राजस्थान के राजनीतिक नाटक का पटाक्षेप होता इस तरह लग रहा है कि बागी कांग्रेसी नेता सचिन पायलट घर वापसी के लिए बेजार नजर आते हैं। सचिन के पास और कोई रास्ता भी नहीं बचा था क्योंकि उन्होंने स्वयं ही ‘जोश’ में आकर ‘होश’ से काम नहीं लिया था, राज्य विधानसभा का सत्र शुरू होने में अब केवल दो दिन का समय ही शेष बचा है और उन सचिन पायलट का दिमाग ठिकाने पर आ गया है जो कल तक कह रहे थे कि उन्हीं की पार्टी की गहलोत सरकार ‘अल्पमत’ में आ गई है।
इस पूरे राजनैतिक घटनाक्रम से एक हकीकत निकली है कि सचिन बाबू अभी राजनीति में अधकचरे खिलाड़ी हैं। वह उसी पेड़ की डाल को काटने चले थे जिस पर खुद बैठे थे। राजस्थान में विपक्षी पार्टी भाजपा के लिए सचिन पायलट किसी काम के साबित नहीं हुए जिसकी वजह से उनके दोनों ‘हाथों के तोते उड़ गये।’ इसे राजनीति की भाषा में ‘नौखियापन’ कहा जाता है, दूसरी तरफ मुख्यमन्त्री अशोक गहलोत ने एक परिपक्व राजनीतिज्ञ का परिचय देते हुए साफ कर दिया कि उनके लिए अपनी पार्टी की मर्यादा सबसे ऊपर है और इस काम में उनका साथ कांग्रेस के विधायकों ने जमकर दिया।
गहलोत समय के अनुसार राजनीतिक पांसा फेंकने के सिद्धहस्त कलाकार साबित हुए और विपरीत परिस्थितियों में भी उनके कदम नहीं डगमगाये, मगर राजस्थान की राजनीति ने कुछ बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े कर दिये हैं जिनमें सर्वाधिक विधायिका और न्यायपालिका का कार्य क्षेत्र है, संसदीय प्रणाली में विधायिका का रुतबा इस तरह ऊंचा रखा गया है कि संसद को कानून में संशोधन करने का अधिकार है। अतः इसी से यह विमर्श निकला है कि ‘संसद सर्वोच्च’ होती है परन्तु यह संविधान के उस आधारभूत ढांचे से कोई छेड़छाड़ नहीं कर सकती जो न्याय और धर्मनिरपेक्षता पर टिका होता है।
संसद द्वारा बनाये गये कानूनों की समीक्षा न्यायपालिका इसी दृष्टि से करती है, इसके साथ ही संसद या विधानसभा की सर्वोच्चता के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने ऐसी इमारत हमें सौंपी जिसमें चुने हुए सदनों की स्वायत्तता पर किसी भी हालत में अतिक्रमण न हो सके। इन सदनों के अध्यक्षों को इनका संरक्षक बनाया गया और प्रत्येक चुने गये सदस्य के अभिभावक के रूप में उनकी भूमिका नियत की गई और इन सदनों की कार्यवाही को न्यायिक समीक्षा से परे रखा गया।
साथ ही सदस्यों को विशेषाधिकार से लैस किया गया। यह सब निडर, निष्पक्ष और सबल लोकतन्त्र स्थापित करने के नजरिये से किया गया। अतः न्यायपालिका और विधायिका के बीच जब भी सन्तुलन गड़बड़ाता है तो प्रणालीगत विसंगतियां जन्म लेने लगती हैं। राजस्थान विधानसभा अध्यक्ष और उच्च न्यायालय को लेकर पिछले दिनों हमें यही देखने को मिला जब उच्च न्यायालय ने दल-बदल कानून के तहत अध्यक्ष श्री पी.सी. जोशी द्वारा लिये गये निर्णय पर अड़ंगा डाला। खैर यह मामला अब सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है।
सचिन प्रकरण में सबसे बड़ी विसंगति यही देखने को मिली जिसका निपटारा अब सर्वोच्च न्यायालय करेगा मगर साथ ही यह भी देखने को मिल रहा है कि पिछले वर्ष बहुजन समाज पार्टी के चुने हुए जिन छह विधायकों ने सामूहिक रूप से कांग्रेस पार्टी के ‘विधानमंडलीय दल’ की सदस्यता ग्रहण कर ली थी उसे भाजपा के एक विधायक ने उच्च न्यायालय में चुनौती दी जिसे वहां बर्खास्त कर दिया गया। अब यह याचिका भी सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है। इसमें एक बहुत मोटी सी कानूनी बात समझने वाली है कि बसपा विधानमंडलीय दल ने अपना विलय कांग्रेस विधानमंडलीय दल में किया है।
बसपा पार्टी का विलय कांग्रेस में नहीं हुआ है। सदन के भीतर किये गये फैसलों की वैधानिकता के संरक्षक अध्यक्ष होते हैं। उन्होंने इस विलय को स्वीकार्यता दी है जो कि दल-बदल कानून के तहत है तो इसकी न्यायिक समीक्षा की ज्यादा गुंजाइश नहीं बचती है। दल बदल कानून कहता है कि यदि किसी पार्टी के दो तिहाई विधायक अपनी पार्टी छोड़ कर नया गुट या दल बनाते हैं अथवा किसी दूसरे दल में विलय करने पर सहमत होते हैं तो उनका दल छोड़ना वैध माना जायेगा और उनकी सदस्यता बरकरार रहेगी।
इसी दल-बदल कानून की विभिन्न धाराओं की तलवार जब सचिन पायलट के विद्रोही गुट पर लटकनी शुरू हुई तो इन्हें अपनी सदस्यता बरकरार रखने के लिए श्री राहुल गांधी की शरण में जाने की सुध आयी। सचिन के साथ केवल 18 विधायक हैं जो कांग्रेस विधानमंडलीय दल की शक्ति के छठे भाग के बराबर हैं, साथ ही इतने विधायकों के साथ सचिन बाबू भाजपा के विधायकों के साथ मिल कर यदि मध्य प्रदेश जैसा इस्तीफा देने का नाटक करते तब भी गहलोत सरकार के स्थायित्व पर कोई असर नहीं पड़ता।
इसलिए खुद को ऐसी स्थिति में पाकर उन्हें पुनः अपने घर में वापस जाने की सूझ रही है, परन्तु पिछले डेढ़ महीने में सचिन बाबू ने जो करतब किया है उससे राज्य में कांग्रेस पार्टी की छवि को भारी धक्का भी लगा है मगर इससे भी ज्यादा नुक्सान उन्होंने अपनी छवि को अर्श से फर्श पर लाकर कर लिया है जिसकी भरपाई निकट भविष्य में तब तक नहीं हो सकती जब तक कि स्वयं राहुल गांधी ही उन्हें इसकी इजाजत न दें।
उन्होंने श्री राहुल गांधी व प्रियंका गांधी से भेंट करने में सफलता प्राप्त करके केवल कांग्रेस में रहने भर का जुगाड़ किया है मगर राजस्थान की जनतामें सचिन पायलट की छवि प्रभावित हुई है। इसकी भरपाई किस प्रकार होगी यह वही जानें।