केरल के सबरीमाला मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश का मामला काफी वर्षों से चल रहा है। सबरीमाला मन्दिर को श्री अयप्पा के बड़े तीर्थस्थल के रूप में माना जाता है। हर वर्ष यहां करोड़ों श्रद्धालु आते हैं आैर मन्दिर की परम्पराओं के अनुसार पूजा-अर्चना कर मनोकामना पूर्ण होने की मन्नत मांगते हैं। 1500 वर्षों से भी ज्यादा समय से मन्दिर में 10 वर्ष से लेकर 50 वर्ष तक की महिलाओं का प्रवेश वर्जित है क्योंकि ऐसी धारणा है कि राजस्वला महिलाएं शुद्धता बनाए नहीं रख सकतीं। महिलाओं की बराबरी की मांग कई वर्षों से चली आ रही है जबकि इसका विरोध करने वाले मन्दिर की परम्परा का हवाला देते हैं।
कंब रामायण, महाभारत के अष्टम स्कंध और स्कंदपुराण के असुर कांड में जिस शिशु शास्ता का उल्लेख है, अयप्पा उसी का अवतार माने जाते हैं। उन्हीं अयप्पा का मशहूर मन्दिर पूणकवन के नाम से विख्यात 18 पहाड़ियों के बीच स्थित है। इस मन्दिर को लेकर कई मान्यताएं हैं। माना जाता है कि भगवान परशुराम ने अयप्पा पूजा के लिए सबरीमाला में मूर्ति स्थापित की थी। यह भी मान्यता है कि इस मन्दिर का सम्बन्ध शबरी से है जिन्होंने वनवास के दौरान भगवान राम को अपने जूठे बेर खिलाए थे। सवाल उठता है कि जो मन्दिर महिला के नाम पर है वहां महिलाओं के प्रवेश पर रोक क्यों? इस मन्दिर में न तो जात-पात का कोई बन्धन है और न ही अमीर-गरीब का। यहां प्रवेश करने वाले सभी धर्म, सभी वर्ग के लोग समान हैं लेकिन इस ऐतिहासिक मन्दिर में पुरानी परम्परा के मुताबिक तरुण अवस्था मेें प्रवेश कर चुकी महिलाओं का मन्दिर में आना वर्जित है।
इससे पहले महाराष्ट्र के प्रसिद्ध शनिधाम मन्दिर में महिलाओं को पूजा के लिए चबूतरे पर प्रवेश वर्जित था लेकिन महिलाओं के आन्दोलन के बाद उन्हें भी पूजा-अर्चना की इजाजत दी गई। मुम्बई की दरगाह हाजी अली की मजार तक जाने की अनुमति भी महिलाओं को नहीं थी। इसके लिए भी महिला कार्यकर्ताओं ने आन्दोलन चलाया। वर्षों पुरानी परम्पराएं टूटीं, इतिहास बदला लेकिन केरल के इस मन्दिर में महिलाओं का प्रवेश वर्जित रहा। सबरीमाला अयप्पा भगवान का मन्दिर है आैर भगवान अयप्पा को ब्रह्मचारी और तपस्या में लीन माना जाता है। 2007 में केरल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में मन्दिर प्रशासन के समर्थन में कहा था कि धार्मिक मान्यताओं की वजह से महिलाओं को मन्दिर में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी जा सकती लेकिन केरल की वामपंथी यूडीएफ सरकार ने 2007 के हलफनामे के विपरीत हलफनामा दायर करके कहा था कि मंदिर में हर उम्र की महिलाओं को प्रवेश दिया जाना चाहिए। सबरीमाला मन्दिर बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट में केरल सरकार के हलफनामे का विरोध किया। ट्रस्ट का कहना है कि सरकार अपना स्टैंड नहीं बदल सकती। केरल यंग लायर्स एसोसिएशन की याचिका पर मामले को संविधान पीठ के हवाले कर दिया गया। शीर्ष अदालत ने पिछले वर्ष 13 अक्तूबर को 5 सवाल तैयार करके संविधान पीठ के पास भेजे थे। इनमें यह सवाल भी था कि क्या मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध पक्षपात करने के समान है और इससे संविधान के अनुच्छेद 14, 15 में प्रदत्त उनके मौलिक अधिकारों का हनन होता है आैर उन्हें अनुच्छेद 25 और 26 में प्रयुक्त ‘नैतिकता’ से संरक्षण प्राप्त नहीं है।
अब सवाल उठता है कि क्या आस्था और विश्वास के आधार पर लोगों में अन्तर किया जा सकता है? अगर संविधान को देखें तो ऐसा करना महिलाओं के मौलिक अधिकारों का हनन ही है। सबरीमाला मन्दिर बोर्ड ने मन्दिर आने वाली महिलाओं को अपना जन्म सम्बन्धी प्रमाणपत्र लाने को भी अनिवार्य बना दिया था। मामले की सुनवाई के दौरान मन्दिर बोर्ड के प्रधान ने यह भी कहा था कि वह सबरीमाला मन्दिर को थाइलैंड जैसा नहीं बनने देंगे। अगर महिलाओं को प्रवेश दिया गया तो यह मन्दिर एक टूरिस्ट स्थल बनकर रह जाएगा। अब इस मामले में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने टिप्पणी की है कि देश में प्राइवेट मन्दिर का कोई सिद्धांत नहीं है। यह सार्वजनिक सम्पत्ति है। सार्वजनिक सम्पत्ति में अगर पुरुषों को प्रवेश की इजाजत है तो फिर महिलाओं को भी प्रवेश की इजाजत मिलनी चाहिए। मन्दिर खुलता है तो उसमें कोई भी जा सकता है। संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत सब नागरिक किसी धर्म को मानने या उसका प्रसार करने के लिए स्वतंत्र हैं। इसका अर्थ यही है कि एक मिहला के नाते आपका प्रार्थना करने का अधिकार किसी विधान के अधीन नहीं है, यह संवैधानिक अधिकार है। संविधान पीठ में शामिल जस्टिस चन्द्रचूड़ ने भी कहा कि महिला भी भगवान की रचना है तो फिर रोजगार आैर पूजा में भेदभाव क्यों? महिलाओं के मासिक धर्म का धार्मिक मामलों से क्या ताल्लुक है? परम्पराएं समय और युग के साथ बदलती रहती हैं। संविधान पीठ की टिप्पणियों से उम्मीद बंधी है कि अन्तिम फैसला महिलाओं के हक में आएगा और मन्दिर का इतिहास बदल जाएगा।