ब्रिटिश लेखक सलमान रुश्दी पर न्यूयार्क में चाकुओं से हमला सभी को स्तब्ध करने वाला है। उनके स्वास्थ्य को लेकर जो रिपोर्टें फिलहाल आ रही हैं, वो बहुत अच्छी नहीं। उनकी एक आंख जाने की आशंका है, उनकी बाजू की नसें कट गई हैं और उनके लीवर पर भी चोट आई है। यद्यपि न्यूयार्क पुलिस ने हमलावर न्यूजर्सी निवासी 24 वर्षीय युवक हारी मतर को गिरफ्तार कर लिया है लेकिन हमले के पीछे क्या मकसद था, इस बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं दी गई है। इधर भारत में पैगम्बर मुहम्मद पर टिप्पणी करने वाली पूर्व भाजपा प्रवक्ता नुपूर शर्मा की हत्या की एक ओर साजिश का खुलासा हुआ है और पुलिस ने एक युवक नदीम को सहारनपुर से गिरफ्तार भी कर लिया है।
सलमान रुश्दी को उनकी किताब सैटेनिक वर्सेज के लिए पिछले 34 वर्षों में जान से मारने की धमकियां मिल रही थीं। भारतीय मूल के उपन्यासकार सलमान रुश्दी की चौथी किताब ‘द सैटेनिक वर्सेज’ 1989 में प्रकाशित हुई थी। इस उपन्यास से मुसलमानों में आक्रोश फैल गया था, उन्होंने इसकी सामग्री को ईशनिंदा करार दिया था। पूरी दुनिया में विरोध प्रदर्शन होने लगे थे और इस किताब पर प्रतिबंध लगाने की मांग होने लगी थी। पुस्तक के प्रकाशन के एक वर्ष बाद ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातुल्ला खुमेनी ने रुश्दी के खिलाफ मौत का फतवा जारी किया था। खुमेनी के फतवे के बाद पूरी दुनिया में कूटनीतिक संकट पैदा हो गया था।
इस किताब के प्रकाशन के बाद हुए विरोध प्रदर्शनों में दुनिया में 59 लोग मारे गए थे। धमकियों की वजह से खुद रुश्दी 9 साल तक छिपे रहे थे। सलमान रुश्दी का भारत से रिश्ता है, वह देश की आजादी के दो माह पहले मुम्बई में पैदा हुए थे, उन्हें 14 साल की आयु में पढ़ने के लिए इंग्लैंड भेजा गया था। पढ़ाई करते-करते वे इस्लाम से दूर होते गए और ब्रिटेन के नागरिक बन गए थे। भारत पहला ऐसा देश था जिसने उनके उपन्यास को प्रतिबंधित किया था। यह प्रतिबंध तत्कालीन राजीव गांधी की सरकार ने लगाया था। इसके बाद पाकिस्तान और कई अन्य इस्लामी देशों ने किताब पर प्रतिबंध लगाया था।हालात इतने खराब थे कि मुम्बई में मुसलमानों का प्रदर्शन हिंसक हो गया था और पुलिस फायरिंग में 12 लोग मारे गए थे। कश्मीर में भी तीन लोग मारे गए थे और पुलिस के साथ हिंसक झड़पों में सौ लोग घायल हो गए थे। इसी मुद्दे को लेकर ब्रिटेन और ईरान के संबंध भी टूट गए थे। ईरान और पश्चिमी देशों के संबंध भी काफी तनावपूर्ण हो गए थे। यद्यपि रुश्दी ने मुस्लिमों से माफी मांग ली थी लेकिन अयातुल्ला ने दोबारा उनकी मौत का फतवा जारी कर दिया था। कट्टरपंथियों ने रुश्दी की किताब के जापानी अनुवादक हितोशी की हत्या भी कर दी थी। वर्ष 1998 में ईरान ने रुश्दी की हत्या का फतवा वापिस ले लिया था, लेकिन इतने वर्षों बाद रुश्दी पर हमला मजहबी कट्टरवाद का परिणाम नजर आ रहा है। क्या सभ्य समाज में ऐसे हमलों काे सहन किया जा सकता है? रुश्दी पर हमले ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं, क्योंकि यह हमला घृणा, धार्मिक कट्टरता और आतंकवाद से संगठित विचार से उपजा है। फ्रांस भी धार्मिक कट्टरवाद का निशाना बना और भारत भी। फ्रांस में पैगम्बर साहब के कार्टून प्रकाशित करने वाली पत्रिका चार्ली एब्दो के सम्पादकों, पत्रकारों और छायाकरों को मौत के घाट उतार दिया गया था। उदयपुर में हुई कन्हैया लाल की हत्या और अमरावती में एक दवा व्यवसायी उमेश कोल्हे की हत्या भी धार्मिक कट्टरता के चलते की गई। अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर जितना अनर्गल बोलना गलत है, उससे कहीं ज्यादा धर्म के नाम पर इंसानों के सर कलम कर देना भी गलत है। यह किन्हीं व्यक्तियों की नहीं बल्कि मानवता की हत्या है।समस्या यह है कि कट्टर इस्लाम खुद को सर्वश्रेष्ठ और दूसरों को काफिर मानता है। धार्मिक कट्टरवाद का जहर मुस्लिम समाज की भीतरी सतहों को संकीर्ण बनाने का काम कर रहा है। यही संकीर्णता घातक सिद्ध हो रही है। इससे अन्य धर्मों के लोगों को तो खतरा है ही बल्कि यह इस्लाम धर्म से जुड़ी विभिन्न नस्लों को भी आपस में लड़ाने का काम कर रही है। सर तन से जुदा जैसे नारे अब असहनीय हो चुके हैं। धर्म की आड़ में आतंकवाद की नई पौध तैयार होने लगी है। सोशल मीडिया के जरिये नई पौध के दिमाग में जहर भरा जा रहा है। ईश निंदा करने वालों का सिर कलम करना पढ़ाया जा रहा हैऔर युवा उसी के मुताबिक व्यवहार करने लगे हैं। मदरसा शिक्षा के प्रति आकर्षण बना हुआ है। राजनीतिक मुस्लिम नेतृत्व धर्म के खोल से बाहर आकर समाज को वैज्ञानिक सोच आधारित नेतृत्व देने में नाकाम रहा है। अब समय आ गया है कि मजहबी कट्टरता का एकजुट होकर विरोध किया जाए। सलमान रुश्दी अभिव्यक्ति की आजादी के नायक हैं। तस्लीमा नसरीन भी वर्षों से धार्मिक कट्टरता सेे लड़ाई लड़ रही हैं। रुश्दी नफरत और बर्बरता को बढ़ावा देने वालों के कायरतापूर्ण हमले का शिकार हुए हैं। उनकी लड़ाई हम सबकी लड़ाई है। पूरे विश्व को उनके साथ खड़ा होना चाहिए।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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