उत्तर प्रदेश में योगी सरकार गजब का योगासन कर रही है कि राज्य के हर जिले के प्रमुख अस्पतालों में बच्चों की सांसें आक्सीजन की कमी की वजह से बन्द हो रही हैं और दूसरी तरफ सरकार राजधानी लखनऊ में मैट्रो ट्रेन शुरू होने का जश्न मना रही है। राज्य के विकास का यह कौन-सा ढांचा है जिसमें स्वास्थ्य सेवाएं चरमरा रही हैं और लोगों को आधुनिकतम सेवाओं के तोहफों से नवाजा जा रहा है। राज्य के फर्रुखाबाद के डा. राम मनोहर लोहिया जिला अस्पताल में एक महीने में जिन 49 बच्चों की मृत्यु हुई वे सभी गरीबों के बच्चे थे और अपने नौनिहालों को बड़ी उम्मीदों से इस अस्पताल में लेकर गये थे। जिस मैट्रो रेल सेवा के उद्घाटन पर राज्य के राज्यपाल श्रीमान राम नाइक लगातार आधे घंटे से ज्यादा समय तक भाषण झाड़ते रहे उनके मुंह से अभी तक राज्य में बच्चों की कत्लगाह बने सरकारी अस्पतालों के बारे में एक शब्द भी नहीं फूटा है मगर दूसरी तरफ योगी सरकार इन बच्चों की मृत्यु से अपना पल्ला छुड़ाने के लिए इस कदर बेताब है कि वह अपने जिला प्रशासन के विरुद्ध रुख लेकर इन्हें सामान्य मौत दिखाने पर आमादा दिखाई पड़ती है।
गोरखपुर के बीआरडी अस्पताल में जिस तरह बच्चों के मरने पर पुराने आंकड़े निकालकर इसे जायज दिखाने की कोशिश की गई थी उससे यही सिद्ध हुआ था कि मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ उस गोरखपुर की मूलभूत समस्याओं से भी आंखें मूंदने वाले इस क्षेत्र की जनता के प्रतिनिधि पिछले 20 वर्ष से बने हुए हैं। ऐसे माहौल में यह सवाल खड़ा होना जरूरी है कि वह सच्चे लोकप्रतिनिधि होने के लिए विधानसभा का चुनाव लड़कर विधानसभा में क्यों नहीं आना चाहते हैं और विधानपरिषद के पिछले दरवाजे से सदस्य बनकर क्यों मुख्यमन्त्री बने रहना चाहते हैं मगर दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि उनकी सरकार का स्वास्थ्य मन्त्री सिद्धार्थ नाथ सिंह अभी भी पूरी बेशर्मी के साथ अपने पद से चिपका हुआ है। जिन डा. राम मनोहर लोहिया के नाम पर फर्रुखाबाद अस्पताल का नाम रखा गया है उन्हीं डा. लोहिया का कहना था कि अगर किसी सरकारी अस्पताल में एक भी व्यक्ति की मृत्यु चिकित्सा या जरूरी वस्तुओं के अभाव से होती है तो उसकी पहली जिम्मेदारी राज्य के स्वास्थ्य मन्त्री की ही होती है और उसे अपने पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं है मगर लोकतन्त्र के नाम पर पिछले दो दशकों से समूचे तन्त्र में जो भांग घोली जा रही है उसने सत्ता पर आने वाले राजनीतिक दलों के नेताओं को इस कदर नशेड़ी बना दिया है कि उन्हें आदमी की जगह हिन्दू-मुसलमान नजर आते हैं। इसके लिए दोषी पिछली अखिलेश सरकार भी थी आैर मौजूदा योगी सरकार भी है।
उत्तर प्रदेश का नाता जिस तरह से पिछले कई दशकों से समग्र और समावेशी विकास से छूटा है उसका दूसरा उदाहरण भारत के लोकतन्त्र में ढूंढने से नहीं मिल सकता। मैं किसी राजनीतिक पार्टी की बात नहीं कर रहा हूं, बल्कि लोकतन्त्र के गिरते स्तर की बात कर रहा हूं और सचेत कर रहा हूं कि जनता इन हालात को ज्यादा दिनों तक बर्दाश्त इसलिए नहीं कर सकती, क्योकि यह 21वीं सदी की जनता है। हम प्रतीकों या हवाई बातों से लोकतन्त्र को नहीं चला सकते। जमीन पर हमें वे ख्वाब उतारने होंगे जिनका वादा हमने लोगों से किया था। हमने जिस गरीब आदमी का भला करने का वादा सीना तान कर किया था उसका अक्स सरकार में कहीं न कहीं तो जरूर दिखाई पड़ना चाहिए, मगर हो उलटा रहा है। शिक्षक दिवस पर मुझे याद आ रहा है कि उत्तर प्रदेश वह राज्य है जिसमें शिक्षकों की तनख्वाहें पूरे देश में सबसे कम हैं।
निजी स्कूलों में इनका शोषण बदस्तूर जारी है। लोग आज पूछ रहे हैं कि कहां है वह वादा जिसमें कहा गया था कि भारत में पूरे विश्व में अपने शिक्षकों को देने की क्षमता है। क्या अभी तक एक भी शिक्षक किसी दूसरे देश में रोजगार के लिए गया है? नोटबन्दी के बाद से कितने शिक्षकों का शोषण रुका है? पूरा कारोबर वैसे ही चल रहा है जैसे पहले चल रहा था मगर योगी आदित्यनाथ तो उलटा यह फरमा गये कि लोगों के बच्चों को पालने की जिम्मेदारी क्या सरकार की है? मुझे तो आश्चर्य इस बात पर है कि यह कौन भाजपा का मुख्यमन्त्री है जिसने पं. दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानवतावाद के सिद्धान्त तक को नहीं पढ़ा। बिना शक लखनऊ की मैट्रो रेल परियोजना पिछली अखिलेश सरकार की देन थी। इसके उद्घाटन समारोह में उनकी शिरकत भी लोकतन्त्र के नजरिये से जरूरी थी और राजनितिक नैतिकता की मांग भी थी।