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रूस, भारत और तालिबान

इसमें कोई दो राय नहीं कि दुनिया के राजनीतिक समीकरण काफी बदल चुके हैं। शीतयुद्ध के बाद दुनिया वैसी नहीं रही जैसी शीत युद्ध के दौरान हुआ करती थी। रिश्तों और जरूरत के आयाम बहुत व्यापक हुए हैं

इसमें कोई दो राय नहीं कि दुनिया के राजनीतिक समीकरण काफी बदल चुके हैं। शीतयुद्ध के बाद दुनिया वैसी नहीं रही जैसी शीत युद्ध के दौरान हुआ करती थी। रिश्तों और जरूरत के आयाम बहुत व्यापक हुए हैं। इस सबके बावजूद भारत-रूस के रिश्तों में कुछ नहीं बदला। कूटनीतिक स्तर पर भारत-रूस रिश्तों में बर्फानी ठंडक भी आई। इस ठंडक में भारत की भूमिका कुछ ज्यादा ही रही। इसमें कोई संदेह नहीं कि आजादी के बाद भारत और रूस के रिश्ते ज्यादा ही भावनात्मक रहे। भारत के लोग भी रूस को देश का स्वाभाविक दोस्त और अमेरिका को दगाबाज मानते हैं। अतीत में कई ऐसे मौके आए हैं जब रूस भारत के साथ एक विश्वसनीय दोस्त की तरह खड़ा दिखा है। चाहे वह पाकिस्तान में युद्ध की स्थिति हो या फिर भारत में बुनियादी ढांचे को​ ​विकसित करने की। रूस ने भारत में एक-एक करके स्टील कारखाने स्थापित करने में मदद की जो भारत की औद्योगिक संरचना का आधार बने। रूस ने भारत को स्पेस टैक्नोलॉजी में मदद की, बल्कि अकेले भारतीय राकेश शर्मा को अंतरिक्ष में भी भेजा। भारतीय जानते हैं कि देश के विकास में रूस का अहम योगदान है। अब अफगानिस्तान के मामले में भारत और दुनिया के तमाम देश ‘देखो और इंतजार करो’ की नीति अपना रहे हैं। अफगानिस्तान के घटनाक्रम को लेकर वैश्विक शक्तियां भी चिंतित हैं। इसी बीच रूस ने 20 अक्तूबर को मास्को में अफगानिस्तान पर बैठक बुलाई है। इस बैठक में भारत को भी आमंत्रित किया गया है। भारत ने​ निमंत्रण स्वीकार कर लिया है। 15 अगस्त को तालिबान द्वारा अशरफ गनी सरकार को उखाड़ फैंकने के बाद इस मास्को वार्ता का यह पहला संस्करण होगा।  मास्को की बैठक में नई दिल्ली और तालिबान आमने-सामने होंगे। रूस और चीन ने अभी तक तालिबान सरकार को मान्यता नहीं दी है। पाकिस्तान लगातार दु​निया से अपीलें कर रहा है कि तालिबान सरकार को मान्यता दे दी जाए लेकिन उसकी हर अपील खाली जा रही है। अफगानिस्तान में भारत का अरबों का ​निवेश इस समय दाव पर है। पाकिस्तान अपने​ हितों को देख रहा है। पाकिस्तान इस अफगानिस्तान में तालिबान सरकार को भारत के साथ प्रतिद्वंद्विता के संदर्भ में देखता है। 
पिछली सरकार का झुकाव भारत की तरफ था। भारत ने गृहयुद्ध से जर्जर हो चुके अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था। भारत ने तालिबान को कभी स्वीकार ही नहीं किया। रूस और चीन अफगानिस्तान में अमेरिकी फौजों के दबदबे से खुश नहीं थे। उनकी कोशिश थी कि अमेरिका यहां से जाए, फिर उसके लिए जगह बने। चीन की नजरें अफगानिस्तान के संसाधनों पर हैं। रूस चाहता है कि मध्य ​एशियाई देशों में किसी तरह की इस्लामिक कट्टरता न आए। मान्यता देना ऐसा मामला है जिसमें तालिबान सरकार पर दबाव बनाया जा सकता है। यदि चीन और रूस तालिबान सरकार को मान्यता दे देंगे तो फिर इनके पास कुछ नहीं बचेगा। पाकिस्तान भले ही तालिबान सरकार बनने के बाद खुद को तथाकथित विजेता बता रहा है लेकिन सच तो यह है कि वहां अब भी पाकिस्तान की उम्मीदों के मुताबिक हालात नहीं बन पाए, जिसमें उसके खुद के लिए कई चुनौतियां पैदा हो गई हैं। एक तरफ तालिबान अन्तर्राष्ट्रीय समुदायों पर खरा नहीं उतरा, तो दूसरी तरफ उसे सरकार चलाने में मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। मानवीय और आर्थिक संकट गहराता जा रहा है। 
अफगानिस्तान को आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक से मिलने वाली मदद रूकी हुई है। जब तक अमेरिका मान्यता नहीं देता तब तक मदद का रास्ता नहीं खुल सकता और ना पश्चिमी देशों का समर्थन और सहयोग मिल सकता है। पाकिस्तान की चिंता यह भी है कि अफगानिस्तान में अस्थिरता और कट्टरता बढ़ी तो पाकिस्तान तहरीके तालिबान पूरी तरह से राक्षस बन जाएगा। अगर यह डर नहीं है तो फिर पाकिस्तान अब तक तालिबान की सरकार को मान्यता की घोषणा क्यों नहीं कर रहा। रूस और चीन अफगानिस्तान में समावेशी सरकार और मानवाधिकारों की बात कर रहे हैं लेकिन तालिबान खुद को बदलने के लिए तैयार नहीं। तालिबान का महिलाओं के प्रति क्रूर चेहरा सबके सामने है। इसलिए अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को तालिबान का समर्थन करने के लिए तैयार होना बहुत मुश्किल है।
रूस द्वारा मास्को में बुलाई गई बैठक में एक तरफ चीन और पाकिस्तान होंगे तो दूसरी तरफ रूस, भारत और ईरान भी होंगे। पाकिस्तान के लिए मुश्किल यह भी है कि अगर तालिबान सरकार में कट्टरता हावी रहती है तो पाकिस्तान को इसके​ लिए आलोचना झेलनी पड़ सकती है। पाकिस्तान आज स्वयं कंगाली के दौर में है। वह इस समय एफएटीएफ की ग्रे लिस्ट में बना हुआ है। ऐसे में तालिबान का समर्थन पाकिस्तान के लिए महंगा पड़ सकता है। मास्को बैठक में भारत रूस को साथ लेकर तालिबान पर दबाव बना सकता है। भारत और तालिबान करीब आ सकते हैं। देखना यह होगा कि भारत के हित कैसे सुरक्षित रह सकते हैं। रूस चाहता है कि उपमहाद्वीप में शांति और स्थिरता कायम हो। मास्को अफगानिस्तान में आईएसआईएस के बढ़ते प्रभाव से भी चिंतित है। भारत अपने हितों की रक्षा के लिए रूस के दबाव का इस्तेमाल कर ­सकता है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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