RSS chief's direct words: राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख श्री मोहन भागवत ने यह कहकर आज के राजनैतिक नेताओं को भारतीय लोकतन्त्र की उस अन्तर्निहित शक्ति को पहचानने का आह्वान किया है कि राजनीति में दो पक्ष होते हैं और उसके इन दोनों पक्षों की विवेचना करके ही किसी आम सहमति पर पहुंचा जाना चाहिए। श्री भागवत ने इसके साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि लोकतन्त्र में राजनीति शत्रुतापूर्ण ढंग से करने के लिए कोई गुंजाइश नहीं होती क्योंकि जो दो पक्ष आमने-सामने होते हैं वे एक-दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि प्रतियोगी होते हैं और दोनों का अपना-अपना पक्ष होता है अतः विरोधी को प्रतिपक्ष कहना ज्यादा उचित और सामयिक है। वास्तव में श्री भागवत ने अपने उद्बोधन में भारत के संसदीय लोकतन्त्र के आधारभूत दर्शन व सिद्धान्त को बहुत सरल तथा सुगम तरीके से कहने का प्रयास किया है।भारत का संसदीय लोकतन्त्र सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच तार्किक संवाद से चलता है। इस संवाद या वार्तालाप के बीच ही आम सहमति का रास्ता निकलता है । यह अकारण नहीं है कि संसद में सत्ता पक्ष द्वारा रखे गये किसी भी प्रस्ताव या विधेयक पर घंटों लम्बी बहस कराई जाती है और उसके बाद प्रस्ताव या विधेयक पारित होता है। जबकि पहले से ही यह ज्ञात होता है कि संसद में सत्ता पक्ष का बहुमत होगा ही। ऐसा केवल विशिष्ट विषय पर विपक्ष के नेताओं के विचार जानने के लिए ही होता है जिससे सन्दर्भित प्रस्ताव में आवश्यक संशोधन करने की जरूरत पड़े तो उसे किया जा सके।
सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों का चुनाव देश की आम जनता ही अपने एक वोट की ताकत से करती है अतः जनता के प्रतिनिधि दोनों ही होते हैं। इस प्रकार दोनों ही पक्ष जनता की आवाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। लोकतन्त्र की यही विशेषता होती है कि वह सत्ता में रहने वाले पक्ष के लोगों को भी सदैव सरल व भद्र बने रहने की प्रेरणा देता रहता है जिससे आम जनता के विचारों का अवलोकन बिना किसी राग-द्वेष या अहंकार के किया जा सके। हमारा संसदीय लोकतन्त्र अहंकार को इस प्रकार नकारता है कि लोकसभा या राज्यसभा में पहुंचने के बाद प्रधानमन्त्री से लेकर साधारण मन्त्री तक सभी लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति के प्रति नतमस्तक होकर ही सदन में अपना कोई आख्यान कर सकते हैं। लोकसभा में अध्यक्ष की सत्ता सर्वोच्च होती है और यही सदन तय करता है कि किस दल की सरकार बहुमत के आधार पर बनेगी अथवा नहीं बनेगी। अतः लोकतन्त्र अहंकार की भावना का स्वाभवगत तिरस्कार करता है। उनका यह कहना कि एक सच्चा जनसेवक कभी भी अहंकार नहीं करता है और बिना दूसरे को कष्ट दिये अपना सेवा कर्म करता रहता है।
संघ प्रमुख ने कुछ राष्ट्रीय समस्याओं की तरफ भी ध्यान दिलाया है। जैसे कि मणिपुर समस्या की तरफ इंगति करते हैं। उन्होंने कहा कि पिछले एक वर्ष से यह राज्य हिंसा में जल रहा है और इसकी तरफ ध्यान ही नहीं दिया जा रहा है। उनका स्पष्ट मन्तव्य था कि मणिपुर समस्या को सुलझाने के लिए सरकार को अब पहल करनी चाहिए और वहां के लोगों के आंसू पोंछने के लिए समुचित उपाय किये जाने चाहिए। एेसा करना भारत की एकता व अखंडता के लिए भी बहुत जरूरी है क्योंकि मणिपुर सीमावर्ती राज्य होने के साथ ही आदिवासी बहुल इलाका भी है। इसमें बन्दूक की संस्कृति का पनपना राष्ट्रीय अस्मिता के लिए बहुत ही चिन्ता की बात है। कुछ लोग उनके कथन का आशय यह भी निकाल रहे हैं कि संघ प्रमुख चाहते हैं कि मणिपुर में केन्द्र से एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल जाना चाहिए जिससे वहां के लोगों को यह आभास हो कि संकट की घड़ी में उनके साथ पूरा देश खड़ा हुआ है। लोकतन्त्र में चुनाव इस प्रणाली का प्रमुख अंग होते हैं परन्तु इनमें यदि राजनैतिक मर्यादाओं को तार-तार किया जाता है तो इनकी शुचिता और पवित्रता पर चोट पहुंचती है और उससे पूरे लोकतन्त्र का चरित्र पतित होता है। इस पतन को रोकने के लिए बहुत आवश्यक है कि चुनावों में नैतिक मर्यादाओं का पालन किया जाये और विपक्ष को शत्रु नहीं बल्कि प्रतियोगी समझा जाये।
स्पष्ट है कि जब प्रतियोगिता होगी तो शत्रु भाव का जन्म नहीं होगा और प्रतिस्पर्धी को हराने के लिए खेल के नियमों का पालन किया जायेगा। हालांकि भारत में चुनावों को सम्पन्न कराना चुनाव आयोग की जिम्मेदारी होती है और इसके लिए वह आदर्श आचार संहिता भी लागू करता है परन्तु इस आचार संहिता का हम कितना पालन करते हैं इसका उदाहरण हाल ही में सम्पन्न चुनाव हैं। चुनाव में उतरने वाली राजनैतिक पार्टियां भारत के संविधान से बन्धी होती हैं और चुनाव में उतरने वाला प्रत्येक प्रत्याशी पहले भारतीय संविधान की शपथ लेता है जिसमें भारत की एकता व अखंडता को अक्षुण्य रखने की कसम होती है। यदि चुनाव में भी कोई एेसा कृत्य किया जाता है जिससे भारतीय समाज आपस में बंटे या आपसी वैमनस्य उत्पन्न हो तो उसे हम राष्ट्र भक्तिपूर्ण कार्य कैसे कहेंगे। संघ प्रमुख का उपदेश केवल चेतावनी नहीं कहा जा सकता बल्कि वह समय की पुकार है क्योंकि राजनीति लगातार नीचे की तरफ ही जा रही है। सार्वजनिक विमर्शों की भाषा बाजारू होती जा रही है जिससे लोगों में उग्रता बढ़ रही है। परिणामस्वरूप मर्यादाएं टूट रही हैं और राजनीति का समग्र चरित्र गिरता जा रहा है।