्फ 48 घंटे का समय दिया था और कहा था कि इसके भीतर-भीतर वह अपनी हुक्मरानी गोवा से खत्म कर दे वरना नतीजा भुगतने को तैयार रहे। यह महात्मा गांधी ही थे जिन्होंने पहली बार अपने पूरे जीवन में फौज को युद्ध के मोर्चे पर दुश्मन को गोलियों से निशाना बनाने की वकालत की थी और वह जम्मू-कश्मीर ही था जब 1947 में सितम्बर महीने में पाकिस्तानी फौजों ने कबायलियों के सहारे हमला बोला था। बापू ने तब कहा था कि एक फौजी का काम देश की रक्षा के लिए लड़ना होता है!