अफगानिस्तान में खूंखार आतंकी संगठन आईएस (इस्लामिक स्टेट) बड़ी तेजी से फैल रहा है। ऐसा लगता है कि अफगानिस्तान आईएस की शरणस्थली बनने जा रहा है। अगर आईएस ने वहां अपना वर्चस्व कायम कर लिया तो वह न केवल अफगानिस्तान के हालात खराब कर देगा बल्कि वह मध्य एशिया, पाकिस्तान, चीन, ईरान, भारत और रूस के लिए एक बड़ा खतरा बन जाएगा। इन सभी देशों के लिए एक स्थिर अफगानिस्तान की जरूरत है। मास्को में हुई तालिबान समस्या सुलझाने के लिए वार्ता अब तक की युद्धस्तर पर हुई वार्ताओं से थोड़ा हटकर थी। भारत को तालिबान काे लेकर समस्याएं थीं क्योंकि कंधार विमान अपहरण कांड में तालिबान का हाथ था। फिर भी भारत अनौपचारिक रूप से बैठक में शामिल हुआ। हमारे देश की अपनी समस्याएं हैं और घरेलू राजनीति भी है।
भारत के बैठक में शामिल होने पर मीडिया ने शोर मचाना शुरू कर दिया कि भारत ने तालिबान के प्रति नरम रुख अपना लिया है। भारत विमान अपहर्ताओं से वार्ता की मेज पर बैठा है। यह सवाल भी उठाया गया कि क्या भारत ने अपनी विदेश नीति बदल ली है? पांच राज्यों के चुनावों के लिए प्रचार के दौरान विपक्ष इस मुद्दे पर मुखर नहीं हुआ। भारत ने बार-बार स्पष्ट किया कि बैठक में शामिल होने का अर्थ तालिबान से सीधी वार्ता नहीं है। अफगानिस्तान में अमेरिका की विफलता भी दूसरे देशों को उपाय ढूंढने पर मजबूर कर रही है। मास्को में हुई बैठक में आमंत्रित सभी देश शंघाई सहयोग संगठन के सदस्य भी हैं। अमेरिका ने भी इस बैठक को लेकर कोई आपत्ति नहीं की। बैठक में भले ही सऊदी अरब ने हिस्सा नहीं लिया लेकिन उसने भी कोई टिप्पणी नहीं की है।
अगर रूस ने अफगानिस्तान की स्थिरता और शांति के लिए पहल की है तो उसे सकारात्मक दिशा में उठाया गया कदम ही माना जाना चाहिए। रूस के सीरिया की असद सरकार के समर्थन में उतरने के बाद वह आईएस के निशाने पर है। अक्तूबर 2015 में मिस्र में आईएस द्वारा रूसी एयरलाइन का विमान गिराए जाने और 2016 में सेंट पीटर्सबर्ग मैट्रो में आतंकी हमले के बाद रूस काफी सतर्क है। वह मध्य एशिया के पड़ोस में आईएस की मौजूदगी बिल्कुल नहीं चाहता। रूस आईएस को खत्म करना चाहता है। इस काम में रूस तालिबान की मदद चाहता है। उधर तालिबान भी आईएस से परेशान है। उसे अब अफगानिस्तान फौज के साथ-साथ आईएस से भी जूझना पड़ रहा है। पिछले दो वर्षों से तालिबान और आईएस के बीच सैकड़ों झड़पें हुई हैं जिसमें दोनों के हजारों लड़ाके मारे गए हैं। तालिबान अफगानिस्तान में सत्ता हासिल करने के लक्ष्य के साथ चल रहा है। ऐसी स्थिति में आईएस उसके लक्ष्य में बाधक बनकर खड़ा हो गया है।
रूस को लगता है कि अफगानिस्तान में अमेरिका की नीति पूरी तरह नाकाम हो गई है और इसलिए अब उसे हस्तक्षेप करना चाहिए। अफगानिस्तान में अगर आईएस ने अपने गढ़ बना लिए तो फिर उसे उखाड़ने में काफी समय लगेगा। अमेरिका क्रीमिया और सीरिया में भी मात खा चुका है। पहले का इतिहास देखें तो रूस आैर तालिबान भी एक-दूसरे के कट्टर दुश्मन रहे हैं। अब सवाल यह है कि बदलती परिस्थितियों में रूस तालिबान से वार्ता क्यों कर रहा है? युद्ध में तबाह हो चुके अफगानिस्तान में रूस का दिलचस्पी लेना हैरान कर देने वाला है। 1989 से पहले रूस की फौजें अफगानिस्तान में थीं, तब अफगानिस्तान से रूस को भगाने के लिए अमेरिका ने तालिबान की हर तरह से मदद की थी। तालिबान को डॉलर और हथियार दिए। अमेरिका ने एक राक्षस पैदा किया जो अन्ततः उसी को खाने को दौड़ा। तालिबान के चलते ही रूसी सेना को अफगानिस्तान से लौटना पड़ा था।
फिर अमेरिकी फौजें अफगानिस्तान में आ गईं। रूस अब पूरी तरह तालिबान के सम्पर्क में है। मीडिया रिपोर्ट बताती हैं कि 2015 में ताजिकिस्तान में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और तालिबान के पूर्व प्रमुख मुल्ला अख्तर मंसूर के बीच आमने-सामने बातचीत भी हुई थी। भारत अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। अनेक महत्वपूर्ण परियोजनाओं में भारत ने काफी निवेश कर रखा है। तालिबान अफगानिस्तान में अमेरिकी हस्तक्षेप बिल्कुल नहीं चाहता। स्थिर और शांत अफगानिस्तान भारत के हित में है। आईएस के निशाने पर भारत भी है।
अगर रूस आैर अन्य देशों की पहल से अफगानिस्तान में शांति की उम्मीद जागी है तो यह सकारात्मक पहल है। तालिबान भी अमेरिका से सीधी बात करना चाहता है। फिलहाल उसने कुछ शर्तें रखी हैं। आईएस के बड़े खतरे से निपटने के लिए सभी देशों काे एक साथ आना चाहिए आैर अफगानिस्तान में तालिबान आैर सरकार में वार्ता से कई समस्याओं को सुलझाना चाहिए। अगर वहां आतंक के दैत्य आईएस ने विकराल रूप ले लिया तो पाकिस्तान सबसे अधिक प्रभावित होगा। आईएस के लड़ाके सबसे पहले पाकिस्तान की ओर ही बढ़ेंगे।