दक्षेस बनाम सार्क यानी दक्षिण एशिया सहयोग संगठन क्या अब प्रासंगिक हो चुका है? इस सवाल का जवाब तलाश करें तो स्पष्ट हो जाता है कि यह संगठन अर्थहीन हो चुका है। इस संगठन के सभी 8 देश न केवल आंतरिक समस्याओं से जूझ रहे हैं बल्कि बाहरी समस्याओं से भी लड़ रहे हैं। यद्यपि दक्षिण एशिया विश्व का एक प्रमुख क्षेत्र है। लम्बे समय तक यहां किसी बहुसरकारी सहयोग संगठन का अस्तित्व नहीं था। क्षेत्र के लोगों के कल्याण के लिए एक संगठन स्थापित करने का विचार सबसे पहले बंगलादेश के पूर्व राष्ट्रपति जिया-उर-रहमान ने उस समय पेश किया था जब वे 1977-80 की अवधि में पड़ोसी देशों की सरकारी यात्रा पर थे। नवम्बर 1980 में बंगलादेश ने दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय सहयोग विषय पर एक दस्तावेज तैयार किया था और उसे दक्षिण एशियाई देशों में वितरित किया गया। 1981 और 1988 के मध्य सामूहिक तथ्यों की प्रािप्त और परिचालन एवं संस्थागत सम्पर्क गठित करने के लिए विदेश सचिव स्तरीय कई बैठकें हुईं। 1993 में नई दिल्ली में एक मंत्रिस्तरीय सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन के फलस्वरूप दक्षिण एशिया सहयोग संगठन गठित हुआ और एकीकृत कार्यक्रम योजना की शुरूआत हुई। एकीकृत कार्यक्रम योजना के तहत सदस्य देशों के बीच कृषि, संचार, शिक्षा, संस्कृति एवं खेल, पर्यावरण और मौसम विज्ञान इत्यादि के क्षेत्रों में सहयोग स्थापित करने पर सहमति हुई।
इन समस्याओं की वजह से ही दक्षिण एशिया के ये विकासशील कहे जाने वाले देशों के सार्क सम्मेलन अनेक मुद्दों को लेकर सामने आते रहे लेकिन सम्मेलनों में उठे मुद्दे कुछ ही दिन बाद हाशिये पर जाते रहे। अच्छे उद्देश्यों को लेकर बना संगठन अपनी राह भटक गया। आपसी दुश्मनी, आंतरिक समस्याओं से संघर्ष के कारण यह संगठन एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने का अखाड़ा बन गया। यह संगठन भारत और पाकिस्तान के टकराव के मंच में तबदील हो गया। इसका मुख्य कारण पाकिस्तान का आतंकवाद ही रहा, साथ ही बंगलादेश, नेपाल और श्रीलंका जैसे कुछ देश भी इस मुद्दे पर अपनी ताल ठोकते रहे हैं। एक बार मैंने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को व्यक्तिगत तौर पर राय दी थी कि आपको सार्क सम्मेलन में नहीं जाना चाहिए लेकिन अटल जी ने कहा था कि प्रधानमंत्री के तौर पर मेरी भी प्रतिबद्धताएं हैं लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले वर्ष इस्लामाबाद में होने वाले सार्क सम्मेलन में जाने से इन्कार कर दिया क्योंकि 18 सितम्बर को उड़ी पर हुए आतंकवादी हमले के बाद पाकिस्तान से संंबंध काफी तनावपूर्ण हो गए थे। भारत ने इस आतंकी हमले में सीमा पार के आतंकियों का हाथ होने के सबूत दिए थे। भारत की ओर से बेहद कड़ी प्रतिक्रिया के बाद बंगलादेश, भूटान, नेपाल ने भी सम्मेलन में जाने से इंकार कर दिया। अफगानिस्तान ने भी अफगानिसतान पर थोपे गए आतंकवाद के लिए पाक की तरफ इशारा करते हुए सम्मेलन से किनारा कर लिया और परिणामस्वरूप इस्लामाबाद सम्मेलन रद्द कर दिया गया। आतंकवाद पर भारत को सदस्य देशों का भरपूर समर्थन मिला।
विदेश सचिव एस. जयशंकर ने एक कार्यक्रम में सही कहा है कि दक्षेस एक फंसे हुए वाहन की तरह है, क्योंकि इसका एक सदस्य देश दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय ब्लाक के अन्य सात सदस्यों के साथ आतंकवाद जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर एकमत नहीं है। विदेश सचिव का इशारा पाकिस्तान की तरफ रहा। उन्होंने कहा कि दक्षेस नाम का वाहन दो बड़े मुद्दों आतंकवाद आैर समन्वय की कमी की वजह से एक तरह से फंसा हुआ है। इन मुद्दों पर सभी देशों की एक राय नहीं है, खासतौर पर एक देश है जो बाकी के अन्य देशों के साथ एकमत नहीं है। विदेश सचिव की टिप्पणियां एेसे समय आई हैं जब भारत दक्षेस के विकल्प के तौर पर दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों के समूह बे आफ बंगाल इनिशिएटिव फॉर मल्टी सेक्टोरल टैक्निकल एंड इकोनामिक कोआपरेशन यानी बिम्सटेक को और प्रासंगिक बनाने की कोशिश कर रहा है। भारत अपना रास्ता खुद बना रहा है, सम्पर्क के मामले में भी भारत अग्रणी है। दक्षिण एशिया के लिए सम्पर्क की योजनाएं अच्छी हैं लेकिन उसको सिद्धांतों के अनुरूप और स्थायी होना चाहिए। भारत बंगलादेश, नेपाल, जापान के साथ लगातार सम्पर्क बढ़ा रहा है। अनेक परियोजनाओं पर काम चल रहा है। एशिया प्रशांत क्षेत्र में भारत, जापान, आस्ट्रेलिया, अमेरिका का आर्थिक गठजोड़ बनाने के प्रस्ताव को आगे बढ़ाया जा रहा है। सहयोग तब होता है जब आपस में मैत्री हो, पाकिस्तान ने तो दक्षेस के मंच पर हमेशा कश्मीर का खेल खेला। आतंकवादी देश से मैत्री कैसे हो सकती है। दक्षेस जाए कुएं में, हमें चीन की सलाह की भी जरूरत नहीं, भारत अपनी मंजिल खुद तय कर लेगा।