कोरोना संक्रमण के ‘असामान्य’ समय में बुलाया गया संसद का वर्षाकालीन सत्र भी जिन ‘असाधारण’ परिस्थितियों में समाप्त हुआ है उसे भारत के लोकतन्त्र में निश्चित रूप से ‘असहज’ कहा जायेगा। यह सनद रहनी चाहिए कि संसद का यह सत्र संसदीय नियमावली के सुगठित सेतुबन्ध को इस प्रकार तार-तार कर गया कि इसे संभालने वाले सभी स्तम्भ बिखर कर अपने-अपने अस्तित्व की पहचान पुनः स्थापित करने में नई मर्यादाओं को गढ़ने में मशगूल हो गये। स्वतन्त्र भारत के संसदीय इतिहास में पहली बार उच्च सदन में इसके उपसभापति के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव की पेशकश की गई जिसे तकनीकी कारणों से अस्वीकृत कर दिया गया। इस बारे में हमें दुनिया के महान दार्शनिक और विचारक ‘बर्टेंड रसेल’ के ये शब्द याद रखने चाहिए कि कर्त्तव्य निष्ठ व ईमानदार व्यक्ति वह होता है जो स्वयं में साधारण होते हुए भी उच्च पद पर पहुंच कर उसकी गरिमा के अनुसार असाधारण कार्य कर जाता है जो ऐसा करने में असमर्थ हो जाते हैं वे साधारण से भी आम हो जाते हैं’। अतः राज्यसभा में कृषि सम्बन्धी विधेयकों को लेकर पैदा हुए विवाद को यदि हम इस तराजू पर रख कर तोल लेंगे तो सभी भ्रम स्वतः दूर हो जायेंगे। यही उच्च सदन है जो 2001 में एक शब्द को लेकर उठे विवाद पर तीन दिन तक नहीं चल सका था। यह शब्द इराक में अमेरिकी सैनिक कार्रवाई को लेकर भारत की प्रतिक्रिया के सन्दर्भ में था।
तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने अमेरिका कार्रवाई का विरोध करते हुए संसद के दोनों सदनों में प्रस्ताव अंग्रेजी में रखा था और कहा था कि ‘दिस हाऊस डिप्लोर्स द यू एस मिलिटरी इनवेजन इन इराक’ राज्यसभा में विपक्ष ने इस पर कड़ी आपत्ति दर्ज करते हुए सुझाव दिया कि ‘डिप्लोर’ शब्द की जगह ‘कंडेम’ शब्द का प्रयोग होना चाहिए। संयोग से उस समय भी राज्यसभा में विपक्षी दलों का बहुमत था। कंडेम और डिप्लोर शब्द के अर्थों की मीमांसा राज्यसभा तीन दिन तक होती रही जिसका सार यह था कि कंडेम का अर्थ दंडात्मक प्रतिरोध होता है जबकि डिप्लोर का अर्थ भर्त्सना होता है। बाद में सत्तारूढ़ दल और विपक्ष के बीच सहमति बनी कि प्रस्ताव हिन्दी में लिखा जाये और इसमें ‘निन्दा’ शब्द का प्रयोग किया जाये जो कि भर्त्सना से बहुत ऊपर होता है।
राज्यसभा में इस एक शब्द को लेकर चली बहस से यही प्रमाणित होता था कि संसद में प्रयोग किये गये किसी एक शब्द की महत्ता का पैमाना क्या होता है और इस सदन में बैठने वाले सांसदों की जिम्मेदारी किस सीमा तक होती है, परन्तु हम संसद को केवल विधेयक पारित करने वाली फैक्टरी समझने की भूल नहीं कर सकते यह देश की जनता के जीवन में बदलाव लाने का सबसे बड़ा मंच होती है क्योंकि इसके हाथ में संविधान को संशोधित करने की शक्ति होती है। इस शक्ति के बूते पर संसद को यह सिद्ध करना होता है कि उसमें बैठे हुए सदस्य किस सीमा तक भारत की उस जनता की पीड़ा और समस्याओं को समझते हैं जिसने उन्हें चुन कर सदन में भेजा है। संसद केवल वाद – विवाद का प्रतियोगिता स्थल भी नहीं होती बल्कि इसका आचरण उस सूप (छाज) के अनुसार होता है जो केवल वस्तु को अपने भीतर रख कर शेष को फटकार देता है
‘‘साधू ऐसा चाहिए जैसे सूप सुहाय
सार-सार को गहि लयै थोथा देय उड़ाय।’’
अतः संसदीय लोकतन्त्र में जब कोई विधेयक संसद के किसी भी सदन में पारित होने के लिए आता है तो उस पर विपक्ष व सत्ता पक्ष के सदस्यों में इसी लिए बहस होती है जिससे उसके गुण-दोषों के बारे में विस्तार से चर्चा हो और उसमें जो सार तत्व हो उसे ग्राह्य किया जाये। संसदीय प्रणाली में इसी वजह से संसदीय स्थायी समितियों या प्रवर समितियों की स्थापना का विचार स्व. लाल बहादुर शास्त्री के प्रधानमन्त्रित्वकाल में रखा गया था और इसे अपनाया गया था। यह संसद की संरचना में हुए परिवर्तन को देखते हुए समयानुरूप बदलाव था। वर्तमान संसद में देश की 80 प्रतिशत जनता के जीवन से सम्बन्धित कृषि व श्रमिक विधेयकों को समुचित विचार-विमर्श के बिना पारित होना कालान्तर में कई प्रकार की दिक्कतें पेश कर सकता है। क्योंकि बहुत से विवादास्पद बिन्दुओं पर आम सहमति बनाने की प्रणाली को जरूरी नहीं समझा गया और राज्यसभा में कृषि विधेयकों पारित कराते समय सदन की नियमावली की उपेक्षा इस प्रकार से हो गई कि विपक्षी सांसद आपे से बाहर हो गए और उन्होंने तैश में आकर वह कार्रवाई कर डाली जिसकी अपेक्षा उनसे नहीं की जा सकती थी। मगर इसके साथ ही लोकतन्त्र का यह सिद्धान्त भी है जिसे समाजवादी विचारक डा. राम मनोहर लोहिया बहुत जोरदार आवाज में कहा करते थे कि ‘जब देश की सड़कों पर कोहराम मचा होता है तो संसद किसी भी सूरत में शान्त नहीं रह सकती’ मगर इसका दूसरा पक्ष भी हमें गौर फरमाना चाहिए और वह यह है कि जनता द्वारा बहुमत से चुनी गई सरकार को स्वयं पर भरोसा होना चाहिए कि वह जो कुछ कर रही है वह जनता की भलाई के लिए कर रही है इसलिए कृषि सम्बन्धी व श्रमिक विधेयकों पर मोदी सरकार के रुख को निरस्त नहीं किया जा सकता। विरोध का मतलब हमेशा सकारात्मक नहीं हो सकता। इसका सबसे बड़ा उदाहरण स्व. राजीव गांधी का कार्यकाल है जिसमें वह कम्प्यूटर इस देश में लाये थे। तब उनके इस काम को रोजगार समाप्त करने वाला बताया गया था और संसद से लेकर सड़क तक विरोध प्रदर्शन भी हुए थे। उन्होंने संचार क्रान्ति की शुरूआत भी की थी। आज यही कम्प्यूटर और संचार भारत की अन्दरूनी ताकत बन चुके हैं।
भारत में सरकार एक सतत प्रक्रिया है जिसमें पिछली सरकार द्वारा किये गये कार्यों पर अगली सरकार अपना काम शुरू करती है और प्राथमिकताएं तय करती है। लोकतन्त्र में इनका विरोध हो सकता है परन्तु अन्ततः सरकार की इच्छाशक्ति और उसका धैर्य ही लोगों की शक्ति भी बन जाता है। ऐसे भी कई और उदाहरण हमारे सामने हैं, परन्तु मुख्य होता है कि लक्ष्य स्पष्ट होना चाहिए। लोकतन्त्र में बहस इसीलिए जरूरी होती है जिससे सरकार स्वयं अपनी शक्ति से परिचित हो सके।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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